उमा चक्रवर्ती एक नारीवादी इतिहासकार हैं। वह सत्तर के दशक के आखिरी वर्षों से नारीवादी आंदोलन और लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए होनेवाले विभिन्न आंदोलनों से जुड़ी हुई हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘जेंडरिंग कास्ट: थ्रू ए फेमिनिस्ट लेंस’ में जाति द्वारा समाज के सभी तबकों की विशेष तौर पर दलित बहुजन जातियों की औरतों की जिंदगियों पर पड़ने वाले प्रभाव की व्याख्या की है।
जाति को लेकर बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर के कहे उन शब्दों को स्मरण करती हैं जिसमें वह जाति को एक ‘श्रेणीबद्ध असमानता’ और सजातीय विवाह को बनाए रखने का साधन मानते हैं। लेखिका ने अपनी इस किताब के ज़रिये हमें जाति के बारे में जेंडर के नज़रिये से समझाने का प्रयास किया है। यह किताब जाति के उस प्रभावशाली समाजशास्त्रीय सिद्धांत को खारिज करती है जो जाति आधारित उत्पीड़न के अनुभव की जटिलता को समझने में विफल है, क्योंकि ऐसे सिद्धांतों का प्रतिपादन विशेषाधिकार प्राप्त लोगों द्वारा किया जाता है।
हाशिये की जाति से आनेवाली महिलाएं विशेषरूप से दलित महिलाएं तिहरे उत्पीड़न का सामना करती हैं- उच्च जातियों द्वारा एक दलित के रूप में, जमींदार से मजदूर के रूप में और अपने ही परिवार और जाति के पुरुषों से महिलाओं के रूप में।
ब्राह्मणवादी पितृसत्ता
यह पुस्तक उस संरचना की एक पड़ताल है जो महिलाओं की अधीनता को प्रशंसनीय बनाती है। इसका आलोचनात्मक विश्लेषण करने पर हमें पता चलता है कि इसका मूल कारण ब्राह्मणवादी पितृसत्ता है। पुरुष प्रभुत्व और उच्च-जाति प्रभुत्व के बीच संबंध सतही या फौरी न होकर, भीतरी तौर पर अधिक गहराई से और संरचनात्मक रूप से जुड़ा हुआ है। उच्च जाति की महिलाओं को जाति और परिवार की प्रतिष्ठा और सभी कर्मकांडों की वाहक माना जाता है। यही कारण है कि उनका अन्य जाति या धर्म में संबंध बनाना सख्त रूप से प्रतिबंधित है। हाशिये की जाति से आनेवाली महिलाएं विशेषरूप से दलित महिलाएं तिहरे उत्पीड़न का सामना करती हैं- उच्च जातियों द्वारा एक दलित के रूप में, जमींदार से मजदूर के रूप में और अपने ही परिवार और जाति के पुरुषों से महिलाओं के रूप में।
उपनिवेशवाद और स्त्री की पराधीनता
पूर्व औपनिवेशिक समय में भी महिलाओं के कंधे पर ही जाति संरचना को बचाने और बनाए रखने का बोझ था। भारत में अंग्रेजी शासन के साथ उत्पादन संबंध, राजस्व उगाही, वैधानिक बदलाव, न्यायिक प्रणाली और शिक्षा व्यवस्था इत्यादि में बदलाव आए जिसके फलस्वरूप एक नई सार्वजनिक संस्कृति का आगमन हुआ। ब्रिटिश शासन के दौरान 1829 में सती प्रथा को खत्म किया गया। लेकिन उन्होंने पदानुक्रम को बरकरार रखा, विशेष तौर पर अंतरजातीय संबंधों में जिसने जेंडर पर भी प्रभाव डाला। उदाहरण के लिए जब बलात्कार संबंधी कानून बनाए जा रहे थे, तब इस बात पर गंभीर बहस हुई कि एक उच्च जाति की महिला अपने बलात्कार को मौत से भी अधिक भयानक समझती है।
यह पुस्तक उस संरचना की एक पड़ताल है जो महिलाओं की अधीनता को प्रशंसनीय बनाती है। इसका आलोचनात्मक विश्लेषण करने पर हमें पता चलता है कि इसका मूल कारण ब्राह्मणवादी पितृसत्ता है। पुरुष प्रभुत्व और उच्च-जाति प्रभुत्व के बीच संबंध सतही या फौरी न होकर, भीतरी तौर पर अधिक गहराई से और संरचनात्मक रूप से जुड़ा हुआ है।
बहुत से हाशिये की जाति से आनेवाले लोगों ने जाति प्रथा के उत्पीड़न से तंग आकर ईसाई धर्म भी अपनाया। ईसाई धर्म में धर्म परिवर्तन करने वाले लोगों को मिशनरी में शिक्षा दी गई, जो इनकी स्वतंत्रता का वाहक बनी। त्रावणकोर के शानर (नादर) समुदाय के लोगों ने उस समुदाय की औरतों को अपने शरीर के ऊपरी ऊपरी हिस्से को ढकने के अधिकार की मांग की। लेकिन इस समय भी फीमेल सेक्सुअलिटी पर पुरुषों का ही नियंत्रण रहा और संस्कृतिकरण के प्रभाव के परिणामस्वरुप निम्न जाति की महिलाओं ने भी अपनी स्वतंत्रता खो दिया और उनका दायरा उच्च जाति की महिलाओं की तरह सीमित किया जाने लगा। इस तरह औपनिवेशिक काल में भी महिलाओं का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं था बल्कि वह पितृसत्तात्मक समाज में केवल एक खिलौने की तरह थीं।
