ग्राउंड ज़ीरो से मुज़फ्फरनगर की इन महिलाओं ने कैसे कोरोना महामारी के दौरान संभाली थी अपने घर की आर्थिक स्थिति

मुज़फ्फरनगर की इन महिलाओं ने कैसे कोरोना महामारी के दौरान संभाली थी अपने घर की आर्थिक स्थिति

ये वो महिलाएं हैं जो घर के काम के साथ-साथ या यूं कहे की घर के काम के बाद लग जाती है अपने काम पर। डबल शिफ्ट करने वाली इन महिलाओं की मेहनत, आशा और ज़ज्बे की वजह से तालाबंदी के बाद पति के काम बंद होने की वजह से घर में रहकर किए जाने वाले अपने काम से अपने परिवार की आय का मुख्य जरिया बनीं।

धीरे-धीरे दुनिया कोविड-19 की महामारी से उबर रही है। लोगों की जिंदगी पटरी पर वापस लौट रही है। तालाबंदी और रोज़गार के बंद का असर सबसे ज्यादा मध्यवर्गीय, गरीब लोगों पर पड़ा। रोज़ कमाकर खानेवाले परिवार के पुरुषों के काम के बंद होने के बाद उनकी आय पूरी तरह से बंद हो गई थी। ऐसे में चंद परिवारों को संकट से बाहर निकालने और घर की आर्थिक स्थिति को संभालने का काम किया उन महिलाओं ने किया जिन्हें घर से बाहर जाकर काम करने की अनुमति नहीं होती है। यह वे महिलाएं हैं जिन्होंने कुछ करने के ज़ज्बे को अपने भीतर से कभी खत्म नहीं होने दिया। जिन्होंने पितृसत्ता की पाबंदियों के बीच खुद की राह तलाश कर अपने काम की शुरुआत की।

इस लेख के माध्यम से हम बात करेंगे उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर ज़िले की उन कुछ महिलाओं के बारे में जिनका काम, कोरोना काल में परिवार की आय का मुख्य ज़रिया बना। जिनकी छोटी-छोटी बचत ने स्कूल में बच्चों की फीस भरी और परिवार के लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने में मदद की। यह वे महिलाएं हैं जो घर के काम के साथ-साथ या यूं कहे कि घर के काम के बाद लग जाती हैं अपने काम पर। डबल शिफ्ट करनेवाली इन महिलाओं की मेहनत, आशा और ज़ज्बे की वजह से लॉकडाउन के दौरान घर में रहकर किए जानेवाला इनका काम परिवार की आय का मुख्य ज़रिया बना।

मोती-कुंदन से संवारती अपना घरः सोनिया 

सोनिया कहती हैं, “मैं एक कस्बे में पली-बढ़ी बेटी हूं, मेरे लिए कायदे-क़ानून कुछ ज्यादा स़ख्त थे, वैसे आज भी हैं। घर से बाहर जाकर काम करने की मुझे कोई अनुमति नहीं है। लेकिन मैं हमेशा से कुछ अपना करना चाहती थी।” बुकरम के पीस पर तरह-तरह के मोती-कुंदन से डिजाइन बनाकर खुद ही उनको रिजेक्ट कर दोबारा बनाने में लगी सोनिया पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर की रहने वाली हैं। हमारे बीच बातचीत साथ-साथ जारी रहती है और वह अपना डिजाइन बनाने में लगी रहती हैं। उनका बचपन पास के ही कस्बे शामली (जब तक शामली ज़िला नहीं बना था) में बीता है। दसवीं तक पढ़ाई करनेवाली सोनिया को बचपन से ही डिजाइनिंग का शौक था। उनका कहना है, “मैं अक्सर घर में पुरानी पड़ी चीजों से सजावट के सामान बना दिया करती थी, अपने कपड़े भी खुद ही बनाया करती थी। अट्ठारह साल की उम्र के बाद मेरी शादी हो गई थी। उसके बाद जल्द ही बच्चे हो गए। घर की जिम्मेदारियों के बीच मेरे मन में यह ख्याल रहता था कि मुझे कुछ करना है।”

