संस्कृतिख़ास बात दूसरी किस्त: जब छोटे शहर से आई एक लड़की ने मेट्रो चलाना सीख लिया |#WomenOnStreets 

दूसरी किस्त: जब छोटे शहर से आई एक लड़की ने मेट्रो चलाना सीख लिया |#WomenOnStreets 

"जब मैं जाती थी सुबह तो मेट्रो अक्षरधाम से लेती थी, जब यमुना बैंक आता था तो वहां पर क्वार्टर बने रहते थे। मैं हमेशा आगे खड़ी रहती थी और सोचती थी कि ये कितने अच्छे क्वार्टर हैं। मेट्रो के क्वार्टर मैं रोज़ देखती थी। मुझे कभी-कभी दिमाग में आता था कि मैं इसमें जाना चाहती हूं भले आपको पता नहीं है उसके बारे में कुछ। मुझे कुछ भी नहीं पता था लेकिन मेट्रो के उन क्वार्टर्स को देखकर मुझे बहुत अच्छा फील होता था।"

एडिटर्स नोट: #WomenOnStreets परियोजना के तहत कामकाजी महिलाओं की मुख्यधारा में गढ़ी गई परिभाषा और छवि की नये सिरे से व्याख्या करने की कोशिश की जाएगी। इसमें आपके सामने हमारे तीन राइटर्स 10 ऐसी औरतों की कहानी लाएंगे जिनके श्रम को ‘कामकाजी महिला’ की मुख्यधारा की परिभाषा से अलग रखा गया है। जिनके काम को अक्सर ‘काम’ नहीं समझा जाता। पेश है इस कड़ी की पहली कहानी का दूसरा हिस्सा जहां हमारे राइटर्स ने बात की एक ऐसी महिला से जो दिल्ली मेट्रो में ट्रेन ऑपरेटर हैं।

सवाल: छोटे शहरों क़स्बों में लड़कियों की परवरिश और उनके आस-पास का वातावरण अलग रहता है। वहां से दिल्ली आना, अकेले रहना, प्रोफेशनल-पर्सनल सब संभालना, कैसा रहा है आपके लिए?

श्रद्धा: कभी-कभी सोचती हूं तो लगता है लंबी जर्नी रही है। ऐसे देखो तो लगता है हां ये कर रहे हैं। सोचती हूं तो लगता है बहुत सारे लोगों का बहुत हाथ है। बहुत सारे लोगों ने सही समय पर ज़िंदगी में आकर सही काम किए मेरे लिए। आज मैं खड़े-खड़े सोच रही थी कि घर पर मुझे दुकान से एक सामान भी लाने जाना होता था तो ऐसा डर सा लगता था। आज मैं ऐसे कार चला रही हूं, आपसे बात कर रही हूं, यह बहुत बड़ा फर्क होता है। इसके बीच में बहुत सारी चीजें होती हैं जिसके बीच से आप गुजरते हैं।

सवाल: इसके बीच में यह बहुत सारी चीजें, जिनसे आपको गुजरना पड़ा, क्या आप उनके बारे में कुछ कहना चाहेंगी?

श्रद्धा: एक तरफ मेरे ऊपर यह था कि जल्दी से जल्दी जॉब लेनी है क्योंकि मुझे परिवार संभालना था। परिवार में मम्मी हैं और दीदी को तो पापा की जॉब मिल गई थी। उसके बाद पहला बच्चा जो था वह मैं थी, मेरे बाद एक और बहन। दीदी की शादी हो चुकी थी। तो होता यह है कि ऐसे में आप अपने घर पर ज्यादा ध्यान देते हो तो प्रॉब्लम शुरू हो जाती है। बहुत सारे लोगों को पसंद नहीं आता है। तो उस हिसाब से इस तरह से हुआ था दिल्ली में मेरा अवतरण। मैं दिल्ली आई तैयारी के लिए। उसके बाद शुरू होता है संघर्ष का समय। जब आप पढ़ते हो, आपका सेलेक्शन नहीं होता है, फिर आप टूट जाते हो। अरे यार! लेकिन जैसे मैंने GATE की तैयारी की, मेरी रैंक ऐसी नहीं आई कि पीएसयू में जॉब मिल सके। लेकिन हां इतना था कि मैं एमटेक कर सकती थी सरकारी कॉलेज से। 