समकालीन समय में जाति और जेंडर
आज भी जाति और जेंडर के पारंपरिक स्थिति में कोई बहुत बड़ा परिवर्तन देखने को नहीं मिल रहा है। दलित-बहुजन जाति के ज्यादातर लोगों के पास अब भी ज़मीन नहीं है। इसलिए आज भी उनके पास अपनी आजीविका के लिए शारीरिक श्रम के अलावा और कोई साधन नहीं है। यही कारण है कि शिक्षा और स्वास्थ्य तक उनकी पहुंच भी बेहद सीमित है। वे वोट देने के अधिकार पर तो बराबर हो गए हैं लेकिन सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्तरों पर अब भी वहीं है जहां सालों पहले थे। उमा चक्रवर्ती हमारा ध्यान इस ओर भी ले जाने की कोशिश करती हैं कि कैसे आधुनिक समय में इंटरनेट जाति को न केवल बरकरार रखने में बल्कि बढ़ाने में योगदान दे रहा है। उदाहरण के तौर पर, बहुत सारे समाचार पत्रों के ऑनलाइन पोर्टल को देखा जा सकता है, जहां पर मैट्रिमोनियल कॉलम में विवाह के लिए साथी चुनने में एक पैमाना जाति भी निर्धारित करता है।
लेखिका मंडल विरोधी आंदोलन की एक घटना का ज़िक्र करतीं हैं- इस आंदोलन में तथाकथित उच्च जाति की महिलाओं के समूह ने अपने ‘संभावित पतियों’ की तरफ से विरोध प्रदर्शन करते हुए ऐसे दख्तों के साथ शामिल हुई, जिस पर लिखा था कि “हमें बेरोज़गार पति नहीं चाहिए।” यह घटना जाति और पितृसत्ता के बीच के व्यापक संबंधों के साथ-साथ समाज के जटिल संरचना में महिला की आर्थिक स्थिति को भी स्पष्ट करती है।
प्रीवेंशन ऑफ एट्रोसिटीज ऐक्ट (1989) के रूप में वैधानिक सुरक्षा के बावजूद दलितों के खिलाफ हिंसा कम नहीं हुई हैं। इसी क्रम में लेखिका इस किताब में दलित महिलाओं के विरुद्ध होनेवाली यौन हिंसा के कुछ प्रमुख मामले का उल्लेख करती हैं, जिन्हें या तो गंभीरता से नहीं लिया गया या राज्य मशीनरी द्वारा प्रभुत्वशाली उच्च जाति के लोगों के पक्ष में काम किया गया। जैसे- मथुरा रेप केस, जिसमें एक आदिवासी लड़की का पुलिस थाने में पुलिस वालों के द्वारा ही बलात्कार किया जाता है। दूसरा उदाहरण फूलन देवी का है जिनके साथ तथाकथित उच्च जाति के कुछ लोगों ने गैंगरेप किया।
आज भी ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जिनमें से हाथरस रेप केस भी है। ऐसे मामले तेजी से बढ़े हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार साल 2019 में हर दिन दलित महिलाओं के ख़िलाफ़ रेप के 10 मामले दर्ज किए गए। एक दलित महिला की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति ने उसके जाति और लिंग दोंनो के आधार पर उसके साथ हुई यौन हिंसा को कही अधिक संवेदनशील बना दिया है, इसलिए यह अनिवार्य हो गया है कि दलित महिलाओं पर किसी भी यौन हमले को भारतीय बलात्कार कानूनों के साथ-साथ एससी और एसटी ऐक्ट (अत्याचार निवारण अधिनियम) दोंनो के तहत कवर किया जाए।
मुख्यधारा के नारीवादी मंचों पर गैर-दलित नारीवादियों के साथ दलित महिलाओं के लिए भी जगह होनी चाहिए, जिससे वे अपनी कहानी खुद दुनिया के सामने रख सकें और अफने साथ हुए अत्याचारों के विरुद्ध होनेवाली लड़ाई का नेतृत्व भी खुद करें। लेखिका इस किताब में इन श्रेणीबद्ध शोषण आधारित संस्थाओं को बनाए रखने में राज्य की भूमिका का भी उल्लेख करती हैं। उन्होंने जाति और जेंडर के बीच के संबंधों का खुलासा करने का सफल प्रयास किया है।
लेखिका मंडल विरोधी आंदोलन की एक घटना का ज़िक्र करतीं हैं जहां इस आंदोलन में तथाकथित उच्च जाति की महिलाओं के समूह ने अपने ‘संभावित पतियों’ की तरफ से विरोध प्रदर्शन करते हुए ऐसे दख्तों के साथ शामिल हुई, जिस पर लिखा था कि “हमें बेरोज़गार पति नहीं चाहिए।” यह दर्शाता है कि भारतीय समाज में जातिवादी सोच इस तरह शामिल है कि प्रदर्शनकारियों के लिए शोषित वर्ग के किसी नौकरीपेशा पुरुष से विवाह का कल्पनामात्र भी हास्यास्पद है। यह घटना जाति और पितृसत्ता के बीच के व्यापक संबंधों के साथ-साथ समाज के जटिल संरचना में महिला की आर्थिक स्थिति को भी स्पष्ट करती है। इस किताब द्वारा पूर्व-औपनिवेशिक, औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक काल से लेकर समकालीन समय तक जाति की स्थिति विश्लेषण करते हुए हम पाते हैं कि किताब जाति और जेंडर पर आधारित प्रमुख किताबों में से एक है।
बढ़िया समीक्षा👌
Thank you😊😊