इंटरसेक्शनलजेंडर किशोरावस्था में लैंगिक संवेदनशीलता से परिचय कैसे ला सकता है सकारात्मक परिणाम

किशोरावस्था में लैंगिक संवेदनशीलता से परिचय कैसे ला सकता है सकारात्मक परिणाम

10 से 19 साल की उम्र एक बेहद नाज़ुक और गंभीर बदलाव का पड़ाव होती है। इस दौरान मिलनेवाली ट्रेनिंग और इससे सोच में होनेवाली दख़ल गैरबराबरी और भेदभाव के मुद्दे पर सकारात्मक परिणाम ला सकती है। यह वह पड़ाव होता है जब एक व्यक्ति अपने परिवार के सामने अपनी आज़ादी और स्वायत्तता की मांग रखने की शुरुआत करता है। लेकिन इसकी शुरुआत तभी मुमकिन हो सकती है जब वे बचपन से मिलनेवाली पितृसत्तात्मक कंडीशनिंग को दरकिनार करें।

नारीवाद क्या होता है? नारीवादी कौन होते हैं? इंटरसेक्सनैलिटी क्या है? लैंगिक समानता क्या है? इन सारे मुद्दों से मेरा पहला वास्ता कॉलेज के थर्ड ईयर में हुआ था। या यूं कहे कि इन मुद्दों की अकादमिक समझ कॉलेज में बनी। लेकिन इनसे जुड़े अनुभवों का सिलसिला तो हमारे पैदा होने के बाद से ही शुरू हो चुका था। लेकिन इन मुद्दों को अकादमिक स्तर पर पढ़ने-समझने और इन पर काम कर रहे/चुके थिंकर्स, फिलॉसफ़र्स को बतौर रेफरेंस इस्तेमाल करने का विशेषाधिकार देर से मिला। 

भारत की एक बड़ी आबादी ऐसे ही घरों और परिवेश से आती है जहां जेंडर, सेक्सुअलिटी, लैंगिक समानता, नारीवाद जैसी अकादमिक अवधारणाओं से उनका कोई वास्ता नहीं होता। हां, लेकिन इनसे जुड़े अनुभवों और संघर्ष की कमी जेंडर, जाति, वर्ग, यौनिकता, विकलांगता, धर्म आदि के आधार पर हाशिये की पहचान से आनेवाले लोगों के पास नहीं होती है। लैंगिक गैरबराबरी एक तरफ जहां हाशिये के जेंडर से आनेवाले लाखों-करोड़ों लोगों का शारीरिक, मानसिक और सामाजिक नुकसान करती है, वहीं दूसरी ओर यह सिसजेंडर-हेट्रोसेक्सुअल पुरुषों को कई तरीके के विशेषाधिकार और संसाधन मुहैया करवाती है।

एक पितृसत्तात्मक समाज में मेल-फीमेल (मर्द-औरत) की बाइनरी के तहत लैंगिक भूमिकाएं तय की हुई हैं। इन भूमिकाओं का बोझ बेहद छोटी उम्र से ही हम पर डाल दिया जाता है। इस बाइनरी के तहत ही हमारी परवरिश की जाती है। जो इस बाइनरी की तय भूमिकाओं के तहत ही व्यवहार करते हैं उन्हें यह पितृसत्तात्मक समाज ‘सामान्य’ होने की नज़रों से देखता है। जो इस बाइनरी को चुनौती देते हैं, इससे अलग हटकर व्यवहार करते हैं उन्हें ‘असमान्य’ के खांचे में डाल दिया जाता है।

