इतिहास महिलाओं को इतिहास में जगह दिलाती गर्डा लर्नर की महान रचना- क्रिएशन ऑफ पैट्रियार्की

महिलाओं को इतिहास में जगह दिलाती गर्डा लर्नर की महान रचना- क्रिएशन ऑफ पैट्रियार्की

गर्डा के अनुसार पितृसत्ता 2500 सालों के दौरान बनाई गई थी। पितृसत्ता अपने शुरुआती रूप में परिवार की इकाइयों से मिलकर के पुरातन राज्य के रूप में सामने आई। उस दौरान राज्यों में मूल्यों, रीति रिवाज़ों, कानूनों, सामाजिक भूमिकाओं और प्रमुख रूपकों के माध्यम से लैंगिक भूमिकाएं स्थापित की गईं।

अब तक पूरे इतिहास को पुरुषों के नज़रिये से गढ़ा और समझा गया है। इतिहास में हमेशा पुरुष का प्राधान्य और बोलबाला रहा है। जानबूझकर लंबे समय तक महिलाओं के योगदान, उनके एक विशिष्ट नज़रिये और शोषण को हमेशा नाकारा गया है। लंबे समय तक महिलाओं के नज़रिये से वंचित इतिहास ने पितृसत्ता की संरचनाओं को और भी मज़बूत और जड़ करने का काम किया है। इसका नतीजा हमें महिलाओं का पुरुष के अधीन होने की स्थिति के रूप में देखने को मिला है।

महिलाओं के इतिहास के दायरे और महत्व को परिभाषित और विश्लेषण करने की ज़रूरत को गर्डा लर्नर की कृति ‘The creation of patriarchy’ ने पूरा किया। इन्होंने एक तर्क पर आधारित नारीवाद के क्षेत्र में बेहद महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनकी यह रचना पश्चिमी सभ्यता पर आधारित है। ऐतिहासिक विश्लेषण के माध्यम से गर्डा लर्नर ने महिलाओं की स्थिति को समझने का प्रयास किया। यहां लर्नर की इस कृति के ग्यारहवें अध्याय की व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है जिसमे इतिहास के संदर्भ में क्रम दर क्रम महिलाओं की स्थिति का वर्णन दिया गया है।

लर्नर ने महिलाओं की निम्न परिस्थिति की सार्वभौमिकता की संकल्पना को चुनौती देने का काम किया है। विश्व में महिलाओं के निम्न स्तर को सार्वभौमिक मानने का नज़रिया हमें इतिहास में मिलता है जिसे इतिहासकार द्वारा प्राकृतिक या ईश्वरीय वरदान बनाने का काम किया गया। लर्नर कहती हैं कि पितृसत्तात्मक प्रभुत्व का ऐतिहासिक उद्भव रहा है। इस प्रभुत्व को विभिन्न ऐतिहासिक परिस्थितियों के अध्ययन के जरिये ही समझा जा सकता है।

गर्डा लर्नर, तस्वीर साभार : NYT

पितृसत्ता का इतिहास और उदय

गर्डा के अनुसार पितृसत्ता 2500 सालों के दौरान बनाई गई थी। पितृसत्ता अपने शुरुआती रूप में परिवार की इकाइयों से मिलकर के पुरातन राज्य के रूप में सामने आई। उस दौरान राज्यों में मूल्यों, रीति रिवाज़ों, कानूनों, सामाजिक भूमिकाओं और प्रमुख रूपकों के माध्यम से लैंगिक भूमिकाएं स्थापित की गईं। तब महिलाओं की कामुकता और उनकी प्रजनन क्षमता को एक वस्तु के नज़रिये से देखा गया, जिसे आदान-प्रदान में इस्तेमाल किया जा सके। 

समाज शिकारी संग्रहकर्ता से कृषि समाज में बदलने लगा। विवाह संबंधों और प्रजनन को बढ़ावा देने के लिए कृषि समाज के लोगों ने अपने घर की महिलाओं को अपनी पारिवारिक और शारीरिक ज़रूरतों को पूरा करने के उद्देश्य से आदान-प्रदान को बढ़ावा देना शुरू किया। जनजातियों के बीच संघर्ष चलता था तो संघर्ष में हारी हुई जनजातियों की महिलाओं को यौन सेवाओं के लिए गु़लाम बनाया गया और उनके बच्चों को मेहनत के काम के लिए इस्तेमाल किया जाता था। गर्डा लिखती हैं कि ज्यादा से ज्यादा दासों या गुलामों को रखना रईस पुरुषों और योद्धाओं के लिए एक ‘स्टेटस सिंबल’ की बात हुआ करती थी। सबसे पुरानी मानव सभ्यता मेसोपोटामिया में, गरीब तबके के लोग अपनी बेटियों को दहेज (ब्राइड प्राइस) पर शादी या वेश्यावृत्ति में बेच देते थे। अगर कोई गरीब आदमी कर्ज नहीं चुका पाता था तो उसकी पत्नी और बच्चों को दास के रूप में गु़लाम बना लिया जाता था।