जब मैं कॉलेज से निकली थी तो मम्मी से एक वादा किया था। देखो, पापा की डेथ 2008 में हो चुकी थी। जब डेथ बीमारी से ग्रसित होने से होती है न तब फैमिली आर्थिक रूप से टूट जाती है। मेन चीज़ क्या है, हमारे पापा सरकारी नौकरी में थे और जब वह नहीं रहे तो थोड़ा बहुत पैसा तो गवर्नमेंट की तरफ से मिलता है। उससे यह हुआ कि हमारे ऊपर बहुत ज्यादा उधार नहीं था। जितना भी था हमने सब चुका दिया था। मम्मी का था कि चलो एक बेटी का हो गया, उसको जॉब मिल गई, शादी कर देते हैं तो वह एक जिम्मेदारी से मुक्त हो जाएंगी। मेरे पढ़ने का समय था। दीदी ने खुद से ज़िम्मेदारी ली, हमेशा खड़ी रहीं। 

एक होता है कि बारहवीं के बाद आप तैयारी करते हो, कोचिंग लेते हो। हम तो रुदौली से ही पढ़े हैं। मुझे कोचिंग वगैरह का उतना पता नहीं था। तो मेरा यह था कि मेरे पास तैयारी करने का टाइम नहीं था। जल्दी से जल्दी कॉलेज खत्म करो, उसके बाद मैं मेहनत करके जॉब ले लूंगी। यह भी था कि बहुत ज्यादा दूर जा नहीं सकते पढ़ने। लखनऊ मुझे जाना नहीं था, लखनऊ में बहुत सारे रिश्तेदार रहते हैं। हमने चुना कानपुर, कि कानपुर पढ़ते हैं। लखनऊ नहीं जाने का एक कारण था कि मुझे लगता था वह जगह मेरे लिए अनलकी होगी। जब पापा की डेथ हुई थी मेरी दीदी वहां से बीएससी कर रही थी। फर्स्ट ईयर था, साथ में पीएमटी की तैयारी भी कर रही थी। जब यह सब हुआ उनको तैयारी और बीएसई छोड़कर आना पड़ा। वह बुरी तरीके से डिस्टर्ब हो गई थीं। उन्होंने कहा मुझे ये सब नहीं करना है, जॉब करनी है। उन्होंने जॉब ली, फिर यहां से बीए कर किया। जब उन्होंने जॉब ली पापा की तब एक तरह से वह बस बारहवीं पास थीं। 

जब मैंने कॉलेज में एडमिशन लिया मैंने मम्मी से बोला, “देखो मैंने प्राइवेट कॉलेज लिया है मुझे पता है कि पैसे लगेंगे। फीस तो बढ़ती रहती है साल-दर-साल। साढ़े चार लाख आप मेरे ऊपर इन्वेस्ट कर दोगे उसके बाद मैं एक पैसा नहीं लूंगी।” उन्होंने कैलकुलेट किया। कहा, “ठीक है, ले लो, इतना तो है।” हम जब एजुकेशन लोन लेने गए थे, हमें मिला नहीं। मिला नहीं क्योंकि हमें अवेयरनेस नहीं थी। मम्मी भी तो गृहणी ही थीं। चार महिलाओं के परिवार में हमें पता नहीं था कि एजुकेशन लोन कैसे लेंगे। दीदी भी उस समय पढ़ ही रही थीं ऑफिस नहीं जॉइन किया था। मैं तो बस स्कूल से घर, घर से स्कूल ट्वेल्थ क्लास तक स्ट्रेट सलवार सूट पहनकर दुपट्टा पिनअप करके जानेवाली लड़की, तो नहीं हो पाया। अब एडमिशन तो लेना है, देर हो रही है। फिर उसके बाद ले लिया एडमिशन तो मम्मी ने कहा, “चलो कोई नहीं मेरे पास सेविंग्स में रखी हुई है मैं उसी में से दूंगी,” तो वह मुझे उसी में से देती रहीं। मेरे ऊपर कोई एजुकेशन लोन नहीं था लेकिन हां जो सेविंग्स थीं वह मेरी मम्मी ने खर्च कर दी।