इसका एक उदाहरण यह है कि हमारे घरों में हिंसा सहती औरतें अगर विरोध करती हैं तो उन्हें आमतौर पर यही सुनने को मिलता है कि घरेलू हिंसा उनके लिए एक उनकी दिनचर्या के हिस्से की तरह है। इसी तर्ज़ पर औरतों की कंडीशनिंग भी होती है। इसका दूसरा उदाहरण सुप्रीम कोर्ट में एलजीबीटी+ समुदाय शादी के अधिकार के लिए चल रही सुनवाई है। इस अधिकार के ख़िलाफ़ खड़ा पितृसत्तात्मक समाज लगातार यही दोहरा रहा है कि शादी सिर्फ एक हेट्रोसेक्सुअल मर्द और औरत के बीच ही मुमकिन है। यहां सरकार उसी पितृसत्तात्मक बाइनरी को मज़बूत करने के पक्ष में दलीलें देती नज़र आ रही है। 

लेकिन अगर जेंडर से जुड़े मुद्दों की पहचान, उनसे परिचय अगर किशोर उम्र से ही करवाए जाएं तो क्या इसके प्रभाव अलग हो सकते हैं? अगर इन मुद्दों को अकादमिक दुनिया के ‘गेटेड स्पेस’ से अलग, उस भाषा और माध्यम के ज़रिये लोगों तक पहुंचाया जाए जिसमें वे सहज हो तो क्या हमारा समाज लैंगिक रूप से एक बेहतर और अधिक संवेदनशील समाज बनने की संभावना रखता है? 

भारत की एक बड़ी आबादी ऐसे ही घरों और परिवेश से आती है जहां जेंडर, सेक्सुअलिटी, लैंगिक समानता, नारीवाद जैसी अकादमिक अवधारणाओं से उनका कोई वास्ता नहीं होता। हां लेकिन इनसे जुड़े अनुभवों और संघर्ष की कमी जेंडर, जाति, वर्ग, यौनिकता, विकलांगता, धर्म आदि के आधार पर हाशिये की पहचान से आनेवाले लोगों के पास नहीं होती है।

जेंडर बाइनरी को लेकर समझ बेहद छोटी उम्र से विकसित होने लगती है। लड़का-लड़की, मर्द-औरत की बाइनरी, उनका व्यवहार कैसा होगा, उनके कपड़े कैसे होंगे, उनके अधिकार कैसे होंगे, उन्हें कितनी आज़ादी मिलेगी, वे क्या पढ़ेंगे, उनकी सोच और गतिशीलता पर कितनी लगाम लगेगी आदि बातें छोटी उम्र से ही हमें सिखाई जाने लगती हैं। इस माहौल में बड़े होते बच्चों के ऊपर इन लैंगिक भूमिकाओं को निभाने का पितृसत्तात्मक दबाव होता है। यही दबाव और कंडीशनिंग उनकी आगे की ज़िंदगी की दिशा तय करने में एक अहम भूमिका निभाती है।

यह कंडीशनिंग निजी ज़िंदगी से होते हुए संस्थागत रूप ले लेती है। उदाहरण के तौर पर जिसकी परवरिश यह देखते हुए हुई कि घर की लड़कियों को बाहर जाकर काम करने का अधिकार नहीं है क्योंकि वे जेंडर के आधार पर दोयम दर्जे की नागरिक हैं, क्या ऐसे शख़्स आगे चलकर (अगर अनलर्निंग की प्रक्रिया से वे न गुज़रें) कार्यस्थल पर महिलाओं के बराबरी के अधिकारों की पैरवी करने की क्या संभावना रखते हैं? 

बचपन से दी जानेवाली पितृसत्तात्मक कंडीशनिंग उम्र के साथ मज़बूत होती चली जाती है। अगर इसी कंडीशनिंग को लैंगिक संवेदनशीलता के ज़रिये चुनौती छोटी ख़ासकर किशोरावस्था से ही दी जाने लगे तो बहुत हद तक मुमकिन है कि हम एक बड़ी आबादी को लैंगिक रूप से संवेदनशील बना पाएंगे। किशोरावस्था उम्र का वह पड़ाव होता है जहां हम युवा होने की ओर अपना पहला कदम बढ़ाते हैं। यह शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक के साथ-साथ सामाजिक तौर पर भी एक ट्रांजिशन का फेज़ होता है।