सोनिया उन लोगों में शुमार हैं जो कभी भी हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ सकती इसलिए वह आज एक कुशल कारीगर हैं। वह भगवान की मूर्तियों की पोशाक बनाने का काम करती हैं। सोनिया कहती हैं, “मैं काम करना चाहती थी जिससे घर में पैसे आए, शौक भी पूरे हो और बचत भी कर सकें। लेकिन घर से बाहर जाकर काम करने की इज़ाजत नहीं थी। पति या परिवार के अन्य लोग नहीं चाहते थे कि घर से बाहर जाकर कुछ भी काम करें।” 

पोशाक तैयार करती सोनिया

इसके बाद साल 2016 में सोनिया के काम करने के ज़ज्बे ने एक फैसला लिया और मूर्तियों की पोशाक के कुछ डिजाइन बनाकर बाज़ार में सैंपल के तौर पर दिखाने गई। इस शुरुआत को याद करते हुए वह कहती हैं, “मैं और मेरे पति कई दुकानों पर गए लेकिन किसी ने हमारा काम पसंद नहीं किया। मुझे काम करना था, घर पर रहकर ही मैंने ड्रेस डिजाइन करने का काम दुकानदारों के लिए शुरू कर दिया। अपने डिजाइन बनाए लेकिन वह रिजेक्ट हो गए लेकिन इस बीच मुझे मार्किट के सिस्टम की समझ बनी। कैसे काम करना है और किस तरह अपने डिजाइन को हम बेच सकते हैं और ऑर्डर ले सकते हैं। अपने आस-पड़ोस में कई लोगों ने मेरी बनाई पोशाकें खरीदनी शुरू कर दी थीं। इस तरह से मेरे मन में हौसला आया और मैंने कमाना भी शुरू कर दिया।”

साल 2018 आते-आते सोनिया की राह कुछ आसान होनी शुरू हो गई और पहली बार उन्हें खुद के डिजाइन की गई पोशाकें बनाने का मौका मिला। वह कहती हैं, “मैंने वन वुमन आर्मी के तौर पर काम करना शुरू किया। कपड़ा, कच्चा सामान खरीदने से लेकर, कंटिग सब मुझे करना था बस सप्लाई का काम मेरे पति देखते थे।” सोनिया रोज सुबह जल्दी ऊठकर बच्चों को स्कूल भेजने, घर की साफ-सफाई और खाना बनाने के काम के बाद दस बजे तक मैं मशीन पर बैठ जाती हैं। उसके बाद शाम को छह-सात बजे तक लगभग काम करती हूं। इस बीच वह रसोई का भी काम साथ में करती रहती हैं।

कोरोना महामारी और तालाबंदी की वजह से सोनिया के पति की दुकान बंद हो गई और आय का ज़रिया पूरी तरह से रुक गया था। उनके अनुसार शुरू में तो ज्यादा परेशानी नहीं हुई लेकिन उसके बाद बाजार, काम ठप्प होने की वजह से पति की आय शून्य हो गई। ऐसी स्थिति में सोनिया की आय घर के खर्चों को निकालने में सफल साबित हुई। उनकी बचत से उन्होंने बच्चों की फीस भरी, राशन खरीदा और हर छोटी-बड़ी ज़रूरत को पूरा करने का हौसला बनाए रखा।