“हम जब एजुकेशन लोन लेने गए थे, हमें मिला नहीं। मिला नहीं क्योंकि हमें अवेयरनेस नहीं थी। मम्मी भी तो गृहणी ही थीं। चार महिलाओं के परिवार में हमें पता नहीं था कि एजुकेशन लोन कैसे लेंगे।”

फिर कॉलेज खत्म हुआ और कॉलेज खत्म होते ही सोचो प्लेसमेंट नहीं हो रही थी। जब कॉलेज आ गए तब सच्चाई पता चली कि असल में ज़मीनी हकीकत क्या है। ऐसा नहीं है कि आप पढ़ लेते हैं तो फिर आपको जॉब मिल जाती है। आप फर्स्ट ईयर के बाद घर आए, सेमेस्टर ब्रेक है, आप जा रहे हो अपनी मम्मी के साथ तो कोई पूछ रहा है, “बेटी को क्या करा रहे हो,” मम्मी कह रही है, “हमारी बेटी इंजीनियरिंग कर रही है।” उधर से जवाब आता है, “वह तो सब करते हैं, बताते भी हैं कि अरे उन्होंने ने भी तो किया है। सबको यह लगता था कि मेरी मम्मी ने मेरे ऊपर आंख बंद करके इनवेस्ट कर दिया है पता नहीं कल मैं कुछ कर पाऊंगी या नहीं। क्योंकि आप निकले हो घर से आपके जैसे दस लड़के भी हैं आप ही के शहर के जिन्होंने कुछ नहीं किया, कुछ नहीं उखाड़ पाए वे वही चीज़ करके। लेकिन मुझे बहुत विश्वास था क्योंकि मुझे ऐसा नहीं था कि मुझे इंजीनियरिंग करनी है फिर आईआर बनना है। ऐसा कुछ भी नहीं था। मुझे यही पता था कि मुझे अपना घर खुद संभालना है बस इतनी छोटी-सी रिक्वायरमेंट थी मेरी। मुझे बस इंडिपेंडेंट हो जाना था चाहे मुझे आईटी में जॉब करनी पड़े, चाहे कुछ भी करना पड़े। तो एक वह सोच लेकर कॉलेज में घुसे और फिर निकलते-निकलते मैंने वह फ़ैसला लिया, कि नहीं मुझे अपने आपको चांस देना चाहिए और यह तब होता है जब आप लोगों से मिलते हो।

(हम उनके साथ उनके घर पहुंचते हैं। श्रद्धा किचन के डस्टबिन को खाली कर रही हैं, वाटर जार से बोतलों में पानी भर रही हैं)

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सवाल: आप घर का काम खुद कर के ऑफिस जाती हैं?

श्रद्धा: हां, घर पर हमेशा ऐसे ही देखा है। मम्मी लोग सब काम खुद करती थीं। वही आदत है।

सवाल: दिल्ली आप बेसिकली तैयारी के लिए आई थीं? 

श्रद्धा: 2013 में कॉलेज खत्म होने के बाद मैंने ज्यादा ब्रेक नहीं लिया और हम चले आए। अच्छा थोड़ा यह भी होता है आप उनके (कजिन) सपोर्ट से आ गए फिर लेकिन बहुत सारे लोगों को लगने लगा कि ‘कैसे चली गई सबसे परमिशन लेनी चाहिए थी।’ तो यह मेंटल क्लैश है जो शुरुआती दौर में आए और आप जब इन्ट्रोवर्ट किस्म के इंसान होते हैं तो आपको यह छोटी-छोटी चीजें बुरी भी लगती हैं। जो फोकस लेकर आप आ रहे हैं उससे आप डिस्ट्रैक्ट होने लगते हैं। तो यह सारी छोटी-छोटी चीजें हैं जिनका हम सामना करते हैं। स्मूद नहीं होता है कुछ लेकिन इन सबके बावजूद एक ही फोकस था कुछ भी हो जाए करना है कुछ, जब कर लेंगे कुछ तब देखेंगे फिर क्या होता है।

सवाल: फिर आ गए दिल्ली, तो दिल्ली में किस तरह के स्ट्रगल थे आपके?

