छतेरी गाँव की रहनेवाली सुमन ने जब घर की आर्थिक तंगी से निजात पाने के लिए घर से बाहर जाकर कुछ रोज़गार के अवसर तलाशने का सोचा तो उसके दिमाग़ में तुरंत यह सवाल आया कि अगर वह काम पर जाएगी तो घर का काम कैसे होगा, दोनों बेटे जब स्कूल से आएंगे तो उन्हें खाना निकालकर कौन देगा? एक-एक करके ऐसे कई सवाल फिर सुमन को परेशान करने लगे। वह सोचने लगी, “मैं कभी घर से बाहर अकेले नहीं निकली, ऐसे कैसे मैं कहीं काम कर पाऊंगीं, मैंने तो आज तक कभी भी अपने लिए कोई फ़ैसला नहीं लिया तो फिर यह फ़ैसला कहीं मेरा परिवार न तोड़ दे।”
सुमन जैसी कई महिलाएं जो ग्रामीण क्षेत्रों से आती हैं, जिन्हें कभी भी शिक्षा और विकास का अवसर नहीं मिला, उनके सामने हमेशा यह उलझन रहती है। घर से बाहर कदम निकालना उनके लिए एक बड़ी चुनौती होती है। कई बार इन सवालों के कारण न जाने कितनी औरतें घर की चारदीवारी में आर्थिक तंगी, दुख और हिंसा के बीच अपनी ज़िंदगी गुज़ार देती हैं। ऐसे में ज़रूरी हो जाता है कि वे इन सबसे बाहर निकलें। लेकिन ऐसा करना उनके लिए आसान भी नहीं होता है। इसके लिए खुद को मानसिक रूप से खुद को तैयार करना ही एकमात्र कारगर उपाय होता है।
हमने अपने लेख की पिछली कड़ी में ऐसी ही कुछ मुद्दों पर बात की थी, जिसे हर उस महिला को अपने मन में रखना चाहिए जो पहली बार से घर से बाहर काम करने या अपनी पहचान बनाने निकलती हैं। इसी उसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए आइए आज हम बात करते हैं उन पहलुओं के बारे में जिसे हर उस महिला को जानना चाहिए, जो रोज़गार के लिए अपने कदम घर से निकालने जा रही है।
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“तुम अपने रोज़गार या परिवार में किसी एक को चुनो और फ़ैसला लो, अगर तुमने रोज़गार को चुना तो उसका जोखिम भी खुद झेलना।” ये बातें अक्सर हर दूसरी महिला को सुननी पड़ती हैं, जब वे शादी, परिवार और बच्चे होने के बाद अपने काम पर लौटने के बारे में सोचती हैं।
घर के काम और चूल्हे-चौके का ज़िम्मा साझेदारी का हो
हमारे घरों में अधिकतर महिलाओं की ज़िंदगी गृहणी बनकर ही बीतती है। वे गृहणी जो काम तो सालभर, सप्ताह के सातों दिन और चौबीस घंटे करती हैं। लेकिन चूंकि इस काम के उन्हें पैसे नहीं मिलते हैं इसलिए उनके काम को रोज़गार की नज़र से नहीं देखा जाता है। यही वजह है कि घर के सारे काम की ज़िम्मेदारी या यूं कहें कि हर वह काम जिसके पैसे नहीं दिए जाते हैं वे घर की महिला के हिस्से में आ जाते हैं। परिवार में सिर्फ़ उन्हीं के काम का मोल होता है जो घर से बाहर जाते हैं और पैसे कमाते हैं। ऐसी स्थिति में घर का काम और चूल्हा-चौका महिलाओं के दामन से इतनी मज़बूती से बंध जाता है कि उससे खुद को अलग कर पाना कई बार मुश्किल भी होता है। इसीलिए जब महिला रोज़गार के लिए अपने घर से बाहर निकलने लगती है तो उसके सामने घर का काम एक बड़ी चुनौती बन जाता है, क्योंकि हमेशा से ये काम उसी के ज़िम्मे होता है। परिवार के बाक़ी सदस्यों को इस काम में शामिल ही नहीं किया जाता है, जिससे वे कभी भी इस काम को करते हुए हमारी कल्पना में भी नहीं आते हैं।
हमारे समाज में महिलाओं को हमेशा निर्णय से दूर रखा जाता है। खासकर वे निर्णय जो महिलाओं से जुड़ा होता है। फिर चाहे वह निर्णय शादी का हो, पढ़ाई का हो, रोज़गार का हो या फिर अपनी ज़िंदगी जीने का हो। समाज हमेशा ऐसे ही ज़ाहिर करता है कि अगर महिला ने अगर खुद से जुड़ा कोई भी फ़ैसला लिया तो उनकी सत्ता खत्म हो जाएगी।
