इंटरसेक्शनलजेंडर एक श्रमशील वर्ग के श्रम का अपमान है सोशल मीडिया पर घरेलू कामगार औरतों पर बनता कॉन्टेंट

एक श्रमशील वर्ग के श्रम का अपमान है सोशल मीडिया पर घरेलू कामगार औरतों पर बनता कॉन्टेंट

समाज का एक बड़ा हिस्सा गरीबी, भुखमरी और बेरोज़गारी से बेहाल है। उनका जीवन लगभग हर दिन कठिन होता जा रहा है और ऊपर बैठा मध्यवर्गीय, निम्नमध्यवर्गीय चेतना इसी वर्ग से सारी नैतिकता और मनुष्यता की आस रखती है।

एक बल का समाज, ताकत और विशेषाधिकार का समाज हमेशा अपने से कमज़ोर और हाशिये के लोगों पर चुटकुले बनाता है। उनकी गालियां, किस्से, कहावतें इत्यादि हाशिये के वर्ग का अपमान करना,उनका मज़ाक बनाना उनके लिए सामान्य है। विशेषाधिकार प्राप्त हमेशा हाशिये के वर्गों, जातियों को आपराधिक प्रवृत्ति से जोड़कर देखता है। अगर हम सदियों पीछे जाकर देखें तो इस मनोवृत्ति के हजारों, लाखों दस्तावेज़ मिलगें। यह मनोवृत्ति बहुत अलग-अलग तरह से जनमानस में आई है। जैसे गालियां, किस्से, गीत, चुटकुले, कहावतें आदि। इनमें हाशिये के मनुष्यों का मज़ाक बनाया गया है, उनका अपमान किया गया है।

यह अमानवीयता कहां से आती है? यह एक सुविधा और भोग में डूबे समाज की अपनी मनोविकृती से आती है और जिसका शिकार बनता है श्रम और संघर्ष के जीवन को जीता धारा का पिछड़ा वर्ग। कोई भी सामाजिक बुराई हो जब उसे बाज़ार भुनाना शुरू करता है तो वह बुराई बहुत तेजी संक्रमित होती है और अपनी सतह की सबसे ऊंची धुरी पर आ जाती है। पूंजी सामन्ती समाज की सोच को नये कलेवर में सजाकर उपभोक्ताओं तक पहुंचाती है जिसमें अभिजातीयता का टैग लगा होता है और वह ऊपर से सुसंस्कृत दिखती रहती है।

इलाहाबाद में अभी कुछ दिन रहकर मैंने घरेलू कामगार लड़कियों, स्त्रियों से बातचीत की। इसमें श्रम के अधिकार,स्वास्थ्य और शिक्षा के मुद्दे शामिल थे। बातचीत में मैंने उनके जीवन से जुड़ी एक नयी और भयावह समस्या को देखा उन्होंने बताया कि इन दिनों सोशल मीडिया पर घरेलू श्रम करती स्त्रियों और लड़कियों पर खूब सारे वीडियो, रील्स, मीम्स आदि बन रहे हैं। इसमें उन्हें सेक्स ऑब्जेक्ट की तरह पेश किया जाता है। चूंकि अब सारा देश मोबाइल में ही आंख गड़ाए हुए है तो उसमें जो चीजें खूब चल रहीं हैं ज़ाहिर है कि उनके असर में भी है।

बातचीत के दौरान उन औरतों ने बताया कि कभी-कभी हालत ऐसे हो जाते हैं कि कम उम्र के किशोर भी उनसे सेक्स की मांग रखने लगते हैं या कभी-कभी बैचलर लड़के आदि सीधे उनसे कहते हैं कि उनके यहां आकर काम करो साथ में भद्दा मजाक करते हुए अपनी सेक्सुअल इच्छाएं भी सामने रख देते हैं। साथ ही उन्होंने बताया कि जब वे किसी घर में काम कर रही हैं तो फोन में चल रहे ऐसे कॉन्टेंट के प्रभाव में आया व्यक्ति उन्हें उस कहानी के एक चरित्र की तरह देख रहा होता है।