श्रद्धा: किसी कम्पेटिटिव इग्ज़ैम की तैयारी करना अपने आपमें एक स्ट्रगल है। मेरी कोचिंग थी हौज़ खास मतलब साकेत, बहुत दूर थी और हम लोग रहते थे अक्षरधाम। आठ बजे क्लास स्टार्ट हो जाती थी तो वहां से सवा घंटा तो लगता है पहुंचने में। आपको सुबह सात बजे उठकर जाना पड़ता है शाम तक क्लासेज चलती हैं, फिर आना है, फिर पढ़ाई भी करनी है। मुझे ऐसा लगता था कोचिंग के ज्यादातर बच्चे आस-पास रहते हैं लेकिन आप अफोर्ड नहीं कर सकते थे। घर का काम तो करना ही होता है। तो इस हिसाब से जितना हो पाया मैंने पढ़ाई की और एंट्रेंस एग्जाम दिया। रैंक ठीक-ठाक आ गई थी अगर एमटेक करना चाहते तो कर लेते लेकिन वही अरे यार! जॉब करनी है। एमटेक करने का मतलब है आपकी रैंक ठीक-ठाक है तो आपको गवर्नमेंट कॉलेज मिल जाएगा और आपको स्कॉलरशिप भी मिल जाएगी लेकिन वह भी तुरंत तो मिलती नहीं है। एकेडमिक में तब तक के लिए आपको फंड चाहिए होता है जो आपको मांगना पड़ेगा अपने घरवालों से। मैंने ये सब मम्मी को बताने की कोशिश की इससे पहले वह मुझे कुछ बताने लगीं कि उन्होंने कुछ पैसे कहीं और लगा दिए हैं। फिर मैंने आगे कुछ बोला ही नहीं। अपने आप को एक और मौका दिया, कुछ-कुछ जगह पर सलेक्शन हुआ, कहीं इंटरव्यू तक पहुंची, कहीं रिटेन निकला। पर अभी फ़ाइनल प्लेसमेंट कहीं नहीं हुई थी।

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“जब मैं जाती थी सुबह तो मेट्रो अक्षरधाम से लेती थी, जब यमुना बैंक आता था तो वहां पर क्वार्टर बने रहते थे। मैं हमेशा आगे खड़ी रहती थी और सोचती थी कि ये कितने अच्छे क्वार्टर हैं। मेट्रो के क्वार्टर मैं रोज़ देखती थी। मुझे कभी-कभी दिमाग में आता था कि मैं इसमें जाना चाहती हूं भले आपको पता नहीं है उसके बारे में कुछ। मुझे कुछ भी नहीं पता था लेकिन मेट्रो के उन क्वार्टर्स को देखकर मुझे बहुत अच्छा फील होता था।”

सवाल: कौन-कौन से एग्ज़ाम दिए आपने, कुछ याद है?

श्रद्धा: मैंने जितने टेक्निकल एग्जाम होते थे सारे दिए हैं मतलब इलेक्ट्रोनिक एंड कम्युनिकेशन से बीटेक करने के बाद मेन फोकस मेरा गेट एग्जाम पर रहता था। फिर मैंने सिविल सर्विसेस की भी तैयारी की, मतलब इंजीनियरिंग सर्विसेस की (आईइएस)। मुझे लगता था कि थोड़ा लगकर पढ़ना पड़ेगा लेकिन निकल जाएगा और मुझे यह करना है। मेरा दिल्ली में रहना कुछ फिक्स नहीं था। मैं यहां से कभी भी जा सकती थी। मतलब आप अगर अपने परिवार के साथ यहां पर रह रहे हैं तो आपके घर पर भी सारी चीजें ठीक होना और अच्छे रिलेशन होना जरूरी है। फिर उसके बाद जब तीसरा साल आया फिर मेरा गेट नहीं हुआ था। तीसरा साल बहुत बुरा दौर था और इस बीच बहुत नेगेटिविटी भी आती थी। ज़िम्मेदारियां और सफल ना हो पाने का स्ट्रेस। जिस एग्जाम में आप दो साल से रैंक ला रहे हैं वह क्वॉलीफाई न हो पाया हो तो समझा जा सकता है कि आप किस मेंटल स्पेस में हैं। वह मेरे लिए बहुत दुखी करने वाला था। मुझे लगा मैंने जहां से शुरू किया था अब मैं इतने समय बाद वहीं हूं। 