पोशाक बनाने का सामान निकालती सोनिया

सोनिया का कहना है, “मेरा काम जमना शुरू ही हुआ था और कोविड के बाद लॉकडाउन लग गया था। यह इत्तेफाक कह सकते है या नसीब कि बाज़ार बंद होने से पहले ही शुरू के कुछ ऑर्डर पूरा करने के बाद पहली बार दिल्ली जाकर सामान लाए थे। तालाबंदी में मैं अपना काम कर रही थी लेकिन मेरे पति का काम पूरी तरह से बंद हो गया था। बच्चों के स्कूल बंद थे। शुरू में आप कह सकते हैं कि लॉकडाउन एक नयी बात लगी थी लेकिन जल्दी ही इससे पैदा होनेवाली परेशानी दिखनी भी शुरू हो गई थी। पति की दुकान बंद थी तो आय का ज़रिया सिर्फ मेरा काम और बचत ही रह गई थी। उस समय पहली बार बेहतर तरीके से महसूस हुआ कि मेरा काम इस घर को चलाने में कितना महत्व रखता है। बेटियों की स्कूल की फीस भरने के लिए चिंता थी लेकिन ऑर्डर की डिलीवरी से ये संतुष्टि थी कि हां मैनेज कर लेंगे। कुछ ग्राहक हैं जिन्होंने लॉकडाउन में ऑर्डर दिए उसे पूरा किया। इसके अलावा मैंने कपड़े के मास्क सिलने का भी काम किया इस तरह मैं लगातार काम करती रही और पैसा भी घर में आता रहा।” 

सोनिया आज एक सफल कारीगर हैं। अपने बल पर उन्होंने घर से ही अपना उद्योग शुरू कर दिया है। अपने घर की आय का आज वह मुख्य ज़रिया हैं। यही नहीं अपने काम की वजह से उन्होंने आस-पड़ोस की कई महिलाओं को भी थोड़ा-थोड़ा काम देने की कोशिश की है। हमसे बात करते-करते सोनिया ने एक पोशाक तैयार कर ली। सोनिया काम और जीवन को लेकर आज भी कई चुनौतियों का सामना कर रही हैं लेकिन अपने कमाने और बच्चियों को शिक्षित करने के लेकर वह खुश हैं। 

ख्वाहिशों से संवारती जिंदगीः सुधा

खुद अच्छे से संवरना, औरों को संवारने का शौक ही सुधा की जिंदगी की ख्वाहिश है। जिंदगी ने ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ख्वाहिशों को जीने का मौका दिया और उन्होंने लपक लिया। सिकेड़ा गांव (ससुराल) की सुधा हमेशा से चाहती थीं कि वह ब्यूटीशन का कोर्स करें। आज वह अपने गांव में एक ब्यूटीपार्रल और जनरल स्टोर चलाती हैं। शादी से पहले ही वह ये काम सीखना चाहती थीं लेकिन उनके मायके के गांव रसूलपुर से शहर आने-जाने की सुविधा बेहतर नहीं होने की वजह से वह कर नहीं पाई।

इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई करनेवाली सुधा की शादी साल 2007 में हो गई थी। उसके बाद घर-परिवार की जिम्मेदारियों और दो बच्चों के जन्म के बाद सुधा ने दोबारा अपनी चाहत को पूरा करने के लिए परिवार से इज़ाजत मांगी। इस पर उनका कहना हैं, “मैं हमेशा से ब्यूटी पार्लर का काम करना चाहती थी। फिर शादी के बाद परिवार और ज़रूरतों से लगा कि काम करना चाहिए जिससे आमदनी भी हो और घर भी रहे। जब परिवार बढ़ा तो पैसे तंगी रहने लगी थी। पति का काम भी अच्छा नहीं चल रहा था। उसके बाद मैंने सोचा कि कुछ करना चाहिए। ब्यूटी पार्लर का काम सीखने की इच्छा मेरी बहुत पहले से थी तो मैंने इसे ही करना चुन लिया था। शुरू में कोर्स करने के लिए जब घर से बाहर जाती थी परेशानी होती थी। घर में सबको लगता था कि घर का काम छोड़कर बाहर चली जाती है। (हंसते हुए) सुसराल तो ससुराल ही होता है। पहले यहां गांव में ही थोड़ा सिखा उसके बाद शहर जाकर कुछ महीने ब्यूटी पार्लर का काम सिखा और फिर घर में ही अपना काम करना शुरू कर दिया।”

