इंटरसेक्शनलजेंडर महिलाओं से जुड़े इन मिथ्यों को हमें दूर करने की ज़रूरत है

महिलाओं से जुड़े इन मिथ्यों को हमें दूर करने की ज़रूरत है

ये सब सिर्फ़ इसलिए होता है क्योंकि हमारा ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं की कंडीशनिंग ही ऐसे करता है, जिसमें उन्हें कभी भी सिर या आवाज़ उठाना नहीं सिखाया जाता है और उनके सिर झुकाने और चुप रहने में सारी भलाई बतायी जाती है।

गाँव स्तर पर अक्सर किशोरियों और महिलाओं के साथ बैठक करने के दौरान वे अपने अनुभव साझा करती हैं। ये अनुभव तब और भी अधिक और सक्रिय तौर पर सामने आते हैं जब बात किशोरियों और महिलाओं के साथ घर के बाहर निकलने, हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने या फिर चूल्हे-चौके से अलग हटकर सोचने पर आधारित होते हैं। हाल ही में जब मैंने तेंदुई गाँव में युवा महिला लीडर के साथ बैठक की तो लैंगिक हिंसा और भेदभाव पर महिलाओं ने अपने अनुभव और सवाल साझा किए।

बैठक में मौजूद सुषमा ने हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की बात पर कहा, “हम लोग अपने आसपास देखते हैं कि जब भी किसी परिवार में किसी महिला के साथ हिंसा होती है या उसके साथ बुरा व्यवहार किया जाता है तो महिलाएं खुद भी इसे सहती रहती हैं। ये सब देखकर बहुत बुरा लगता है और जब हम उनसे बात करते हैं उनका जवाब होता है कि वह उनका पति है, इतना तो उनका हक़ है।

और पढ़ेंः घर के कामों में बीतती औरतों की ज़िंदगी

किसी भी हिंसा के ख़िलाफ़ लोग सिर्फ़ तभी आवाज़ उठा सकते हैं जब उन्हें यह जानकारी हो कि हिंसा है क्या? बिना हिंसा की प्रवृत्ति के बारे में जाने किस के विरोध में आवाज़ उठाएंगे भला?

सुषमा की बात के बाद एक-एक करके अन्य महिलाओं ने अपने अनुभव बताने शुरू किए। बैठक में मौजूद माला ने कहा, “हम हमेशा समय निकालकर मीटिंग में आते हैं, यहां एकसाथ बैठते हैं। यहां की चर्चा में हम लोगों को नयी चीजें सीखने को मिलती हैं। लेकिन जब आसपास की महिलाएं या कई बार तो अपने घर की अन्य महिलाओं को बैठक में आने के लिए कहते हैं तो वे कहती हैं कि घर का काम कौन करेगा। महिलाएं घर के काम के साथ एक भी समझौता करने को तैयार नहीं होती हैं, वे अपनी पूरी ज़िंदगी सिर्फ़ उसी चूल्हे-चौके में गुज़ार देना चाहती हैं। ऐसी स्थिति में यही लगने लगता है कि महिलाएं खुद आगे नहीं बढ़ना चाहती हैं।”

ये युवा महिलाओं के कुछ ऐसे अनुभव हैं, जिन्हें अक्सर हम खुद भी अपने परिवार और आसपास के माहौल में देखते हैं। लेकिन इसकी मूल वजह की ज़्यादा समझ न होने की वजह से अक्सर महिलाओं पर ही इसका सारा दोष डाल दिया जाता है। इस व्यवहार को जानने के लिए हमें इससे जुड़े हर पहलू को अच्छी तरह समझना होगा। आज हम अपने इस लेख में चर्चा कर रहे हैं, ऐसे ही रोज़मर्रा से जुड़े अनुभवों के बारे में जो महिलाओं के बारे में किसी मिथ्य से कम नहीं होते हैं।

और पढ़ेंः क्या ग्रामीण भारत में लड़कियों के पास अपनी बात कहने का सेफ़ स्पेस होता है?

मिथ्य : महिला खुद हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाना चाहती

किसी भी हिंसा के ख़िलाफ़ लोग सिर्फ़ तभी आवाज़ उठा सकते हैं जब उन्हें यह जानकारी हो कि ‘हिंसा है क्या?’ बिना हिंसा की प्रवृत्ति के बारे में जाने हम किस के विरोध में आवाज़ उठाएंगे भला? “लड़कियों को बातें सुनकर भी हमेशा चुप रहना चाहिए, औरत के ऊपर ही परिवार की ज़िम्मेदारी होती है, अगर औरत आवाज़ उठाती है तो परिवार टूट जाते हैं, औरत को हमेशा खुद से पहले अपने परिवार के बारे में सोचना चाहिए, अच्छी औरत कभी भी परिवार को टूटने नहीं देती है।”

ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की बनाई न जाने कितनी सारी ऐसी सीख लड़कियों को बचपन से मिलनी शुरू हो जाती हैं। ये सब सिर्फ़ सीख में ही नहीं बल्कि यह व्यवहार वे अपने घर में अपनी माँ, बड़ी बहन और परिवार की अन्य महिलाओं को अपनी ज़िंदगी में लागू करते हुए भी देखती हैं। जहां पुरुषों के तिरस्कार पर महिलाएं ये कहकर पर्दा डाल देती हैं कि वो ग़ुस्से में थे। क्यों? क्योंकि उन्हें अपना परिवार बचाना है। उन्हें यह अच्छे से बताया गया है कि अगर वे आवाज़ उठाती हैं तो उनका परिवार टूट जाएगा। ठीक इसी तरह, जब पिता शराब के नशे में माँ के साथ मारपीट करता है तो वे उसे अपनी नियति समझकर निभाती चली जाती हैं।

ये सब सिर्फ़ इसलिए होता है क्योंकि हमारा ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं की कंडीशनिंग ही ऐसे करता है, जिसमें उन्हें कभी भी आवाज़ उठाना नहीं सिखाया जाता है। उनके सिर झुकाने और चुप रहने में सबकी भलाई बताई जाती है। इसलिए महिलाएं हिंसा और भेदभाव को अपनी नियति मान लेती हैं और उन्हें कभी भी ये हिंसा लगती ही नहीं है। समाज को लगता है कि महिलाएं हिंसा को सामान्य मानती हैं जो पूरी तरह गलत है। सच्चाई यह है कि अधिकतर जगह पर महिलाओं को हिंसा की पहचान भी नहीं होती और उन्हें इस बात का एहसास भी नहीं होता कि हिंसा उनकी नियति नहीं है।  

और पढ़ेंः लड़कियों के पढ़ाई और रोज़गार के सपने अक्सर अधूरे क्यों रह जाते हैं?

पितृसत्ता, बचपन से ही औरत का मुख्य काम घर संभालना बताती है। लड़कियों को यह बात घुट्टी की तरह पिलाई जाती है कि भले ही वे पढ़ाई में अच्छी हो न हो, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर न हो, पर उन्हें हर हाल में घर संभालना आना चाहिए। घर के सारे काम करने आने चाहिए, पूरे परिवार के सारे लोगों की ज़रूरत पूरी करना और सभी का ध्यान रखना आना आना चाहिए।

मिथ्य : महिलाएं घर के काम में खुद ज़िंदगी गुज़ार देना चाहती हैं

पितृसत्ता, बचपन से ही औरत का मुख्य काम घर संभालना बताती है। लड़कियों को यह बात घुट्टी की तरह पिलाई जाती है कि भले ही वे पढ़ाई में अच्छी हो न हो, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर न हो, पर उन्हें हर हाल में घर संभालना आना चाहिए। घर के सारे काम करने आने चाहिए, पूरे परिवार के सारे लोगों की ज़रूरत पूरी करना और सभी का ध्यान रखना आना आना चाहिए। इस घुट्टी के बाद अगर कभी भी कोई महिला अपने घर के काम के बाद या कई बार उसके साथ भी आत्मनिर्भर बनने की कोशिश करती है तो समाज उसे ‘बुरी औरत’ बताता है और उसके परिवार में कोई न कोई कमी निकालकर उसे आदर्श परिवार के फ़्रेम से अलग कर देता है।

समाज का यह व्यवहार महिलाओं को मानसिक रूप से डराने और दबाव बनाने के लिए काफ़ी होता है कि उनके जीवन की पहली और आख़िरी प्राथमिकता उनका परिवार ही है। यह दबाव तब और भी ज़्यादा बढ़ जाता है जब आप आर्थिक और जातिगत स्तर पर हाशिये पर होते हैं। इसकी वजह से ज़्यादा जानकारी, शिक्षा का अभाव होता है। अगर इन तमाम चुनौतियों के बाद महिलाएं दसवीं-बारहवीं तक स्कूल भी जाती हैं तो उनकी किताबों में भी हमेशा महिलाओं को घर के कामों से ही जोड़कर दिखाया जाता है।

इस तरह सिर्फ़ परिवार या समाज ही नहीं बल्कि हमारी किताबें भी महिलाओं को ये पाठ पढ़ाती हैं कि घर का काम उनका है। इससे महिलाएं एक समय के बाद घर के काम में ही अपने अस्तित्व को देखने या फिर देखने को मजबूर की जाती हैं। इसके साथ ही एक धारणा यह कर दी जाती है कि वे खुद इससे बाहर निकलना नहीं चाहती हैं, जो कि मिथ्य है। सच्चाई तो यह होती है कि उनके दिमाग़ में ये बात इतनी मज़बूती से बैठा दी जाती है कि इसे चुनौती देने या इससे बाहर निकलने के बारे में सोच भी नहीं पाती हैं। 

और पढ़ेंः खुद के लिए फ़ैसले लेना सीखना औरतों के लिए क्यों ज़रूरी है


तस्वीर साभारः IFAD

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content