समाजराजनीति समावेशी, समानता और सतत विकास के लिए अर्थव्यवस्था का नारीवादी होना क्यों है ज़रूरी

समावेशी, समानता और सतत विकास के लिए अर्थव्यवस्था का नारीवादी होना क्यों है ज़रूरी

नारीवादी अर्थशास्त्र लैंगिक भेदभाव को मिटाते हुए सभी जेंडर को समावेशी होने और उनके बीच आर्थिक समानता को बढावा देता है। किसी भी लैंगिक पहचान के व्यक्ति होने के नाते उनके द्वारा की जाने वाली गतिविधियों, व्यवहार, फैसले आदि अर्थव्यवस्था के स्वरूप पर प्रभाव डालते है।

पितृसत्तात्मक व्यवस्था में पुरूषों को प्रधान और परिवार का मुखिया माना जाता है जिस वजह से उसे परिवार का भरण पोषण एवं लालन-पालन के योग्य माना जाता है। क्योंकि बात जब पैसों की व्यवस्था, हिसाब-किताब की आती है तो इसे महिलाओं का विषय नहीं माना जाता है। कहा जाता है कि यह महिलाओं का काम नहीं है, लेकिन सामाजिक व्यवस्था में ताकत का एक पैमाना पैसा भी है। ऐसे में नारीवाद विचारधारा असमानता को मिटाने और महिला और पुरूष के समान अधिकार पर बल देती है जिसमें राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक क्षेत्र शामिल है। इसलिए अर्थव्यवस्था का नारीवादी होना बहुत आवश्यक है जिससे एक समावेशी, समानता और सतत विकास वाली अर्थव्यवस्था का ढांचा खड़ा किया जा सकता है। 

नारीवादी अर्थशास्त्र क्या है?

नारीवादी अर्थशास्त्र लैंगिक भेदभाव को मिटाते हुए सभी जेंडर को समावेशी होने और उनके बीच आर्थिक समानता को बढावा देता है। किसी भी लैंगिक पहचान के व्यक्ति होने के नाते उनके द्वारा की जाने वाली गतिविधियों, व्यवहार, फैसले आदि अर्थव्यवस्था के स्वरूप पर प्रभाव डालते है। महिला और पुरूष द्वारा किए जाने वाले घर और बाहर के कामों में समानता और अवैतनिक काम की भूमिका को महत्व देता है। अर्थव्यवस्था केवल उत्पादन और वितरण पर निर्भर नहीं करती बल्कि सहयोग और देखभाल पर भी निर्भर करती है और यह हितों को पहचानकर काम करती है। लेकिन मुख्यधारा का अर्थशास्त्र हमेशा पुरूषों द्वारा पैसे कमाने के लिए किए गए काम की प्रवृति को ही मानता आया है। 

भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर के तौर पर अबतक कोई महिला नहीं रही हालांकि कुछ महिलाएं डिप्टी गवर्नर के पद तक पहुंची हैं। 13वें और14वें वित्त आयोग में केवल एक महिला सदस्य इंदिरा राजारमन थीं। 

नारीवादी अर्थशास्त्र किसी भी जेंडर द्वारा किए गए वैतनिक और अवैतनिक काम को पहचानता है। नारीवादी अर्थशास्त्र आलोचना करता है कि अर्थशास्त्र महिलाओं के अनुभवों को अनदेखा करता है और इस बात पर प्रकाश डालता है कि महिलाओं को आर्थिक अनुशासन में समान प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाता है, जो बदले में वैज्ञानिक निष्कर्षों को प्रभावित करता है। इसलिए, नारीवादी अर्थशास्त्र इस तथ्य की ओर इशारा करता है कि वैज्ञानिक निष्कर्ष, सामान्य विचार और समग्र रूप से समाज की सभी शक्ति संबंधों से बनते हैं। उदाहरण के लिए लैंगिक संबंधों के विश्लेषण ने केवल धीरे-धीरे अर्थशास्त्र के क्षेत्र में प्रवेश किया है, भले ही महिलाओं का आंदोलन सदियों से सक्रिय रहा हो।