ये सब बहुत अजीब स्थिति होती जा रही है। जिन घरों में ये कामगार महिलाएं काम करती हैं उन घरों की मालकिन उन्हें शंका और घृणा से देखती हैं कि उनके घर के मर्द को ये कामवाली ‘फांस’ लेगी क्योंकि वे मध्यवर्गीय स्त्रियां भी उसी मनोवृत्ति का शिकार हैं, उनके भी हाथ में फोन है और वही वीडियो और रील्स उनके भी फोन में दिखते हैं। बातचीत के दौरान कई सारी औरतों ने सीधे कहा कि उनको हमेशा डर लगता है कि उनकी कामवाली बाई उनके पति को फांसकर धन-संपत्ति हड़प न ले। एक मध्यवर्गीय चेतना के स्त्री-पुरुष अपनी प्रवृत्ति की तरह ही व्यवहार करेगें। उनसे उससे ऊपर उठकर सोचने-समझने की बहुत आस नहीं रखी जा सकती। नहीं तो इतनी सीधी सी बात उन स्त्रियों को क्यों समझ में नहीं आती कि शोषण और उत्पीड़न वहीं से आता है जहां ताकत है, जहां बल है। जो कमज़ोर है, हाशिये पर है वह उत्पीड़न करने की जगह पर नहीं होता। अगर कहीं कुछ ऐसा हो भी रहा है तो ऊपर बैठा है सवाल उससे होना चाहिए न कि कमज़ोर को ही कठघरे में खड़ा कर दिया जाना चाहिए।

सुविधाओं और सहूलियत में जहां मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय जीवन एकदम से उछलकर सुख बटोरना चाहता है। वहीं, समाज का एक बड़ा हिस्सा गरीबी, भुखमरी और बेरोज़गारी से बेहाल है। उनका जीवन लगभग हर दिन कठिन होता जा रहा है और ऊपर बैठा मध्यवर्गीय, निम्नमध्यवर्गीय चेतना इसी वर्ग से सारी नैतिकता और मनुष्यता की आस रखती है।

आज जब घरेलू कामगार स्त्रियों को बाज़ार इस तरह से दिखा रहा है तो जाहिर है कि उसका इसमें लाभ है और लाभ उसका कैसे होगा जब ये खूब देखा जाएगा। ये खूब देखा जाना ही एक ऐसे समाज की प्रवृत्ति है जो सामन्ती है जिसकी सोच मर्दवादी है। ये वही धारणा है जो पहले की सामंतवादी धारणा थी। सामंती समाज श्रमिक महिलाओं को इसी दृष्टि से देखता था और ये उसी सोच का बाज़ार। आज सोशल मीडिया के ज़रिये बाज़ार अपनी तरह से इन मनोविकृतियों को ग्लैमराइज़ करके परोस रहा है। अब यह ज़ाहिर सी बात है कि बाज़ार की अपनी जो प्रवृत्ति है और वह उसके अनुसार व्यवहार कर रहा है। वह समाज की यौन कुंठा को क्रूर और भयावह दिशा की तरफ ले जा रहा है।

समाज में दमित यौन इच्छाएं हमेशा अपने से कमज़ोर लोगों पर ही उजागर होती रही हैं। हमारे समाज के ऐसे तत्व जो स्त्रियों को वस्तु समझते थे, अपनी यौन कुंठा निकालने का साधन समझते थे वह समाज में हमेशा से मौजूद थे। फर्क इतना था कि यह थोड़ा सा ढका-तुपा था, जहां निगाह नहीं जाती थी। मसलन औरतों और लड़कियों के उत्पीड़न के लिए बाज़ार ने एक और सुरक्षित जगह दिखाई कि देखो यहां सब किया जा सकता है या ये स्त्रियां इसीलिए बनी होती हैं, इसीलिए घरों में काम करने आती हैं। ये बात बाज़ार में बाकायदा एक ट्रेंड बन चुकी है कि घरेलू कामगार स्त्रियों के साथ कुछ भी किया जा सकता है। वीडियो में दिखाया जाता है कि वे जानबूझकर काम करते हुए अपनी साड़ी सरका देती हैं या ब्लाउज के हुक खोल देती हैं।  इस तरह की हरकतें करके वे मर्दो को फंसाती हैं। ये वीडियो एक मर्दवादी समाज को जहां आनंद और उत्तेजना से भर देते हैं, वहीं अपने पति की चिंता में स्त्रियों को आशंका से भर देते हैं।