कई स्टडीज़ और रिपोर्ट्स बताती हैं कि किशोरावस्था में दी जानेवाली इन ट्रेनिंग्स का प्रभाव लंबे समय तक देखा जा सकता है। ये ट्रेनिंग्स पितृसत्तात्मक लैंगिक भूमिकाओं को चुनौती देने की ओर एक ज़रूरी पहल साबित हो सकती हैं।

“मैं ग्यारहवीं में था। तब हमारे स्कूल में ब्रेकथ्रू संस्था से जुड़े लोग आते थे लैंगिक संवेदनशीलता के मुद्दे पर क्लास लेने। तब मुझे लगता था कि ये लोग क्यों आ जाते हैं, हमारा वक्त बर्बाद करने, हमें पढ़ने नहीं देते।” यह मानना था सोनीपत के राकेश का जब ब्रेकथ्रू संस्था के लोग उनके स्कूल में जेंडर से जुड़ी क्लास लेने आते थे। वह आगे बताते हैं, “मैंने घर में हमेशा अपनी मां को पिटते देखा था। पापा ड्रिंक करके आते और उन्हें हर रोज़ पीटते। लेकिन फिर इस ट्रेनिंग के ज़रिये ही मुझे पहली बार प्रवीण सर जो हमारी क्लासेज़ लेने आते थे, उन्होंने मुझे लैंगिक हिंसा के मुद्दे के बारे में बताया। फिर मुझे लगा कि ऐसा तो हमारे परिवारों में ही होता है। तब मुझे लगा कि इससे जुड़ना एक सही फैसला होगा। फिर मैं तारों की टोली प्रोग्राम से जुड़ा। मैं मम्मी को कहता था कि आप क्यों हिंसा सह रहे हो तो उन्हें लगता था कि औरतों को पीटना तो मर्दों का हक होता है।”

राकेश, तस्वीर साभार: ब्रेकथ्रू
राकेश, तस्वीर साभार: ब्रेकथ्रू

किशोरावस्था में ब्रेकथ्रू की इस ट्रेनिंग के ज़रिये राकेश की यह समझ बनी कि उनके घर में जो हो रहा है वह ग़लत है और गै़रकानूनी है। लेकिन जब वह इस ट्रेनिंग का हिस्सा बनें तो सबसे पहला विरोध उनका उनके परिवार ने ही किया। शुरुआती दिनों को याद करते हुए राकेश बताते हैं, “मेरे हिसाब से तो ये ट्रेनिंग लड़के और लड़कियों दोंनो के लिए बेहद ज़रूरी है। मेरी मम्मी कहती थीं कि इसका फायदा क्या है, मैं क्यों जाता हूं इसमें। लेकिन मुझे पता था कि क्या फायदा है। ये ट्रेनिंग का ही फायदा था कि अब मैं अपने घर में होनेवाली हिंसा के बारे में बात करने लगा हूं। मैं बिना डरे अपने ताऊ और अपने बड़े भाई से इस बारे में बात करने लगा।” राकेश यहां जिस ट्रेनिंग का ज़िक्र कर रहे हैं, वह जेंडर के मुद्दे पर काम करनेवाली संस्था ब्रेकथ्रू द्वारा चलाई जाती है। इस ट्रेनिंग का केंद्र किशोर हैं जिन्हें हिंसा, लैंगिक संवेदनशीलता, असमानता, स्वास्थ्य आदि के मुद्दों पर बुनियादी ट्रेनिंग दी जाती है। 

हिंसा की पहचान में किशोरावस्था में मिलने वाली ऐसी ट्रेनिंग कैसे एक अहम भूमिका निभाती है इसका एक और उदाहरण हमें संजू के केस में देखने को मिला। हरियाणा के झझर की रहनेवाली संजू बताती हैं, “मैंने 18 साल की होने के बाद इस ट्रेनिंग में हिस्सा लिया था। परिवार में लैंगिक भेदभाव और हिंसा होती देखती थी तो हमेशा लगता था कि काश कोई मुझे बताता कि इन्हें रोका कैसे जा सकता है। ब्रेकथ्रू की ट्रेनिंग का हिस्सा बनने के बाद मुझे लगा कि इसके ज़रिये मैं अपने परिवार में होनेवाली हिंसा को रोक सकती हूं। जेंडर पर धीरे-धीरे समझ बनने लगी। मेरी चार बहने हैं तो जेंडर को लेकर जो समझ मेरी बनी उसमें ब्रेकथ्रू की इस ट्रेनिंग की बड़ी भूमिका रही है।”

