11 अक्टूबर इंटरनेशनल गर्ल चाइल्ड डे के रूप में मनाया जाता है। इसकी शुरुआत संयुक्त राष्ट्र द्वारा साल 2011 में हुई थी। यह मुहिम दुनियाभर में जेंडर के आधार पर मौजूद मुद्दों मसलन शिक्षा, पोषण, कानूनी अधिकार, बाल विवाह और स्वास्थ्य अधिकारों पर जागरूकता फैलाने और बालिकाओं के लिए बेहतर अवसर उपलब्ध कराने की वकालत करती है।
इंटरनेशनल गर्ल चाइल्ड डे की शुरुआत ‘प्लान इंटरनेशनल’ नाम के एक गैर-सरकारी संस्था के एक प्रोजेक्ट के रूप में हुई थी। एक अंतरराष्ट्रीय दिवस के रूप में इसे मनाने के विचार के पीछे ‘प्लान इंटरनेशनल’ एनजीओ के ही एक अभियान ‘बिकॉज़ आई एम ए गर्ल‘ की भूमिका रही, जिसने विश्व स्तर पर, विशेष रूप से विकासशील देशों में लड़कियों के पोषण को महत्व देने की आवश्यकता महसूस की। ‘बिकॉज़ आई एम अ गर्ल’ अभियान ने दुनियाभर में जेंडर के आधार पर होनेवाले भेदभाव के मुद्दे को उठाया। इस अभियान के लक्ष्यों में शामिल थे- लड़कियों के अधिकारों को बढ़ावा देना और लाखों लड़कियों को गरीबी से बाहर लाना। इस अभियान के तहत यह बात रखी गई कि दुनियाभर के नेता लड़कियों की शिक्षा को प्राथमिकता दें, साथ ही साथ इस बात पर ज़ोर हो कि वे अपनी माध्यमिक स्तर की शिक्षा पूरी कर सकें। इसी बाबत यह भी कहा गया कि लड़कियों की शिक्षा के संबंध में वित्तीय निवेश को बढ़ाया जाए और स्कूलों और उसके बाहर जेंडर आधारित हिंसा खत्म की जाए।
2022 में यह अभियान अपनी 10वीं सालगिरह मना रहा है। ऐसे में, पिछले दस सालों में वैश्विक स्तर पर बालिकाओं संबंधी इतने महत्वपूर्ण मुद्दों पर बातचीत करने, ध्यान देने के बाद की स्थिति क्या है, यह जानना ज़रूरी हो जाता है।
इंटरनेशनल डे ऑफ़ गर्ल चाइल्ड मनाने का प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र के जनरल असेंबली में कनाडा की ओर से अधिकारिक रूप से पेश किया गया। कनाडा की महिला संबंधी मामलों की मंत्री रोना अम्ब्रोज़ ने इस मुहिम को आवाज़ दी। ‘यूनाइटेड नेशंस कमीशन ऑन द स्टेटस ऑफ वीमेन’ की 55 वीं बैठक में इस पहल के पक्ष में बच्चियों और महिलाओं का एक प्रतिनिधि-मंडल शामिल हुआ। 19 दिसंबर, 2011 को संयुक्त राष्ट्र की आम सभा ने इस प्रस्ताव को पारित करते हुए 11 अक्टूबर, 2012 को अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस ( इंटरनेशनल डे ऑफ गर्ल चाइल्ड) के उद्घाटन वर्ष के रूप में स्वीकार किया।
हर साल इस दिन का एक विषय (थीम) निर्धारित किया जाता है। अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस का पहला मुद्दा ‘एंडिंग चाइल्ड मैरिज‘ रखा गया था। 2013 के दौरान यह ‘इनोवेटिंग फ़ॉर गर्ल्स एडुकेशन’ रहा 2014 में विषय था- एम्पोवेरिंग अडोलसेंट गर्ल्स: एंडिंग द सायकिल ऑफ वॉयलेंस। 2015 में इसका मुद्दा था, ‘ द पॉवर ऑफ अडोलसेंट गर्ल: विज़न फ़ॉर 2030। 2016 में यह ‘गर्ल प्रोग्रेस: व्हाट काउंट्स फ़ॉर गर्ल्स, 2017 में थीम थी, इम्पॉवर गर्ल्स: बिफोर, ड्यूरिंग एंड आफ़्टर क्राइसिस तथा 2018 में इसे ‘विद हर: अ स्किल्ड गर्ल फोर्स’ कहा गया। इस साल इसकी थीम है- ‘आवर टाइम इज़ नाउ- आवर राइट्स, आवर फ्यूचर।’
11 अक्टूबर इंटरनेशनल गर्ल चाइल्ड डे के रूप में मनाया जाता है। इसकी शुरुआत संयुक्त राष्ट्र द्वारा साल 2011 में हुई थी। यह मुहिम दुनियाभर में जेंडर के आधार पर मौजूद मुद्दों मसलन शिक्षा, पोषण, कानूनी अधिकार, बाल विवाह और स्वास्थ्य अधिकारों पर जागरूकता फैलाने और बालिकाओं के लिए बेहतर अवसर उपलब्ध कराने की वकालत करती है।