सुधा और उनके पति मिलकर अपने-अपने हिस्से की मेहनत कर अपने परिवार को पाल रहे हैं। सुधा घर के काम, ब्यूटी पार्लर चलाने, पति की आटा-चक्की संभालने के अलावा करोना में खेत में गेहूं काटने में भी मदद करती हैं। इस पर उनका कहना है, “मेरे किसी भी काम करने में मेरे पति ने बहुत सहयोग दिया है। मैं भी उनका देती हूं। हमारी आटा-चक्की है। रोज रात को खाना- बनाने के बाद जब उन्हें कुछ और काम रहता है तो मैं चक्की पर आटा भी पीस देती हूं।” 

अपने ब्यूटी पार्लर में बैठी सुधा

कोविड के समय के बारे में सुधा का कहना है कि कोविड पर काम का असर तो बहुत पड़ा और वह सबका ही हुआ है। महिलाएं ऐसा करती थीं कि फोन पर ही पूछ लिया करती थी कि हमें ये काम करवाना है आ जाए क्या? फिर वह घर आकर आईब्रो या कटिंग करा लिया करती थीं। यह है कि धीरे-धीरे कुछ न कुछ चलता रहता था। जैसे कुछ शादियां भी हुई हैं तो बुकिंग लेते थे, घर पर ही पार्लर होने का फायदा है कि दुल्हन को तैयार कर देते थे। इसके अलावा पैसे को लेकर बहुत कुछ एडजस्ट करना पड़ा। कोरोना का लंबा दौर था, शुरू में चीजें संभाल ली थीं लेकिन धीरे-धीरे कमाई पर असर पड़ने के दौरान हाथ में बचत के नाम पर कुछ नहीं बचा है। 

आगे वह कहती हैं, “अपना पैसा बहुत महत्वपूर्ण है। घर में चार चीजें मेरी कमाई से बढ़ी हैं। अपने शौक पूरा करने के लिए मैं किसी पर निर्भर नहीं हूं। मुझे हमेशा से संजने-संवरने का शौक था वो मैंने अपनी कमाई से पूरा किया। हमारे घर में दस रुपये हैं उसे पंद्रह करने में मैंने हमेशा कोशिश की है। बहुत अच्छा लगता है जब किसी को ज़रूरत होती है और हम उसकी मदद कर सकते हैं। खुद की कमाई का एक रुपया भी बहुत बड़ा लगता है और हिम्मत लाता है।” 

जितना देखा, उतना सीख लियाः कविता

बेटियों की माँ, घर की कमज़ोर आर्थिक स्थिति और खुद पर भरोसा ये तीन बातें कविता की जिंदगी का सबसे अहम बिंदु हैं। आज से करीब पांच साल पहले गाँव में ही अपने घर में सिलाई करने वाली कविता कक्षा आठ तक पढ़ी हैं। महज 17 साल की उम्र में उनकी शादी हो गई थी। शादी के बाद तीन बेटियां उसके बाद उनकी पढ़ाई और ज़रूरतों को पूरा करने के लिए उन्होंने घर पर रहकर ही सिलाई मशीन पर कपड़े सिलने शुरू कर दिए। कविता का कहना है कि उन्होंने कहीं से सिलाई की कोई ट्रेनिंग नहीं ली है, जब वह छोटी थीं तो उनकी ताईजी घर में सिलाई करती थीं। उन्हें देखकर उन्होंने कपड़ा सिलना सीख लिया था। वह उनसे पूछ लेती थी वह बता देती थी और इस तरह देख-देखकर कविता को सिलाई आ गई।

