इंटरसेक्शनलLGBTQIA+ सलीम किदवई: क्वीयरिंग स्पेस को निजी और अपने लेखन में जीनेवाले इतिहासकार

सलीम किदवई: क्वीयरिंग स्पेस को निजी और अपने लेखन में जीनेवाले इतिहासकार

अगस्त 1951, लखनऊ में जन्मे इतिहासकार सलीम किदवई का जीवन, जीवन यात्रा, अकादमिक काम, लेखन और निजी जीवन के छोटे-बड़े फैसले क्वीयरिंग स्पेस और 'निजी राजनीतिक है' को चरितार्थ करती है।

क्वीयरिंग स्पेस का मतलब होता है कि किसी भी व्यक्ति या व्यक्तियों के बीच किसी तरह के भावनात्मक या अन्य किसी भी तरह के संबंध होने की संभावनाएं हेट्रोनॉर्मल समाज के पूर्वाग्रहों से बाहर होना। यहां क्वीयरिंग का मतलब केवल आपकी यौनिक पहचान या लैंगिक पहचान से नहीं है। अगस्त 1951, लखनऊ में जन्मे इतिहासकार सलीम किदवई का जीवन, जीवन यात्रा, अकादमिक काम, लेखन और निजी जीवन के छोटे-बड़े फैसले क्वीयरिंग स्पेस और ‘निजी राजनीतिक है’ को चरितार्थ करती है।

लखनऊ में रहते हुए उन्हें पता चल गया था कि उनकी क्वीयर पहचान के साथ उस समाज में, घर के आसपास रहना उनके लिए मुश्किल होनेवाला है। एक बातचीत में वह बताते हैं कि उन्हें अपनी सेक्सुअलिटी का एहसास बहुत पहले हो चुका था, इसलिए किसी उम्र या समय पर उंगली रखकर बताना मुश्किल है। ‘”हमेशा से मुझे पोस्टर्स, मैगज़ीन में पुरुषों का शरीर पसंद आता था। किसी ख़ास घटना के बाद मुझे यह महसूस होना शुरू नहीं हुआ था, वह कहते हैं।

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प्रॉजेक्ट ‘बोलो’ को दिए गए इंटरव्यू में वह कहते हैं, “17-18 की उम्र तक मुझे पता चल गया था कि मैं गे हूं पर इस बारे में बात करने, न सिर्फ अपने बारे में बल्कि दूसरे गे व्यक्तियों के साथ किसी और गे व्यक्ति जिसे आप पंसद करते हो, उनके बारे में भी बात करने पाने की जगह दिल्ली आकर मिली।” सलीम किदवई के औपचारिक साक्षात्कारों में आपको उनमें तथाकथित मुख्यधारा यानी हेट्रोसेक्सुअल नज़रिए/ब्राह्मणवादी हेट्रोसेक्सुअल नज़रिए से पूरे समाज के व्यवहार और नियम की झलक कहीं नहीं दिखती है।

अपने कॉलेज जहां से उन्होंने इतिहास की पढ़ाई की, सेंट स्टीफेंस के बारे में अपने अनुभव बताते हुए वह हंसते हुए कहते हैं, “वहां कई अफेयर्स चलते थे लोगों के, बहुत सारे यौन संबंध भी।” किदवई का यह कहना ‘मुख्यधारा’ की विचारधारा में माननेवाले किसी व्यक्ति का अपने कॉलेज के दिनों को याद करने से अलग और जरूरी इसलिए है क्योंकि तब सेंट स्टीफेंस एक ऑल बॉयज़ कॉलेज था। यानी किदवई यहां गे रिश्तों के बारे में बात करके उन्हें उसे एक तरह से निजी अनुभवों के ज़रिए विज़िबिलिटी दे रहे हैं। वह ये भी कहते हैं कि उनके वे दोस्त आज ‘लोकप्रसिद्ध’ हैं। सलीम किदवई ने रूथ वनिता के साथ एक किताब लिखी है, किताब आयी 2001 में, नाम है, ‘Same-sex love in India, readings from literature and history.’ अपने काम से उन्होंने स्थापित किया कि समलैंगिगता पश्चिमी सभ्यता से नहीं आयी है, समलैंगिक रिश्ते भारत में पहले से मौजूद हैं।

सलीम किदवई के औपचारिक साक्षात्कारों में आपको उनमें तथाकथित मुख्यधारा यानी हेट्रोसेक्सुअल नज़रिए/ब्राह्मणवादी हेट्रोसेक्सुअल नज़रिए से पूरे समाज के व्यवहार और नियम की झलक कहीं नहीं दिखती है।

किदवई 1973 से दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में कार्यरत थे। साल 1976 में इस्लाम का इतिहास विषय पढ़ने कैनडा के मेकगिल विश्वविद्यालय गए थे। यहां आकर वह कई अन्य ऐसे गे व्यक्तियों से मिले जो अपनी जेंडर और जेंडर आधारित पहचान को लेकर मुखर थे। साल 1977 में पुलिस ने ‘ट्रक्स’ नामक एक गे बार में ‘छापा’ मारा और किदवई समेत 145 लोगों को गिरफ्तार कर लिया। 2001 में इस घटना को याद करते हुए वे लिखते हैं, “मैं हड़बड़ा गया, एक चीज़ जो मैंने समझी वह यह थी कि प्रवासी प्राधिकरण को गे व्यक्ति पसंद नहीं थे। मैं स्टूडेंट्स वीज़ा पर था। भारत में रह रहे मेरे समलैंगिक दोस्तों से मैं क्या कहता। पहले से ही डर में जी रहे उन लोगों को यह सच्चाई अपनी पहचान को लेकर और चुप कर देती।” हालांकि 1984 में किदवई पर लगे चार्ज खारिज़ हो गए। इस घटना से परेशान सलीम किदवई बिना पीएचडी पूरी किए भारत आ गए। 