नारीवादी अर्थव्यवस्था और अर्थशास्त्र के बारे में व्याख्या करते हुए एक्सप्लोरिंग इकॉनोमिक्स में प्रकाशित एक लेख के अनुसार नारीवादी अर्थशास्त्र के भीतर महत्वपूर्ण लोगों के साथ-साथ उदार और रचनावादी अनुसंधान परंपराएं मौजूद हैं इसलिए इसे एक सुसंगत प्रतिमान नहीं माना जा सकता है। फिर भी, ये सभी दृष्टिकोण प्रजनन श्रम और देखभाल से संबंधित हैं। इसके अलावा, नारीवादी अर्थशास्त्र राज्य नीति, विज्ञान, भाषा, विकास और लिंग संबंधों के बीच संबंधों का विश्लेषण करता है। 

महिलाओं पर अवैतनिक कामों का भार 

तस्वीर साभारः Scroll.in

किसी भी व्यवस्था को सुचारू रूप से काम करने और विकास के क्षेत्र में आगे बढने के लिए लिंग, जातीय, धर्म, वर्ग आदि का समावेशी रूप से कार्य करना जरूरी है। जबकि पुरूष प्रधान समाज में पारिवारिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक क्षेत्र का प्रधान पुरूष को माना जाता है और आय-व्यय, काम का बंटवारा आदि उसके अनुसार ही किया गया है जिसमें बाहरी कार्य शामिल है। महिलाओं की भूमिका घरेलू काम, देखभाल, बच्चों की देखरेख की व्यवस्था के लिए तय की गई है जो अवैतनिक काम है। इन कामों में श्रम ज्यादा और कोई वेतन नहीं है जो उनके ऊपर जिम्मेदारियों के भार के तौर पर डाली जाती है। परिवार का मुखिया भले ही पुरुष हो लेकिन उनकी देखभाल की जिम्मेदारी उसके ऊपर नहीं है। वहीं अगर बाहरी काम में देखा जाए तो एक बडा लैंगिक अंतर देखने को मिलता है जिसमें महिलाओं के लिए अवसर कम प्रदान किए जाते हैं। 

महिलाओं को बाहरी कामों में ज्यादातर शिक्षा, नर्स, देखभाल, पाककला या ऐसे काम में अनुमति प्रदान करता है जो बाहरी तो है पर सत्ता से जुड़े नहीं है। इसके साथ ही भारत में अधिक श्रम वाले कामों में ज्यादातर महिलाएं भी शामिल हैं जैसे  खेती, मजदूरी आदि। लेकिन लैगिक पहचान की वजह से उन्हें और उनके श्रम को कम आंका जाता है। पुरुषों के मुकाबले उन्हें कम वेतन मिलता है उनकी आय सीमित रहती है, ऐसे में भी वे अपनी आय का प्रयोग घर खर्च और देखभाल में करती है और अपनी व्यवस्था को मजबूत करती है।

आर्थिक नीति बनाने की जिम्मेदारी पुरुषों की 

तस्वीर साभारः Devex

अधिकतर ग्रामीण समुदाय में देखा जाता है कि महिला सरपंच पद पर होने के बावजूद महिला को घर के कामों में लगाया जाता है और पुरूष उसकी जगह सत्ता का प्रयोग करता है। दुनिया की स्वास्थ्य देखभाल वाले क्षेत्र में बड़े पैमाने पर महिलाएं कार्यरत हैं लेकिन अधिकांश निर्णय लेने, राष्ट्रीय बजट, नीतियों का निर्माण पुरुषों के हाथों में हैं। इस तरह से प्रधानता की इस दौड में महिलाओं को सत्ता, राजनीति और आर्थिक व्यवस्था से दूर रखा जाता है। अगर महिलाएं मुख्यधारा में शामिल होगी तो वे रूढ़िवादी नीतियों को चुनौती देकर समानता की दिशा में कदम बढ़ाएगी।