तस्वीर में अपनी बेटियों के साथ कविता

वह कहती हैं, “बेटियां माँ की ही जिम्मेदारी होती हैं। उन्हें कुछ चाहिए होता है तो वे माँ से ही मांगती हैं। फिर बच्चियां बड़ी हो गई और घर की स्थिति भी ज्यादा अच्छी नहीं थी तो लगा कुछ काम करके घर में दो पैसे आ जाए तो बेहतर रहेगा। इनके पापा जलेबी बनाने का काम करते हैं। आप सोच सकते हैं इस गाँव में हम केवल जलेबी बनाकर कितना कमा सकते हैं। तो शुरू में मैंने स्वेटर बुनाई का काम किया लेकिन वह यहां ज्यादा चला नहीं। फिर उसके बाद सिलाई पर कपड़े सिलने शुरू कर दिए और आज आस-पास के कई गांवों के भी सिलाई के कपड़े मेरे पास आते हैं।” 

काम करने की शुरुआत को लेकर कविता ने अपने घर में विरोध का भी सामना किया था। ख़ासकर उनके मायके के परिवार में इसका बहुत विरोध किया गया। इस पर उनका कहना है, “मुझे सिलाई करना अच्छा लगता है। और सच में शुरू में मैंने अपने शौक, बेटियों की छोटी-छोटी ज़रूरतों को देखकर काम करना शुरू किया था उसके बाद तो जब घर में पैसे आने लगते हैं तो ससुरालवाले तो मांग ही लेते हैं। आज भी मुझे याद है कि मेरी पहली कमाई नौ सौ कुछ रुपये थे और उसी दिन हमारा सलेंडर खत्म हो गया था। मेरी पहली कमाई से रसोई गैस खरीदी गई थी। अब देखो अपनी कमाई तो बहुत मायने और खुशी देती है इसलिए ये सब मेरे लिए भी ख़ास है।”   

अपना सिलाई का काम करती कविता

कोविड के दिनों को याद करते हुए कविता का कहना है कि बहुत मुश्किल समय था। इनका काम पूरी तरह बंद हो गया था। लगभग छह महीने तक तो एक भी दिन दुकान नहीं लगी। लोगों में डर भी था तो बाहर का खाना भी पूरी तरह बंद कर दिया था। ऐसे में हालात घर की पहले से कमजोर आर्थिक स्थिति और ख़राब हो गई थी। बचत के नाम पर ज्यादा कुछ हमारे पास नहीं था। वैसे भी इनकी कोई बंधी तनख्वाह तो है नहीं जितना बिकता है उतना एक दिन में कमा लेते हैं। कभी ज्यादा कभी कम। लॉकडाउन और उसके बाद तक भी सब ऐसा ही चलता रहा। उस समय पूरी तरह से मेरे काम पर घर का खर्च चल रहा था। लेकिन लोगों ने भी बहुत सपोर्ट किया। कई परिवारों ने लगातार कपड़े भी सिलवाएं। उस दौरान गांव में कई परिवारों ने एक साथ दस-दस सूट सिलवाएं। कई गांव की लड़कियां लॉकडाउन में अपनी ससुराल से यहां आई हुई थीं, तो उन्होंने अपने बहुत से कपड़े तैयार करवाएं थे। इस तरह से मैं लगातार सिलाई करती रही। आस पास के गांव से भी सिलाई के ऑर्डर आते रहे और थोड़े में ही सही मगर हम अपना काम चलाते रहे।

आगे वह कहती हैं, “हालांकि कोविड के दौरान काम लेते डर भी लगता था लेकिन अगर काम न लेते तो घर में बच्चों को पालने में बहुत दिक्कत आती। कोविड में जब बाहर से कोई आता था तो दूर से ही कपड़ा ले लेती थी फिर उसे दो दिन तक धूप में सुखाती थी। उसके बाद जाकर मैं सिलाई करना शुरू करती थी। ये सब ज़रूरी भी था क्योंकि जितना डर बाकी चीजों को लेकर था उतना ही डर बीमारी होने का भी था। लेकिन सब धीरे-धीरे चलता रहा।”