2022 में यह अभियान अपनी 10वीं सालगिरह मना रहा है। ऐसे में, पिछले दस सालों में वैश्विक स्तर पर बालिकाओं संबंधी इतने महत्वपूर्ण मुद्दों पर बातचीत करने, ध्यान देने के बाद की स्थिति क्या है, यह जानना ज़रूरी हो जाता है। यूनेस्को ( UNESCO) के अनुसार, दुनियाभर में तक़रीबन 62 मिलियन बालिकाएं स्कूली शिक्षा से वंचित हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की ही ‘ग्लोबल ऐनुअल रिजल्ट्स रिपोर्ट 2021’ बताती है कि कोविड-19 के कारण पिछले 25 सालों में शिक्षा के क्षेत्र में पायी गयी उपलब्धियां संकट की स्थिति में हैं। साथ ही इसके कारण 2030 तक लगभग 10 मिलियन अधिक बाल विवाह होने की संभावना है।
यह रिपोर्ट बताती है कि फ़ीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन [ FGM] को रोकने के लिए अब तक किए गए प्रयासों में लगभग 30 प्रतिशत की रुकावट देखने को मिल सकती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट ‘इंटर-एजेंसी वर्किंग ग्रुप ऑन वॉयलेंस अगेंस्ट वीमेन एस्टिमेशन एंड डेटा-2021’ के अनुसार वैश्विक स्तर पर, लगभग 736 मिलियन महिलाएं अपने पार्टनर अथवा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा या दोनों ही मामलों में अपने जीवन में कम से कम एक बार शारीरिक और यौन हिंसा की सर्वाइवर रही हैं। इसी रिपोर्ट के अनुसार, किशोरावस्था में हर चार में से एक लड़की यानी 15 से 19 साल की उम्र की लगभग 24 प्रतिशत किशोरियों ने पिछले बारह महीनों में (2021) पति या पार्टनर द्वारा की गई हिंसा झेली है।
इसी कड़ी में, लिंग अनुपात पर बात करना ज़रूरी हो जाता है। दुनियाभर में, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और धार्मिक कारणों में लड़कियों के ऊपर लड़कों के जन्म को प्राथमिकता देने की प्रवृत्ति देखी गई है। यूएन वर्ल्ड पॉपुलेशन प्रॉस्पेक्ट-2019 के मुताबिक यह जन्म के समय बालक:बालिका अनुपात 107:100 है। हालांकि यहाँ एक बात उल्लेखनीय है कि चीन और भारत, जोकि दुनियाभर में सबसे अधिक आबादी वाले देश हैं, को छोड़कर अन्य देशों में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक है। कुल मिलाकर यह अनुपात 2021 में 100 महिलाओं पर 101.678 पुरुष का है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के PEW रिसर्च सेंटर की एक रिपोर्ट बताती है कि 2000 से 2020 के दो दशकों में औसतन भारत जन्म के समय सबसे ख़राब लिंग अनुपात वाले देशों में से एक रहा है। 2011 में हुई जनगणना के आंकड़ों को देखें तो कहीं न कहीं यह बात ठीक जान पड़ती है। उस दौरान जन्म के समय 111 बालकों पर 100 बालिकाएं थीं। हालांकि, पिछले दशक में हालातों में कुछ सुधार देखने को मिला है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे: 2019-21 में यह आंकड़ा 108:100 हुआ है। इसके पीछे ‘सेव द गर्ल चाइल्ड’ जैसी योजनाओं का एक बड़ा हाथ रहा है।
यह सोचने वाली बात है कि दुनियाभर में महिलाओं के अधिकारों को लेकर इतने प्रयासों के बावजूद भी औरतों की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन देखने को नहीं मिल रहा है। इन सभी मामलों में भारत की स्थिति तो और भी भयावह है। वर्ल्ड इकनोमिक फोरम द्वारा जारी की गई ‘ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट, 2022’ में 146 देशों में भारत 135वें स्थान पर है।