उनका यह अध्याय पितृसत्ता के साये में उपजे नस्वालद और लिंगवाद की चर्चा करता है। उस दौरान नस्वालद और लिंगवाद के आधार पर वर्ग भेद स्थापित किए जाते थे। इतिहास में लगभग सभी व्यवस्थाओं जैसे पुरातन, सामंती समाज, 19वीं सदी के यूरोपीय बुर्जुआ और उपनिवेशी व्यवस्था में दास समाज का अस्तित्व था। इन सभी व्यवस्थाओं की हाशिये की महिलाओं जिन्हें दास बनाया गया था उनकी कामुकता और प्रजनन क्षमता के वस्तुकरण (कमॉडिफिकेशन) का प्रमाण दिखाई पड़ता है।  

उस समय समाज में भी महिला और पुरुष दोनों लिंगों में वर्ग देखने को मिलते हैं। इन दोनों लिंगों के तहत इन वर्गों की प्रकृति समाज में इनकी ज़रूरत पर आधारित हुआ करती थी। पुरुषों के वर्ग उत्पादन के साधनों पर आधारित थे और महिलाओं के वर्ग यौन संबंधों पर आधारित थे। महिलाओं का वर्ग स्वतंत्रता के अलग-अलग स्तर के अनुसार हुआ करता था, जैसे दास महिलाएं, दास उपपत्नियां और मुक्त उपपत्नियां। ज़्यादातर महिलाएं पुरुषों की सुरक्षा पर निर्भर थीं। स्वतंत्र और स्वावलंबी महिलाओं की संख्या न के बराबर थी।

गर्डा इस बात की ओर ज़ोर देती दिखाई पड़ती हैं कि लंबे समय तक महिलाओं को यह विश्वास दिलाया गया है कि उनका कोई इतिहास नहीं है। पुरुष प्रधान इतिहास की छाया में ऐसी कोई परंपरा नहीं थी जो महिलाओं की स्वतंत्रता और स्वायत्तता की पुष्टि कर सके।

किताब के इस अध्याय में पुरातन समाज की एक और विशेषता हमें यह देखने को मिलती है कि यहां समाज के संसाधनों को परिवार के पुरुष मुखिया को दिया जाता था और पुरुष मुखिया उन संसाधनों को अपने परिवार में बांटा करता था। इस तरह की जो परिवार की संरचना थी, वह राज्य की व्यवस्था को भी दर्शाती है जिसका स्वरूप पितृसत्तात्मक था। इस व्यवस्था को ‘पितृसत्तात्मक प्रभुत्व’ कहा जाता है। परिवार में वर्ग वंशानुक्रम ‘लिंग’ के आधार पर हुआ करता था जैसे छोटे लड़के अस्थायी रूप से अधीनस्थ रहते थे और वहीं लड़कियां और महिलाएं पूरे जीवनभर के लिए अधीनस्थ रहती थीं। विवाह के बाद भी बेटियों की स्थिति निम्न ही बनी रहती थी।

महिलाओं को कैसे खुद को कमतर मानने के लिए किया गया ‘ट्रेन’

गर्डा अपनी किताब में बताती हैं कि उस समय महिलाओं के ज़हन और के जीवन से जुड़े हर क्षेत्र में पितृसत्ता के विचार को और अधिक गहरा करने के लिए ‘लिंग मतारोपण’(जेंडर इंडॉक्ट्रिनेशन) की सहायता ली जाती थी। लिंग मतारोपण महिलाओं पर विचारों या विश्वासों को थोपने के इरादे को संदर्भित करता है। यह इस विचार पर आधारित है कि लिंग मानदंडों और रूढ़िवादी सोच को पूरा करने के लिए महिलाएं कैसी होनी चाहिए। उन्हें किस तरह का व्यवहार करना चाहिए और उन्हें कैसे काम करना चाहिए। इसी के साथ शिक्षा की पहुंच महिलाओं तक नहीं थी इसीलिए उनके साथ आर्थिक और राजनीतिक भेदभाव बड़े स्तर पर किया जाता था। इस तरह मनोवैज्ञानिक रूप से महिलाओं को अपने प्रति हीनता के विचार को अपनाने के लिए उन्हें एक तरह से ट्रेन किया जाता था।