लेकिन हमें ये समझना होगा कि हम महिलाएं सुपरवुमन नहीं हो सकती हैं और होना भी नहीं चाहिए। ऐसा क्यों ज़रूरी है कि हम बाहर का भी काम करें और घर आकर भी सारा काम संभालें। इसलिए यहां सूझबूझ से घर में काम के बंटवारे और साझेदारी को लाने की पहल करनी होगी। जिस वक्त हम ‘घर कौन संभालेगा’ जैसे सवाल को लेकर बाहर जाने का फ़ैसला छोड़कर घर बैठ जाते हैं, उसी वक्त हम अपने परिवार में आनेवाली पीढ़ियों की महिलाओं के अवसर भी सीमित कर देते हैं। इसीलिए सवालों से घबराने की नहीं बल्कि यहां से एक नयी शुरुआत करनी होगी। ये पहल एक़ बार में बहुत बड़े रूप में नहीं हो सकती और अगर हुई भी तो ज़्यादा दिनों तक शायद न चले। इसलिए छोटे-छोटे कदम, जैसे – सुमन अगर काम पर जाने से पहले खाना बनाकर जाती है तो उसे अपने बेटों को ये कहना होगा कि वे खुद से अपने लिए खाना परोसकर खाए और अपने बर्तन खुद धोकर रखें। ऐसे ही छोटी-छोटी आदतों और पहल से हम न केवल अपने रोज़गार की तरफ़ बेहतर का पाएंगे बल्कि अपने घर-परिवार में भी साझेदारी और लैंगिक समानता का बीज बो पाएंगे।
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फ़ैसला खुद के लिए लेना क्यों ज़रूरी
“तुम अपने रोज़गार या परिवार में किसी एक को चुनो और फ़ैसला लो, अगर तुमने रोज़गार को चुना तो उसका जोखिम भी खुद झेलना।” ये बातें अक्सर हर दूसरी महिला को सुननी पड़ती हैं, जब वे शादी, परिवार और बच्चे होने के बाद अपने काम पर लौटने के बारे में सोचती हैं। महिला के फ़ैसले पर परिवार, शादी और समाज का इतना ज़्यादा दबाव होता है अधिकतर महिलाएं अपने बढ़ते कदम पीछे कर लेती हैं। मैंने भी ऐसे सवालों का सामना किया है। इस बात के बाद मैंने भी एक वक्त पर अपने कदम पीछे कर लिए थे, लेकिन फिर मैंने यही सोचा कि आख़िर जोखिम किन चीजों में नहीं है? क्या सिर्फ़ जब महिला अपने लिए निर्णय लेती है तभी जोखिम बढ़ता है? ये सवाल हर उस महिला को करना चाहिए, जिनसे समाज ये बातें कहता है।
हमारे समाज में महिलाओं को हमेशा निर्णय से दूर रखा जाता है। खासकर वे निर्णय जो महिलाओं से जुड़ा होता है। फिर चाहे वह निर्णय शादी का हो, पढ़ाई का हो, रोज़गार का हो या फिर अपनी ज़िंदगी जीने का हो। समाज हमेशा ऐसे ही ज़ाहिर करता है कि अगर महिला ने अगर खुद से जुड़ा कोई भी फ़ैसला लिया तो उनकी सत्ता खत्म हो जाएगी। इसलिए हमें अपने फ़ैसले लेने की शुरुआत कहीं से करनी होगी। हमें यह समझना होगा कि जब हम अपने लिए किसी रोज़गार को चुनते हैं या फिर हम किस रास्ते, किन माध्यम से उस काम तक पहुंचेंगे और उसे करेंगे, ये सिर्फ़ हमारे काम से जुड़े फ़ैसले नहीं होते हैं बल्कि ये हमारे जीवन से जुड़े भी अहम फ़ैसले होते हैं। ये छोटे-छोटे फ़ैसले ही हमारे लिए बड़े फ़ैसलों का आधार बनते हैं।
पितृसत्ता हमेशा महिलाओं की गतिशीलता पर अपना दबाव बनाती है, जो महिलाओं के विकास को प्रभावित करते हैं। चूंकि हमारी परवरिश भी इसी समाज में होती है, इसलिए कई बार हमलोग भ्रमित भी हो जाते हैं और पितृसत्ता के तय नियमों को सही मानने लगते हैं। इसलिए आप भी बचपन से मन में बैठाई गई पितृसत्तात्मक सीख और मूल्यों को चुनौती दीजिए, खुद के लिए।
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तस्वीर साभार: Women On Wings