किशोर उम्र में लैंगिक संवेदनशीलता की ट्रेनिंग की अहमियत पर बात करते हुए ब्रेकथ्रू की डेप्युटी डायरेक्टर ऋतंभरा जो इस प्रोग्राम को भी लीड करती हैं बताती हैं, “अगर हम जेंडर नॉर्म्स बदलना चाहते हैं तो सिर्फ एक दो इंटरवेंशन से ये बदलाव नहीं आएगा। इसे बार-बार करना होगा। साथ ही सिर्फ किशोरों के साथ काम करने से नहीं होगा इसमें अभिभावकों, समाज, फ्रंटलाइन वर्कर्स को भी शामिल करना है। इसमें बुनियादी बराबरी के अधिकारों जैसे लड़के-लड़की दोंनो को ही अधिकार है अपना करियर चुनने लेकर। हम एक जेनेरेशनल पॉइंट ऑफ यू से काम करते हैं। हमारी स्कूल की पढ़ाई में कई मुद्दे ऐसे होते हैं जिन पर न घर पर बातें होती हैं न स्कूल में। जैसे मेरे शरीर में क्या बदलाव आ रहे हैं, क्यों आ रहे हैं। तारों की टोली इन्हीं मुद्दों पर बात करता है, जिन पर आम तौर पर हमारे समाज में चुप्पी को तरजीह दी जाती है।”

जेंडर से जुड़े अलग-अलग मुद्दों पर ट्रेनिंग लेकर आज ये युवा अपने आस-पास के समाज को भी जागरूक कर रहे हैं। उनके लिए इन मुद्दों पर काम करने के तीन अलग-अलग चरण रहे हैं। पहला उन्होंने खुद को इस मुद्दे पर जागरूक किया, अकादमिक दुनिया की भाषा में कहें तो पूर्वाग्रहों और रूढ़ियों को अनलर्न किया।

कई स्टडीज़ और रिपोर्ट्स बताती हैं कि किशोरावस्था में दी जानेवाली इन ट्रेनिंग्स का प्रभाव लंबे समय तक देखा जा सकता है। ये ट्रेनिंग्स पितृसत्तात्मक लैंगिक भूमिकाओं को चुनौती देने की ओर एक ज़रूरी पहल साबित हो सकती हैं। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर की चंचल 14 साल की उम्र में ब्रेकथ्रू से जुड़ी। तब वह आठवीं कक्षा में पढ़ रही थीं। यह पूछने पर कि लैंगिक संवेदनशीलता पर होनेवाली इस ट्रेनिंग को उन्होंने अपने निजी जीवन में कैसे लागू किया वह बताती हैं, “यह ट्रेनिंग पहला मौका था मेरे लिए जब मुझे एहसास हुआ कि जेंडर के आधार पर हमारे साथ कितना भेदभाव होता आया है। शुरू-शुरू में बहुत चुनौतियों का सामना करना पड़ा। लोग, परिवार वाले कहते कि लड़की होकर इतना कैसे बोल सकती हो। बहुत बदलाव आया, ट्रेनिंग से पहले मैं खुद लैंगिक बराबरी जैसे मुद्दों के बारे में कुछ नहीं जानती थी। जैसे पीरियड्स के बारे में कोई कुछ नहीं बताता था। परिवार में इन मुद्दों पर कभी बात ही नहीं होती थी। इन मुद्दों पर बात करने में शर्म आती थी। लेकिन अब ऐसा बिल्कुल नहीं है।”

