भारत के रेगिस्तानी और पहाड़ी इलाकों में हमेशा से ही पानी का संकट रहा है और ये आज तक चलता आ रहा है। जैसे ही गर्मी का मौसम शुरू होता है इन क्षेत्रों में पानी की कमी और समस्या को लेकर चर्चा शुरू हो जाती है। लेकिन अब जब भारत आज़ादी के 75 साल पूरे होने पर ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ मना रहा है तब भी पीने के पानी की समस्या को लेकर कोई पुख्ता समाधान नहीं किया गया है। सरकारों की नीतियों और इरादों से ऐसे लग रहा जैसे इस समस्या से निजात पाने में अभी बहुत अधिक समय लगेगा।
जैसे ही अप्रैल शुरू हुआ राजस्थान से पेयजल संकट की ख़बरें आनी शुरू हो गईं। इसके साथ ही साथ महिलाओं के जीवन की एक और परीक्षा, क्योंकि न केवल भारत में बल्कि पूरे विश्व में परिवार के लिए पीने के पानी की व्यवस्था करना घर की महिलाओं और लड़कियों का नैतिक कर्तव्य माना जाता है। भारत और विश्व में पानी लाने के लिए महिलाओं को हर दिन लंबी दूरी तय करनी पड़ती है।
यूनिसेफ के मुताबिक भारत में एक महिला पानी इकठ्ठा करने के लिए प्रतिदिन औसतन 16 किलोमीटर की यात्रा तय करती है, जिसमें उनके ऊपर कम से कम 15 से 20 लीटर भार भी होता है। इस गर्मी के मौसम में इतने भार के साथ इतनी लंबी यात्रा करते समय महिलाओं को कई बीमारियों से भी जूझना पड़ता है। इससे उनके और उनके बच्चों के स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। दुनियाभर में महिलाएं और लड़कियां हर दिन करीब 200 मिलियन घंटे केवल पानी इकट्ठा करने में लगाती हैं। यूनिसेफ के मुताबिक दुनिया के 80 फीसदी घरों में पानी लाना महिलाओं और लड़कियों की ही ज़िम्मेदारी होती है। इस तरह से महिलाओं का अधिकतर समय तो पानी लाने में ही बीत जाता है इसलिए उनके पास दूसरे कामों और अपने बच्चों के लिए बिल्कुल कम समय बचता है। इस तरह ये महिलाएं अपनी पूरी क्षमता से जीवन नहीं जी पाती।
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यूनिसेफ के मुताबिक भारत में एक महिला पानी इकठ्ठा करने के लिए प्रतिदिन औसतन 16 किलोमीटर की यात्रा तय करती है, जिसमें उनके ऊपर कम से कम 15 से 20 लीटर भार भी होता है। इस गर्मी के मौसम में इतने भार के साथ इतनी लंबी यात्रा करते समय महिलाओं को कई बीमारियों से भी जूझना पड़ता है। इससे उनके और उनके बच्चों के स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है।
बात राजस्थान के पानी के संकट और महिलाओं की
राजस्थान की बात करें तो यहां पर पीने के पानी का मुख्य स्रोत भूमिगत पानी है। राजस्थान के लगभग सभी 33 ज़िलों में भूमिगत पानी में फ्लोराइड मौजूद है। इसके साथ-साथ राज्य के 9 जिलों में तो स्थिति ज्यादा ही गंभीर है, जहां पर लगभग 50 फीसदी से ज्यादा गांवों के भूमिगत पानी में फ्लोराइड की मात्र ज्यादा है, जो कि स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक है। इन सभी जिलों में पाली, अजमेर, जैसलमेर, जोधपुर आदि जिलों में हालात सबसे ज्यादा गंभीर है।
इन क्षेत्रों में रोज़गार की भी कमी पाई जाती है। इसलिए यहां के पुरुष रोज़गार के लिए अन्य शहरों और प्रदेशों में चले जाते हैं और पीछे छोड़ जाते हैं महिलाएं और उन पर उनके बच्चों की जिम्मेदारियां। महिलाओं को न सिर्फ पीने के पानी की व्यवस्था करनी पड़ती है बल्कि घर के बाकी काम भी खुद ही करने पड़ते हैं। जैसे ही घर में लड़कियां थोड़ा सा होश संभालने लगती हैं तो सभी महिलाएं उनसे कुछ सहारे की उम्मीद करने लग जाती हैं। इस तरह बहुत छोटी उम्र में ही एक लड़की अपनी मां के साथ छोटा बर्तन लेकर (उसकी क्षमता से बड़ा) पानी ढोना शुरू कर देती है। इसके साथ ही जब मां घर में नहीं होती है तो घर के अन्य बच्चे उसी लड़की की तरफ देखते हैं कि वह ही पानी लाएगी और उसे लाना भी पड़ता है।