सवाल: इस मेंटल स्पेस से निकलकर दिल्ली मेट्रो के टीओ केबिन तक आप कैसे पहुंचीं?    

श्रद्धा: जब मैं जाती थी सुबह तो मेट्रो अक्षरधाम से लेती थी, जब यमुना बैंक आता था तो वहां पर क्वार्टर बने रहते थे। मैं हमेशा आगे खड़ी रहती थी और सोचती थी कि ये कितने अच्छे क्वार्टर हैं। मेट्रो के क्वार्टर मैं रोज़ देखती थी। मुझे कभी-कभी दिमाग में आता था कि मैं इसमें जाना चाहती हूं भले आपको पता नहीं है उसके बारे में कुछ। मुझे कुछ भी नहीं पता था लेकिन मेट्रो के उन क्वार्टर्स को देखकर मुझे बहुत अच्छा फील होता था। तब मैने जेई का फॉर्म भी भरा था। दिल्ली मेट्रो में जेई के फॉर्म निकालते थे तो उसको भी हर साल भरते थे। मैं सोचती थी कि अगर जेई का हो गया तो मैं यहां पर क्वार्टर ले लूंगी। 2016 में DMRC ने वैकेंसी निकाली। इस बार मैंने एससीटीओ और जेई दोंनो ही पोस्ट के लिए फॉर्म भरा। दोनों ही पोस्ट का रिटेन भी क्वालिफाई किया पर एससीटीओ के अलग-अलग चरण जो कि साइकोटेस्ट, इंटरव्यू और फ़ाइनली मेडिकल पास करके DMRC से एससीटीओ के रूप में जुड़ी। मुझे जेई तो पता था पर एससीटीओ की मुझे कोई जानकारी नहीं थी न ही मैंने कभी जीवन में सोचा था कि मैं मेट्रो ऑपरेट करूंगी। ये मेरे लिए बहुत अनोखा और अच्छा अनुभव है।

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सवाल: छोटे गांव-कस्बों से आई महिला आर्थिक स्वतंत्रता हासिल कर भी लेती है तब भी शादी का दवाब उन पर बना रहता है, घरवाले/रिश्तेदार/आस-पड़ोस, आपने ऐसे लोगों-सवालों को समय के साथ कैसे बदलते देखा है, क्या अभी भी ये दबाव रहता है?

श्रद्धा: मेरे मां-पापा प्रोग्रेसिव थे, उन्होंने पढ़ाई-लिखाई को हमेशा ऊपर माना। लड़की है जैसा कुछ कभी महसूस नहीं होने दिया। बचपन से मुझे लड़केवाला ट्रीटमेंट मिला था। उसके बाद जब पापा की तबीयत खराब हुई, लाइफ मुश्किल होने लगी, धीरे धीरे उस समय मैंने सहनशील होना सीखा। तब हमारा हथियार था कि पढ़ो और परिवार को संभालो। जब पापा के बाद हमारा टफ टाइम चल रहा था, इंजीनियरिंग में पैसे लग रहे थे, तब रिश्तेदारों में बहुत मुश्किल से ही किसी ने आर्थिक मदद की। अगर आप उस समय साथ देते हो तब आपका हक़ बनता है, अगर नहीं किया तो कहना थोड़ा मुश्किल हो जाता है। मैंने पहले भी रिश्तेदारों को बहुत कम एंटरटेन किया है। आस-पास के लोग घर जाओ तो कभी पूछते हैं पर ये भी है कि कोई दबाव नहीं डाल सकता है। हमने वह चीज़ नहीं रखी कि कोई दबाव डाल सके।