मेहनत की बेमिसाल पहचानः मोसिना

गाँव में कोई काम हो तो कुछ परिवारों में एक नाम लोगों की ज़बान पर आ जाता हैं मोसिना। पशुओं का दूध निकलवाना, चारा काटना, बर्तन, साफ-सफाई, भूसे की पल्ली सिलना, जैसे ना जाने कितने कामों के लिए लोग मोसिना को पर निर्भर हैं। मोसिना वैसे तो सिकेड़ा गांव में ही आंगनवाड़ी साहयिका के तौर पर काम करती हैं लेकिन केवल 3000 हजार रुपये के वेतन से आज के ज़माने में घर न चलने की वजह से वह साथ में कई दूसरे काम भी करती हैं। स्कूल जाने से पहले और लौटकर शाम तक वह कई घरों में छोटे-मोटे काम और साथ में भूसे की पल्ली सिलने का काम करती हैं। रोज सुबह चार बजे उठनेवाली मोसिना शाम के छह बजे तक कुछ न कुछ करती रहती हैं। मोहिना एक सिंगल मदर है। वह अपने मायके मे रहती हैं और उनके दो बेटे हैं जो पास के ही दूसरे कस्बे में रहते हैं। अपने बेटों को आर्थिक रूप से सहयोग देने के लिए मोसिना कड़ी मेहनत करती हैं। उनका एक बेटा विकलांग है जिस वजह से उसके परिवार का खर्च का ज्यादातर भार वह खुद ही उठाती हैं।

पशुओं के लिए चारे काटने का काम करती मोसिना

जिंदगी में तमाम उतार-चढ़ाव होने के बाद मोसिना ने कभी हार नहीं मानी। वह ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं है लेकिन आत्मविश्वास से लबरेज़ हैं। उनका कहना है, “जो कुछ भी हुआ शायद वक्त को ये मज़ूर था। मैं दुख मनाती तो मेरे बच्चे भूखे मर जाते। मैंने काम करना ठाना। आज शायद कहीं और होती अगर पढ़ी-लिखी होती लेकिन तब मां-बाप ने पढ़ाया नहीं और जल्दी शादी कर दी थी। उसके बाद मैंने यहीं गांव में ट्यूशन लगाकर अंग्रेजी और गणित सीखा था। अब तो गुड मॉर्निंग, मेय आई कमिंग, थैंक्यू सब जानती हूं। स्कूल में तो अबतक 2700 रुपये ही मिलते थे। अभी 300 रुपये बढ़े है, इतनें में तो गुजारा नहीं होता है। साथ में कोई कुछ काम करा लेता है कोई कुछ और भूसे की पल्ली बनाने का काम भी करती हूं। इससे कुल मिलाकर रहने-खाने का खर्चा निकल जाता है।”

कोविड की परेशानियों के बारे में मोसिना का कहना है, “बहुत बुरा दौर था। मेरे दोंनो बेटे मजूदरी करते हैं। जिस दिन काम उस दिन पैसा, वरना कोई कमाई नहीं। सब कुछ बंद होने के बाद उनका काम और पैसा दोंनो बंद हो गए थे। ऐसे में मैं जो भी कमाती वह उनको दे दिया करती थी। तालाबंदी में भूखे रहने तक की नौबत बेटों के परिवार के सामने आ गई थी। कोरोना के डर से लोगों ने अपने घर के काम बंद करा दिए थे। मैं कई घरों में पशुओं का दूथ निकालने का काम करती हूं उस समय सबने बंद करा दिया था। अलग से मेहनत करके जो भी कमाया जाता था वह बंद हो गया था लेकिन आंगनवाडी वाले 2700 रुपये आते थे। उसने घर और बच्चों को पालने में योगदान दिया है। एक टाइम भरपेट खाया तो दूसरे समय कम खाकर भी काम चलाया। इस तरह की परेशानियों का सामना करते हुए वो समय भी बीत गया।”  


(सभी तस्वीरें पूजा राठी द्वारा उपलब्ध करवाई गई हैं)

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