इस प्रकार बहुत छोटी उम्र में ही इन क्षेत्रों की लड़कियां इन घरेलू ज़िम्मेदारियों में उलझ जाती हैं। इससे न केवल उनकी शिक्षा खराब होती है बल्कि उनके स्वास्थ्य पर भी बुरे प्रभाव पड़ते हैं। इन बच्चियों का अपनी माँओं की तरह अधिकतर समय तो पानी ढोने में ही गुज़र जाता है। वैश्वीकरण और प्रतियोगिता के इस दौर में ये बच्चियां बुनियादी शिक्षा भी नहीं ले पा रही हैं। इसका खामियाजा भारत बखूबी भुगत रहा है क्योंकि जहां पर शिक्षा का अभाव है वहां विकास का अभाव है। शिक्षा से ही देश तरक्की करता है लेकिन यहां आधी आबादी शिक्षा से दूर धकेली जा रही है।
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जैसे ही घर में लड़कियां थोड़ा सा होश संभालने लगती हैं तो सभी महिलाएं उनसे कुछ सहारे की उम्मीद करने लग जाती हैं। इस तरह बहुत छोटी उम्र में ही एक लड़की अपनी मां के साथ छोटा बर्तन लेकर ( उसकी क्षमता से बड़ा) पानी ढोना शुरू कर देती है।
महिलाओं की समस्या के समाधान के लिए महिलाएं ही नदारद!
अब सवाल ये उठता है कि आजादी के 75 सालों बाद भी पानी से जुड़ी स्थानीय समस्याओं का समाधान क्यों नहीं खोजा जा रहा? इसके पीछे मुख्य कारण ये है कि यह महिलाओं से संबंधित विषय है, इसलिए इस पर ज्यादा गंभीरता से ध्यान नहीं दिया जा रहा। इसके पीछे महिलाओं का संसद और विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व नहीं के बराबर होना है, क्योंकि सभी नीतियों का निर्माण संसद और विधानसभाओं में इनके सदस्यों द्वारा होता है। लेकिन जब नीति निर्माण के इन सदनों में महिलाएं हैं ही नहीं तब उनके मुद्दे कौन उठाएगा?
जो दो-चार महिलाएं चुनाव जीतकर आती हैं तो वे सब राजनीतिक घरानों से ही जुड़ी हुई होती हैं। किसी को पिता की विरासत मिली है तो किसी को पति की। इसलिए उन्होंने कभी पानी का ऐसा संकट देखा ही नहीं होता, क्योंकि उनका जीवन साधन संपन्न परिवारों में गुजरता है। इसलिए उन्हें ऐसे मुद्दों से कोई फर्क नहीं पड़ता और वे इन मुद्दों पर अपनी आवाज़ नहीं उठाती। इन सदनों में वचित तबकों से आनेवाली महिलाओं का प्रतिनिधित्व होना सबसे ज़रूरी है। जब महिलाओं की संख्या इन सदनों में बढ़ेगी तो वे अपनी समस्याओं पर खुलकर बात कर सकेंगी और इनसे निजात पाने के लिए योजनाओं में अपना योगदान दे पाएंगी।
दैनिक भास्कर ने अभी हाल ही में एक सर्वे करवाया है जिसमें अखबार ने राजस्थान में पानी की समस्या के निवारण के लिए तीन विकल्प आम जनता को दिए। पहला की राजस्थान को अपनी नदियों के पानी का पूरा हक लेना चाहिए, दूसरा 20-25 साल भविष्य को नजर में रखते हुए प्रोजेक्ट का निर्माण करना चाहिए और तीसरा यह कि वाटर वेस्टेज रोकने और बरसाती पानी के संरक्षण का उचित उपाय हो। इन तीनों में पहले विकल्प के लिए 49 फीसदी, दूसरे के लिए 9 फीसदी और तीसरे विकल्प के लिए 42 फीसदी लोगों ने समर्थन किया।
लेकिन यहां पर दैनिक भास्कर ने समस्या की जड़ को पकड़ने की कोशिश ही नहीं की, क्योंकि ये सब बाहरी समाधान हैं और ऐसे समाधानों की चर्चा पिछले कई सालों से चल रही है लेकिन स्थिति जस की तस बनी हुई है। पेयजल की समस्या महिलाओं के लिए व्यक्तिगत है, इसलिए पेयजल की समस्या और महिलाओं पर पड़ने वाले इसके सबसे ज्यादा कुप्रभाव को जोड़कर अध्ययन करने चाहिए ताकि इस गंभीर समस्या का स्थाई समाधान खोजा जा सके और महिलाओं और बच्चियों के जीवन को बेहतर बनाया जा सके।
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तस्वीर साभार: The Week