इन वीडियो आदि में एक ओर जहां घरेलू कामगार स्त्रियों को आसानी से उपलब्ध बताया जाता है, वहीं दूसरी ओर उन्हें बेहद चालाक, धूर्त और अपराधिक प्रवृत्ति से भी जोड़कर दिखाया जाता है। कुछ घरेलू शहरी स्त्रियों से बात करते हुए उन्होंने बताया कि वे बहुत से ऐसे घरों को जानती हैं जहां घरेलू कामगारों ने मालिक को फंसाकर उनसे अर्थ हासिल किया है। इस तरह की कहानियों को सुनकर गोदान उपन्यास का एक प्रसंग याद आता है। गाँव के ब्राह्मण मातादीन की प्रेमिका सिलिया जो कि दलित जाति से आती है, मातादीन के खलिहान में काम कर रही है। उस दौरान एक भिखारी वहां भीख मांगने के लिए आ जाता है सिलिया सोचती है कि वह तो लगातार श्रम कर रही है और उसके बदले कुछ ले भी नहीं रही है इन लोगों से तो  इस लिहाज से वह थोड़ा सा अनाज भिखारी को दे ही सकती है। यह सोचकर वह आंचल में अनाज भरकर भिखारी को दे ही रही थी कि उसके प्रेमी मातादीन का पंडित पिता दातादीन देख लेता है और सिलिया को गाली देते हुए पीट देता है। यह एक सामंती समाज की मर्दवादी सोच है वो स्त्री से सबकुछ लेते हुए कुछ भी नहीं देना चाहता। उसका श्रम, उसकी देह, सब पर वह अपना अधिकार समझता है।

अक्सर देखा गया है गाँव, घर, मुहल्ले में कि कोई पुरुष किसी स्त्री का आजीवन उपभोग करता है और अपनी संपत्ति से उसे कुछ भी नहीं देता ये एक सत्ताधारी समाज का सदियों का चलन है। अगर कुछ अपवाद को छोड़ दें तो हम देख सकते हैं हर शोषक बिरादरी वह चाहे जेंडर हो या वर्ग या जाति, अपने शोषितों से लगभग एक जैसा बर्ताव करती है। देश में उदारीकरण के आने से भारतीय समाज कई तरह बहुत गहरे प्रभावित हुआ। सोशल मीडिया और मुक्त बाज़ार ने इतने ज्यादा असर से इस पूरे समाज को पकड़ा कि कई सारी गैरज़रूरतें बढ़ी और मनुष्य संवेदना में लगातार गिरावट आती चली गई।

सुविधाओं और सहूलियत में जहां मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय जीवन एकदम से उछलकर सुख बटोरना चाहता है। वहीं, समाज का एक बड़ा हिस्सा गरीबी, भुखमरी और बेरोज़गारी से बेहाल है। उनका जीवन लगभग हर दिन कठिन होता जा रहा है और ऊपर बैठा मध्यवर्गीय, निम्नमध्यवर्गीय चेतना इसी वर्ग से सारी नैतिकता और मनुष्यता की आस रखती है। जिनका जीवन इतना कठिन होता है कि जिस दिन मजदूरी न करें उस दिन परिवार के साथ उन्हें भूखा रहना पड़ता सुविधा में डूबा समाज उन्हें अपराधी और धूर्त बेईमान बताता है।

जो कमज़ोर है, हाशिये पर है वह उत्पीड़न करने की जगह पर नहीं होता। अगर कहीं कुछ ऐसा हो भी रहा है तो ऊपर बैठा है सवाल उससे होना चाहिए न कि कमज़ोर को ही कठघरे में खड़ा कर दिया जाना चाहिए।

एक सर्वहारा समाज मे स्त्री दोहरी सर्वहारा होती है और आदिवासी या जनजाति स्त्री तिहरी सर्वहारा होती है समाज में जो व्यक्ति संस्था या जाति या वर्ग  मेहनतकश स्त्रियों को इस तरह ऑब्जेक्टिफाई करते हैं, उन्हें भोग्या की तरह पेश करते हैं वे सारे श्रम करते समाज के गुनहगार हैं उनके कारण श्रम करके अपना जीवन चलाने वालों के आत्मसम्मान को बहुत चोट पहुँचती है। वे सुविधा में डूबे लोग शायद नहीं जानते वे सबसे ज्यादा सम्मान के हकदार श्रम करते हाथों का अपमान कर रहे हैं।

गांवों, शहरों, कस्बों से करोड़ों स्त्री-पुरूष अपना देस छोड़कर महानगर जाते हैं कि उन्हें वहाँ रोजगार मिलेगा , जीवन जीने का अधिकार और एक सामान्य सुविधा का सम्मानित जीवन मिले इसलिए नहीं आते हैं कि उनके अपमान के आप नये-नये तरीके इजाद करें और उससे अपना मनोरंजन करें। किसी भी सभ्य और समावेशी समाज के लिए श्रमिक स्त्री को लेकर ये इसतरह की सोच शर्म का विषय है। श्रम करते लोगों के जीवन के साथ ये एक नयी तरह की क्रूरता है।


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