चंचल, तस्वीर साभार: ब्रेकथ्रू
चंचल, तस्वीर साभार: ब्रेकथ्रू

जेंडर से जुड़े अलग-अलग मुद्दों पर ट्रेनिंग लेकर आज ये युवा अपने आस-पास के समाज को भी जागरूक कर रहे हैं। उनके लिए इन मुद्दों पर काम करने के तीन अलग-अलग चरण रहे हैं। पहला उन्होंने खुद को इस मुद्दे पर जागरूक किया, अकादमिक दुनिया की भाषा में कहें तो पूर्वाग्रहों और रूढ़ियों को अनलर्न किया। इसके बाद अपने परिवार में इन मुद्दों पर एक विमर्श की शुरुआत की और आज वे अपने-अपने समुदाय के साथ मिलकर इन मुद्दों पर काम कर रहे हैं।

ऋतंभरा इस बात पर ज़ोर डालते हुए कहती हैं, “जब आप इन मुद्दों पर काम कर रहे हैं किशोरों के साथ तो ये किशोर अपने आप में एक सफर तय करते हैं। अगर कोई इस तरह की जर्नी से निकलकर आता है तो वे इन मुद्दों से खुद को बहुत ज्यादा जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। ऐसा सामुदायिक स्तर पर होता है। चूंकि वे खुद उसी परिवेश से आते हैं तो उनके लिए इन मुद्दों पर काम करना थोड़ा आसान हो जाता है। इसका एक अलग प्रभाव होता है। लेकिन इसके रिस्क भी हैं। उनके लिए तो ये रोज़ की जर्नी है न। हम इस पर अभी काम कर रहे हैं कि इसके नकारात्मक परिणाम क्या-क्या हो सकते हैं।” 

ट्रेनिंग में शामिल लड़कियां, तस्वीर साभार: ब्रेकथ्रू
ट्रेनिंग में शामिल युवा, तस्वीर साभार: ब्रेकथ्रू

कुछ ऐसी ही चुनौतियों का सामना किया हज़ारीबाग की काजल ने। अपनी ट्रेनिंग पूरी होने के बाद जब काजल खुद ब्रेकथ्रू के ज़रिये अपने समुदाय की लड़कियों के साथ मिलकर काम करने लगीं तो उन्हें ताने दिए जाते कि ज़रूर वह पैसों की एवज़ में लड़कियों का ग्रुप बनाकर कुछ कर रही हैं। काजल बताती हैं, “सबसे पहले इस ट्रेनिंग के ज़रिये बदलाव लाने की कोशिश मैंने अपने घर से की। ज़रूरी नहीं कि जैसा बदलाव हम चाहते हैं वैसा बदलाव ही आए। अक्सर अभिभावकों की तरफ से हमें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। लेकिन हमने उन्हें भी इस ट्रेनिंग का हिस्सा बनाया ताकि उन्हें पता चल सके कि उनकी लड़कियों के लिए यह कितना ज़रूरी है। लोग अब मुझे मेरे नाम और काम से जानते हैं।”

10 से 19 साल की उम्र एक बेहद नाज़ुक और गंभीर बदलाव का पड़ाव होती है। इस दौरान मिलनेवाली ट्रेनिंग और इससे सोच में होनेवाली दख़ल गैरबराबरी और भेदभाव के मुद्दे पर सकारात्मक परिणाम ला सकती है। यह वह पड़ाव होता है जब एक व्यक्ति अपने परिवार के सामने अपनी आज़ादी और स्वायत्तता की मांग रखने की शुरुआत करता है। लेकिन इसकी शुरुआत तभी मुमकिन हो सकती है जब वे बचपन से मिलनेवाली पितृसत्तात्मक कंडीशनिंग को दरकिनार करें। यहां भूमिका आती है अकादमिक दुनिया से इतर ज़मीन पर होनेवाली ट्रेनिंग्स की जो सबकी पहुंच में हो। धीरे-धीरे ही सही लेकिन कुछ टुकड़ों में इन मुद्दों की समझ हाशिये के लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की जा रही है।


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