पुरातन समाज की धार्मिक व्यवस्थाओं का विश्लेषण करते हुए गर्डा बताती हैं कि पुरुषों ने ग्रीक दर्शन, यहूदी ईसाई धर्म और परंपराओं को अपने शब्दों में समझाया है जो पूरी तरह पुरुषों पर केंद्रित थे। उन्होंने नारी शक्ति को प्रतीकों (सिंबल) के रूप में बताया जैसे मातृत्व की देवी, प्रजनन की देवी आदि।

गर्डा इस अध्याय में इस बात की ओर ज़ोर देती दिखाई पड़ती हैं कि लंबे समय तक महिलाओं को यह विश्वास दिलाया गया है कि उनका कोई इतिहास नहीं है। पुरुष प्रधान इतिहास की छाया में ऐसी कोई परंपरा नहीं थी जो महिलाओं की स्वतंत्रता और स्वायत्तता की पुष्टि कर सके। पुरुष समाज के अन्य लोगों के साथ मिलजुल कर अपनी पहचान बना सकते थे, लेकिन महिलाओं की स्थिति पुरुषों के अधीन ही बनी हुई थी। वे बचपन से ही पारिवारिक संरचनाओं से जुड़ी होती थीं। यह सोच इन महिलाओं के लिए एकजुट होने को असंभव बना देती थी। अगर महिलाएं परिवार की प्रतिष्ठा या इज़्जत के खिलाफ़ जाकर कोई काम को अंजाम दे देती थीं तो ऐसी महिलाओं को सजा देने या उनकी हत्या तक करने में अक्सर परिवार की अन्य महिलाएं भी साथ दिया करती थीं।

धर्म और पितृसत्ता

पुरातन समाज की धार्मिक व्यवस्थाओं का विश्लेषण करते हुए गर्डा बताती हैं कि पुरुषों ने ग्रीक दर्शन, यहूदी ईसाई धर्म और परंपराओं को अपने शब्दों में समझाया है जो पूरी तरह पुरुषों पर केंद्रित थे। उन्होंने नारी शक्ति को प्रतीकों (सिंबल) के रूप में बताया जैसे मातृत्व की देवी, प्रजनन की देवी आदि। वहीं, पुरुषों को शक्तिशाली और आदर्श रूप में चित्रित किया। इसे गर्डा लर्नर ने ‘पुरुष केन्द्रित भ्रांति’ (एंड्रोसेंट्रिक फैलेसी) माना। वह बताती हैं कि महिलाएं धार्मिक कामों और परंपराओं को बनाए रखने में भाग लिया करती थींं।

औरतें शैक्षिक रूप से वंचित तो थीं ही पर उन अवसरों और परिवेश से भी वंचित थीं जिनके तहत वे अपनी सोच और विचारों को व्यक्त कर सकें। महिलाओं को अपने विचारों को विकसित करने के लिए शिक्षा, मित्रों और बड़ों के साथ बातचीत और निजी समय की ज़रूरत होती है पर उन्हें इस तरह का माहौल नहीं मिलता था। हालांकि, पुरुषों पर ऐसी कोई पाबंदी नहीं थी। महिलाओं को केवल बच्चों के पालन-पोषण और परिवार की सेवा में लगाए रखा जाता था। कुछ महिलाएं जानबूझकर अकेले या अन्य महिला के साथ रहना चुनती थीं या चाह रखती थीं। ऐसी महिलाओं को हाशिए पर रखा जाता था।

महिला लेखकों और कलाकारों के काम को पुरुष इतिहासकारों ने लगातार किनारे किया। लेकिन वे फिर भी काम करती रहीं जिनके काम का मौजूदा दौर में तेजी से मूल्यांकन किया जा रहा है। ऐसी औरतें अक्सर उस परंपरा के खिलाफ होती थीं जो रूपकों, प्रतीकों और मिथकों की एक नई ‘महिला भाषा’ देते हैं। वह आदम और ईव के जन्म और पतन की बाइबिल की व्याख्या की आलोचना करती हैं और देवी और चुड़ैल के बंटवारे को अस्वीकार करती हैं। पुरुष इतिहास की शुरुआत तीसरी  सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व में हुई थी लेकिन ज्यादातर महिलाओं का इतिहास 19वीं सदी से शुरू होता है। इस तरह गर्डा लर्नर के नारीवादी इतिहास को ‘नारीवादी चेतना’(फ़ेमिनिस्ट कांशसनेस) को पैदा करने में एक ज़रूरी दस्तावेज़ माना है। वह कहती हैं कि महिलाओं जैसी आधी मानव जाति की निम्न स्थिति को प्राकृतिक नहीं माना जा सकता है। 


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