स्वास्थ्य और उत्तरजीविता (हेल्थ एंड सर्वाइवल) में भारत आखिरी स्थान (146 वें) पर है। आर्थिक भागीदारी में 143वें, शिक्षा में 107वें तथा राजनैतिक सशक्तिकरण में 48 वें स्थान पर है। 2020 में, भारत में तकनीकी भूमिकाओं में तथा वैतनिक श्रम में औरतों की भागीदारी में कमी दर्ज की गई है, जिसके कारण औरतों की आनुमानित अर्जित आय में गिरावट दर्ज हुई है। यह पुरुषों की आय का एक बंटे पांचवा हिस्सा है।
ध्यान देने लायक दूसरी बात यह है कि औरतों के श्रम का एक बड़ा हिस्सा अनपेड केयर वर्क यानी अवैतनिक देखभाल के कामों में जाता है। वह हिस्सा राष्ट्रीय आय के आकलन व अन्य आधिकारिक गणनाओं के समय भी यूं ही छूट जाता है क्योंकि उसे काम नहीं समझा जाता जबकि औरतें और बच्चियां अपने दिन का एक बड़ा हिस्सा उसमें लगाती हैं। नैशनल स्टेटिस्टिकल ऑफ़िस द्वारा 2019 में किए गयए एक सर्वे से अनुसार भारत में औसतन हर महिला दिन में लगभग 299 मिनट अवैतनिक घरेलू सेवाएं प्रदान करने में लगाती है।
इस तरह बचपन से ही लड़कों के पास पढ़ने और खेलने का अतिरिक्त समय होता है, जो उनके शारीरिक व मानसिक विकास को सुनिश्चित करता है, वहीं लड़कियां बचपन से ही इन मौकों से कटती जाती हैं। ये स्थितियां तब और गहरी हो जाती हैं, जब जातिगत और वर्गीय पहचानों के आधार पर आंकलन किया जाए।
दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों के बीच किए गयए एक रैंडम-सर्वे में 10 में से 8 लड़कियों ने यह माना कि वे बचपन से (स्कूल के दिनों से) घरेलू कामकाज व खाना-पकाने की प्रक्रिया में संलग्न रही हैं। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि घरेलू कामकाज में भाग लेना उनके लिए अपरिहार्य ही रहा, ‘चॉइस’ नहीं। वहीं, इसी उम्र के लड़कों में 10 में से 9 ने घर से बाहर आकर खाना बनाना सीखा। इनमें से लगभग 50 प्रतिशत लड़कों ने यह माना कि खाना बनाना उनकी ‘चॉइस’ है।
इस तरह बचपन से ही लड़कों के पास पढ़ने और खेलने का अतिरिक्त समय होता है, जो उनके शारीरिक व मानसिक विकास को सुनिश्चित करता है, वहीं लड़कियां बचपन से ही इन मौकों से कटती जाती हैं। ये स्थितियां तब और गहरी हो जाती हैं, जब जातिगत और वर्गीय पहचानों के आधार पर आंकलन किया जाए। मसलन, आर्थिक रूप से संपन्न, उच्च जातीय घरों में घरेलू कामकाज के लिए हाउस-हेल्प होती हैं। ऐसे में उनके पास अतिरिक्त समय बचता है, जिसमें वे अपनी पसंद के काम कर सकती हैं, आराम कर सकती हैं, पढ़ने-लिखने या अन्य तरह के कामों में संलग्न हो सकती हैं। वहीं निम्न-वर्गीय- निम्न-जातीय महिलाओं और बालिकाओं के पास यह अवसर नहीं होता। यही कारण है कि सरकार की तमाम योजनाएं और मिलेनियम डेवलेपमेंट गोल्स, प्रत्येक वर्ष नयी थीम्स आदि के बावजूद भी धरातल की स्थितियों में कोई बड़ा बदलाव देखने को नहीं मिलता।
अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर लैंगिक समानता के लिए किए जाने वाले प्रयास सराहनीय हैं लेकिन समय-समय पर इन कार्यक्रमों की समीक्षा करनी होगी। साथ ही, ज़मीनी स्तर पर, समाज के सबसे पिछड़े हिस्से से बदलाव की शुरुआत होनी चाहिए, उसके लिए सबसे पहले अलग पहचानों को स्वीकारना और उनकी अलग-अलग परिस्थितियों को लिए भिन्न मॉडल और कार्यक्रम विकसित करके बदलाव लाने की ओर बढ़ना चाहिए।