“मुझे चुनना हो तो मैं खुद के जैसे किसी को चुनूंगी। कोई आपको ग्रो करने दे, बाउंड न करे। जो संघर्ष आपने आज तक किया है उसकी इज़्जत करे और वह तभी होगा जो खुद वैसे आया है। छोटी-छोटी चीजों को लेकर किया गया आपका संघर्ष वही समझेगा न।”

सवाल: प्रेम, कम्पैनियनशिप का आपका आइडिया क्या है? दिल्ली के बाहर से आई कामकाज़ी सिंगल महिला की जगह खड़े होकर आप किस तरह की पार्टनरशिप या साझेदारी की कल्पना करती हैं?

श्रद्धा: पहले तो था कि बस एक जॉब हो जाए। दिल्ली आकर समझा कि लाइफ़ इतने में खत्म नहीं होती है। जॉब और आर्थिक स्वतंत्रता मिलने के बाद यह समझ आया कि इससे यह होता है कि जिन चीजों के लिए आपको सोचना पड़ता है वैसा नहीं रह जाता है। एक तरफ से आप फ्री हो जाते हैं। फिर मुझे शुरू से जो भी करने का मन था, लगा अब करते हैं। कई बार जो आपको पंसद है आप वह करना अफोर्ड नहीं कर सकते। कम्पैनियनशिप की बात करें तो अगर किसी के साथ लाइफ़ आसान हो रही है, तो ये अच्छी बात है। लेकिन हमारे तरफ जो होता है अरेंज शादी उसमें रेयर है कि आपको अच्छा इंसान मिले। अरेंज, लव कहीं भी। ऐसे दो आदमी मिले जो एक दूसरे के जीवन को आसान बना रहे हो। लेकिन अगर वह इंसान आपकी लाइफ़ को टफ बनाने लगे तो वह प्रॉब्लेमेटिक है। ऐसे में सिंगल रहो वही बेहतर है। एक कोई इंसान हो, कोई भी हो सकता है, आपका दोस्त भी हो सकता है कि आप अकेले नहीं हो, कोई आपके साथ खड़ा है। बहुत सारे लोगों के ऐसे दोस्त होते हैं। ऐसे में पार्टनर की जरूरत महसूस नहीं होती है या ऐसी फैमिली होती है।

हमारे तरफ एक बात और होती है। माँ-बाप कहते हैं, “जब हम नहीं रहेंगे तब क्या होगा”, यह एक चिंता रहती है उनकी। अगर आप में इमोशनल इंडिपेंडेंस है तो ठीक है, लेकिन अगर लगता है कि जरूरत है तो कोई होना चाहिए। मुझे चुनना हो तो मैं खुद के जैसे किसी को चुनूंगी। कोई आपको ग्रो करने दे, बाउंड न करे। जो संघर्ष आपने आज तक किया है उसकी इज़्जत करे और वह तभी होगा जो खुद वैसे आया है। छोटी-छोटी चीजों को लेकर किया गया आपका संघर्ष वही समझेगा न। आपकी रेस्पेक्ट करेगा, आप भी करोगे ही। लोगों की ख्वाहिशें होती हैं बड़ी ड्रीम वेडिंग होनी चाहिए, मतलब पार्टनर के अंदर क्या क्वॉलिटी है वह एक किनारे हो गई। मेरे साथ नहीं है ऐसा। मुझे कोई मेरे काबिल लगता है, हर तरह से अवेलेबल है, तो बस एक पेपर साइन करे और मेरे साथ रहे बस। ताकि लीगल दिक्कत भी नहीं आए। मुझे कोई मिल गया तो ठीक है और कोई नहीं भी मिल रहा है तब भी ठीक है।

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तस्वीर साभार: ऐश्वर्य, निधि, ताज

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