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सलीम का जीवन और उनके काम कई प्रश्न रेखांकित करते हैं। जैसे- क्या राजनीति और सुख (यौन सुख) को अलग देखा जा सकता है? क्या प्रेम की अवधारणा केवल जोड़ों (अंग्रेजी में ‘कपल’) के लिए है, क्या दोस्ती के संदर्भ में इसे नहीं देखा जा सकता है? ‘Queering the pitch: life and times of Saleem Kidwai नामक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म यूट्यूब पर निशुल्क उपलब्ध है। फ़िल्म एक जगह कहती है, सलीम किदवई के जीवन को केवल उनके अकादमिक काम से नहीं जाना जा सकता। ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके काम केवल ‘कार्य क्षेत्र’ तक सीमित नहीं थे। उनके जीवन को जानने के लिए संगीत, उनके दोस्तों के साथ उनका साथ, उनके दोस्तों द्वारा ली गईं उनकी तस्वीरें, उन्हें लेकर उनके साथ रहे लोगों की स्मृतियां, सभी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

किदवई 1973 से दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में कार्यरत थे। साल 1976 में इस्लाम का इतिहास विषय पढ़ने कैनडा के मेकगिल विश्वविद्यालय गए थे। यहां आकर वह कई अन्य ऐसे गे व्यक्तियों से मिले जो अपनी जेंडर और जेंडर आधारित पहचान को लेकर मुखर थे।

इस फ़िल्म में उनके दोस्तों की कई वीडियो क्लिप हैं जिससे मालूम चलता है कि सलीम किदवई दोस्ती में ख़र्च होते थे। उनका ऐसा होना परिवार के जैविक ढांचे को, और केवल इस ढांचे के प्रति इंसान की जिम्मेदारी होती है, इस धारण और तथाकथित नियम को तोड़ती है। सलीम अपने समय से आगे के समाज के थे, मुख्यधारा के नियमों के हिसाब से न जीने वाले सलीम किदवई की दोस्तियों को क्वीयरिंग स्पेस की तरह देखा जा सकता है।

उनकी दोस्त सोहिनी गोष बताती हैं कि वह दोनों मानते थे कि जीने और प्रेम करने के लिए शादी केवल एक मामूली तरीका हो सकता है, लेकिन जरूरी हिस्सा नहीं है, साथ ही इसके और भी तरीक़े हो सकते हैं।” इस तरह जीवन भारत के ब्राह्मणवादी हेट्रेसेक्सुअल पितृसत्तात्मक समाज में जीना अपने आप में एक संघर्ष है। किदवई ने कहा भी है कि आज़ादी लेवल क़ानूनी स्तर पर नहीं होती है, उनके लिए अपने तरह से जीवन जी पाना ही आज़ादी है। दिल्ली में अक्सर वह क्वीयर पार्टी का आयोजन करते थे, यह पार्टी प्रेम और स्नेह के अलग अलग अभिव्यक्ति और रूप का सेफ़ स्पेस होता था, हेट्रोसेक्सुअल समाज के नियमों से दूर, उसके बंधनों से मुक्त!

सलीम अपने समय से आगे के समाज के थे, मुख्यधारा के नियमों के हिसाब से न जीने वाले सलीम किदवई की दोस्तियों को क्वीयरिंग स्पेस की तरह देखा जा सकता है।

किदवई क़ानून के साथ-साथ समाज के व्यवहार के महत्व को समझते थे। वह जानते थे कि किसी भी संस्थान में लोग इसी समाज से जाते हैं और यहीं की प्रचलित सोच और शक्ति का एक रूप होते हैं। इसलिए वह क़ानून से परे, दूर की सोचते थे। हालांकि उनकी किताब ‘Same sex love’ ने सेक्शन 377 के सुप्रीम कोर्ट द्वारा हटाए जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। किदवई के अनुसार श्याम दीवान का कोर्ट में खड़े होकर खुद को संबोधित करते हुए, फर्स्ट पर्सन में (उत्तम पुरुष सर्वनाम) में बात करना, कहना कि हमारा जीवन हमारे कमरे से बाहर भी है, अपने आप में एक क्रांति है। बताते चलें कि साल 2018 में श्याम दीवान ने ‘right to intimacy’/’स्नेह के अधिकार’ को आर्टिकल 21 का हिस्सा बनाने की मांग करते हुए दलील पेश की थी।

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सलीम किदवई ने दिल्ली में गे और बाइसेक्सुअल पुरुषों के लिए एक फोरम बनाया था, ‘हमराही’ के नाम से। उनका साथ दिया था सी मेहरा ने। उन्होंने वहां सलाहकार की भूमिका निभाई, नई पीढ़ी के लिए एक सेफ़ स्पेस बनाया। उन्हें बेग़म अख़्तर के गाने पंसद थे, उनसे उनकी यारी भी रही। अख़्तर के रुखसत होने के बाद सलीम ने उनके लिए वार्षिक ‘हाज़री’ की शुरुआत की, जहां संगीतकार, ग़ज़लकार को बेग़म की याद में जुटते, उन्हें याद करते थे।

इसके अलावा किदवई ने कई किताबें लिखी हैं, अनुवाद किया है, क्वीयर इतिहास को जानने की महत्ता विद्यार्थी जीवन में समझी और बाद में फिर औरों को अपने काम के ज़रिए समझाई है। उनका तरीका समावेशी था। एक बार उन्होंने कहा था कि क्वीयर समूहों को अलग अलग शोषित पहचान के समूहों से मानवाधिकारों के संघर्ष की ख़ातिर जुड़ना चाहिए, अलायंस करना चाहिए।

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तस्वीर साभार: Live Mint

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