इंटरसेक्शनलजेंडर विधवा महिलाओं के साथ होनेवाले भेदभाव के ख़िलाफ़ महाराष्ट्र के इस गाँव ने लिया यह फ़ैसला

विधवा महिलाओं के साथ होनेवाले भेदभाव के ख़िलाफ़ महाराष्ट्र के इस गाँव ने लिया यह फ़ैसला

भारत में विधवा महिलाओं के साथ असमानता का व्यवहार सदियों से होता आ रहा है। पूर्वाग्रहों से निहित भारतीय समाज में महिलाओं पर ही उनके पति की हत्या का दोष मढ़ दिया जाता है। सती प्रथा, पति की मृत्यु के बाद उसकी चिंता पर महिला को जिंदा आग में जला दिया जाता था।

हमारे समाज में ऐसा कोई दस्तूर नहीं है जिससे यह पता लगाया जा सके कि यह पुरुष कुंवारा है, विवाहित है या विधुर है। उसे न तो शोक मनाने की ज़रूरत होती है ना ही शादीशुदा होने के लिए उसे किसी पहचान को लादने की ज़रूरत होती है। भारतीय समाज में इस तरह की किसी भी पहचान के लिए नियम-कायदे केवल महिलाओं के लिए ही बने हुए हैं। शादीशुदा या विधवा होने के सिंबल्स यानी संकेतों को पहनने का रिवाज़ और दबाव दोनों महिलाओं पर ही होता है। 

जैसे ही कोई महिला इन नियमों को तोड़ती है तो उसे आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है। आज के सोशल मीडिया के दौर में उसकी ट्रोलिंग होनी शुरू हो जाती है। हाल में मशहूर अभिनेत्री नीतू सिंह को पति ऋृषि कपूर के निधन के बाद उनके खुश जीवन जीने, काम करना, सोशल मीडिया पर एक्टिव रहने को लेकर ट्रोल किया गया। ठीक इसी तरह एक साल पहले अभिनेत्री मंदिरा बेदी को उनके पति की मौत के बाद उनके अंतिम संस्कार करने, उनके पहनावे और उसके बाद जल्द ही काम पर लौटने को लेकर ट्रोल किया गया।

रूढ़िवादी सोच यही कहती है कि महिला के जीवन का अस्तित्व सिर्फ पुरुष तक ही बना रहे। यही वजह की विधवा होना महिलाओं के मूल अधिकारों और गरिमा की लड़ाई को और अधिक बढ़ा देता है। समाज में उन्हें अनदेखा कर उनसे चाहरदीवारों के भीतर रहने की उम्मीद की जाती है। जीवनसाथी की मौत के दुख के अनुभवों के साथ-साथ महिलाएं भेदभावपूर्ण व्यवहार का सामना करती हैं। आर्थिक असुरक्षा, भेदभाव, कलंक, पूर्वाग्रहों और हानिकारक पारंपरिक प्रथाओं के नाम पर उसका शोषण किया जाता है। 

और पढ़ेंः तलाकशुदा और विधवा महिलाओं के जीवन को नियंत्रित करता परिवार और समाज

महाराष्ट्र में विधवाओं की सिंदूर पोंछने पर प्रतिबंध एक सकारात्मक पहल

विधवा होने पर महिलाओं से संजने-संवरने के पर रोक सबसे पहले लगाई जाती है। पति की मृत्यु हो जाते ही उसके जीवन को बेरंग बना दिया जाता है। लेकिन हाल ही में रीति-रिवाज़ के नाम पर होने वाले इस रूढ़िवादी व्यवहार को जड़ से खत्म करने की दिशा में महाराष्ट्र राज्य में एक बेहतर कदम उठाया गया है। महाराष्ट्र में विधवा प्रथा को पूरी तरह से बंद कर दिया गया है। राज्य में विधवा की चूड़ी तोड़ने, सिंदूर पोंछने, मंगलसूत्र निकालने और बिछिवा निकालने की प्रथा को बंद करने के संबंध में सरकारी आदेश जारी किया है। यानी किसी भी महिला के पति की मृत्यु के बाद उसके साथ इस तरह की रीतियां नहीं निभाई जाएंगी। समाज में महिला को बराबरी के व्यवहार देने के लिए यह प्रयास काफी सराहनीय है।

इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक इस माह की शुरुआत में महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले के हेरवाड़ गाँव और मानगाँव में महिलाओं के विधवा होने के बाद सिंदूर पोंछने और चूड़ी तोड़ने की प्रथा को बंद करने का ऐलान किया गया था। ग्राम पंचायत के प्रस्ताव के बाद ही राज्य के ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से सभी ग्रामसभाओं के लिए ऐसा ही आदेश निकाला गया। यह आदेश महिलाओं के साथ प्रथा और रीति-रिवाज़ के नाम पर होते अमानवीय व्यवहार को रोकने का काम करेगा।

सरकार के निर्देश के बाद इस आदेश का पालन होना भी शुरू हो गया है। पुणे जिले के पुरंदर तालुका में उदाचिवाड़ी सरकार के फैसले को मानने वाला राज्य का पहला गाँव बन गया है। उदाचिवाड़ी गाँव में सरपंच संतोष कुंभारकर ने कहा, “ग्रामसभा के सामने प्रस्ताव लाने से पहले हमने गाँव में जागरूकता अभियान चलाया। हमनें गाँव वालों को कोल्हापुर के ग्राम और सरकार के द्वारा लिये गए फैसले के बारे में बताया। इस प्रस्ताव से युवा ग्रामीणवासियों को कोई परेशानी नहीं थी लेकिन बुजुर्ग पीढ़ी ने इसपर विरोध जाहिर किया था। लेकिन बाद में वे इससे सहमत हुए कि हमें अपनी महिलाओं को पीढ़ियों से चलती आ रही प्रथाओं के बंधन से मुक्त करना चाहिए।”  

और पढ़ेंः पति की मौत के बाद महिला का जीवन खत्म नहीं होता

एक विधुर पुरुष से तो दोबारा शादी की पूरी उम्मीद की जाती है।साथ ही दोबारा शादी के फैसले की वजह उसके ऊपर किसी किस्म का दबाव व शर्तों का भी सामना नहीं करना पड़ता है। वहीं जब एक विधवा महिला की शादी होती है तो उसे मोरल पुसिलिंग का सामना करना पड़ता है। अधिकतर समय पहली शादी से हुए बच्चों को स्वीकार नहीं किया जाता है।

महाराष्ट्र राज्य के एक गाँव से लिया गया यह फैसला कितना महत्व रखता इस बात का अंदाजा अभिनेत्री नीतू सिंह और मंदिरा बेदी के साथ हुए उस व्यवहार से लगा सकते है जिसपर प्रतिक्रियाएं सामने आई है। हमारे समाज में आम विधवा महिलाओं के साथ जो व्यवहार होता है उसको तो इस तरह सार्वजनिक बहस में कभी सामने ही नहीं लाया जाता है। इसके साथ ही जातिगत व्यवस्था में हाशिये पर रहने वाली महिलाओं को विधवा होने पर अधिक भेदभाव का सामना करती है। हँसती, जीवन में आगे बढ़ती महिलाओं पर परेशान होने वाले समाज में विधवा महिलाओं को घर-परिवार में ही सबसे पहले मनहूस कहा जाता है। अशुभ बताकर उन्हें खुशी-त्यौहारों में शामिल होने से रोका जाता है। विधवा प्रथा का यह रूप दिखाता है कि कैसे महिलाओं के जीवन की संरचना किसी दूसरे के होने के आधार पर बना दी जाती है। 

भारत के वृंदावन को ‘विधवाओं का शहर’ तक कहा जाता है। एक अनुमान के मुताबिक इनमें 2000 के करीब बाल विधवाएं शामिल है। बहुत सी विधवाएं आर्थिक अक्षमता की वजह से अपनी बच्चियों को बेचने और कम उम्र में उनकी शादी करने तक पर मज़बूर होती है। जिस वजह से समाज में यह कुरीति लगातार बनी हुई है। 

मुख्यतौर पर पति की मृत्यु के बाद सबसे पहले उसके पहनावे, भोजन और गतिशीलता पर पहरा लगा दिया जाता है। कुछ संदर्भ में विधवा महिलाओं को बीमारियों का वाहक तक कहा जाता है जिस वजह से उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाता है। यही नहीं कुछ स्थिति में विधवा महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर उन्हें ससुराल के किसी अन्य पुरुष को जिम्मेदारी के तौर पर सौंप दिया जाता है। पति के भाई या अन्य रिश्तेदार, सुरक्षा के नाम पर उसकी शारीरिक स्वायत्तता, न्याय और एक गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार से वंचित रखते हैं।

संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक दुनिया की 115 मिलियन गरीब विधावाओं में से 42 मिलियन विधवाओं का घर भारत है। भारत के वृंदावन को ‘विधवाओं का शहर’ तक कहा जाता है। एक अनुमान के मुताबिक इनमें 2000 के करीब बाल विधवाएं शामिल हैं। बहुत सी विधवाएं आर्थिक अक्षमता की वजह से अपनी बच्चियों को बेचने और कम उम्र में उनकी शादी करने तक पर मज़बूर होती हैं।

और पढ़ेंः पगलैट : विधवा औरतों के हक़ की बात करती फिल्म कहीं न कहीं निराश करती है

भारत में विधवाओं के साथ होता भेदभाव 

भारत में विधवा महिलाओं के साथ असमानता का व्यवहार सदियों से होता आ रहा है। पूर्वाग्रहों से निहित भारतीय समाज में महिलाओं पर ही उनके पति की हत्या का दोष मढ़ दिया जाता है। सती प्रथा में पति की मृत्यु के बाद उसकी चिता पर महिला को जिंदा आग में जला दिया जाता था। इससे अलग उसे जहर देकर मारने, खुद को चोट पहुंचाने और साँप से कटवाने तक का भी चलन रहा है। मनुस्मृति के बनाए नियमों के अनुसार महिला को विधवा होने पर दुनिया से अलग होकर बिल्कुल नीरस जीवन जीना चाहिए। एक विधवा का किसी अन्य पुरुष के सामने आना भी उसका गलत माना जाता है। 

भारतीय समाज में विधवा होने से जुड़ी कुरीतियों के विरोध की शुरुआत ब्रिटिश काल में हुई थी। एक लंबे संघर्ष के बाद देश में सती प्रथा पर अंग्रेजो ने रोक लगाई थी। राजा राम मोहन राय ने विधवा प्रथा की कुरीति के ख़िलाफ आवाज़ उठायी थी। 1856 में अंग्रेजों ने विधवा पुर्नविवाह को मान्य कर दिया था। तमाम प्रगतिशीलता, कानूनी मान्यताओं और आज़ादी के इतने सालों बाद आज भी भारतीय समाज में विधवा महिलाओं से दयनीय जीवन जीने की ही उम्मीद की जाती है। विधवा पुर्नविवाह की कानूनी मान्यता के बावजूद समाज में विधवा पुरुष और महिला के अलग-अलग नियम बनाए हुए है। एक विधुर पुरुष से तो दोबारा शादी की पूरी उम्मीद की जाती है।साथ ही दोबारा शादी के फैसले की वजह उसके ऊपर किसी किस्म का दबाव व शर्तों का भी सामना नहीं करना पड़ता है। वहीं जब एक विधवा महिला की शादी होती है तो उसे मोरल पुसिलिंग का सामना करना पड़ता है। कई बार पहली शादी से हुए बच्चों को स्वीकार नहीं किया जाता है।   

और पढ़ेंः क्यों विधवा औरतों का पारिवारिक ज़मीन पर हक नहीं होता?

श्रृंगार करना महिला की पसंद भी हो सकता है

विधवा प्रथाओं जैसी कुरीतियां केवल महिलाओं की यौनिकता को नियंत्रित करने के लिए स्थापित की हुई है। यौनिकता से तात्पर्य केवल यौन संबंध से नहीं है बल्कि उनकी पसंद और नापसंद से भी है। बल्कि उनके जीवन की स्वायत्ता से है। महिलाएं क्या पहनना पसंद करती है, क्या वे संजना चाहती है या नहीं, किस तरह से वे जीवन जीना चाहती है, जैसे व्यवहार इससे जुड़े हुए है। पितृसत्ता की संरचना में रीति-रिवाज़ों के नाम पर उन्हें अदृश्य आदेश दिए जाते हैं जिन्हें महिलाएं और लड़कियां संस्कार के नाम पर पालन करने की सीख बचपन से ही दे दी जाती है। प्रथाओं के नाम पर उनके व्यवहार को नियंत्रित करने का काम किया जाता है। शादी हुई है तो श्रृंगार करना है, पति की मृत्यु हो गई है तो सारे रंग उतार फेंकने है। शादी करके अनुमति देना और विधवा होने पर यह छीनना तो जायज़ नहीं है। ऐसे में एक गाँव से लिया फैसला जो आगे जाकर राज्य की सरकार का आदेश बना है एक सकारात्मक कदम है। जिससे हम प्रथाओं के नाम महिलाओं के साथ होने वाले असमानता के व्यवहार को कम कर सकते हैं।

और पढ़ेंः खुद के दम पर आगे बढ़ती ‘अकेली औरत’


तस्वीर साभारः ProBono India

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content