स्क्रोल में प्रकाशित लेख के अनुसार अबतक भारत में केवल दो महिला वित्त मंत्री हुई हैं, इंदिरा गांधी और निर्मला सीतारमण। इनमें से केवल एक ही प्रशिक्षित अर्थशास्त्री हैं। उसी समय सीमा में केवल एक महिला वित्त सचिव सुषमा नाथ थी। वहीं भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर के तौर पर अबतक कोई महिला नहीं रही हालांकि कुछ महिलाएं डिप्टी गवर्नर के पद तक पहुंची हैं। 13वें और14वें वित्त आयोग में केवल एक महिला सदस्य इंदिरा राजारमन थीं। 

शोध के अनुसार अभी भारतीय जीडीपी में महिलाओं का योगदान 18 फीसदी है। महिलाओं को समान अवसर देकर भारतीय जीडीपी में साल 2025 तक 770 बिलियन यूएस डॉलर की धनराशि को जोड़ा जा सकता है।

अर्थव्यवस्था का नारीवादी होने की ज़रूरत 

समाज को अधिक समृद्ध, सशक्त और समावेशी बनाने के लिए जेंडर समावेशी होना और साथ ही  सभी के काम और व्यक्तित्व को महत्व देना महत्वपूर्ण है। महिलाओं का आर्थिक सशक्तिकरण गरीबी में कमी के साथ अधिक जुड़ा हुआ है क्योंकि महिलाएं भी अपनी कमाई का अधिक हिस्सा अपने बच्चों और समुदायों में निवेश करती हैं। महिलाओं का सशक्तिकरण उनकी आर्थिक स्थिति पर भी निर्भर करता है। अर्थव्यवस्था की नारीवादी विचारधारा से सतत विकास लक्ष्य की ओर बढ़ने में योगदान देने के साथ सकल घरेलू उत्पाद में भी वृद्धि हासिल की जा सकती है। 

भारतीय महिलाओं का अर्थव्यवस्था में योगदान 

इंडिया ब्रांड इक्विलिटी में प्रकाशित जानकारी के अनुसार पिछले कुछ दशकों से महिलाओं पेशेवरों की कार्यक्षेत्र में मौजूदगी बढ़ी हैं। उन्होंने भारत के आर्थिक विकास और समृद्धि में व्यापक योगदान दिया हैं। बीते वर्ष के आंकड़े के अनुसार भारत में कामकाजी उम्र की 432 मिलियन महिलाएं हैं जिनमें से 343 मिलियन असंगठित क्षेत्र में कार्यरत खंड के अन्तर्गत आती हैं। शोध के अनुसार अभी भारतीय जीडीपी में महिलाओं का योगदान 18 फीसदी है। महिलाओं को समान अवसर देकर भारतीय जीडीपी में साल 2025 तक 770 बिलियन यूएस डॉलर की धनराशि को जोड़ा जा सकता है। भारत दुनिया का तीसरा बड़ा स्टार्टअप इकोसिस्टम है। इतना ही नहीं यह दुनिया की तीसरा बड़ा यूनिकॉन समुदाय है फिर भी केवल 10 फीसदी महिलाएं ही संस्थापक हैं।    

आर्थिक सशक्तिकरण विशेष रूप से दलित, महिलाओं और हाशिये के लोगों के लिए अनिवार्य है। यह लोगों के लिए अपनी क्षमता का एहसास करने और अपने अधिकारों का प्रयोग करने के सर्वोत्तम तरीकों में से एक है। महिलाओं को ‘नए भारत’ के लिए सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरण परिवर्तन की पथप्रदर्शक कहा जाता है। भारत एक कृषि अर्थव्यवस्था है, 80% ग्रामीण महिलाएं कृषि क्षेत्र में कार्यरत हैं। कृषि क्षेत्र में ग्रामीण महिला कार्यबल को केवल सशक्त बनाने और मुख्य धारा में लाने से राष्ट्र के आर्थिक विकास की दिशा में एक आदर्श बदलाव लाया जा सकता है। यह खाद्य और पोषण सुरक्षा को बढ़ाएगा और गरीबी और भुखमरी को कम करेगा। देश के विकास का मार्ग महिलाओं और अन्य हाशिये के समुदाय की आर्थिक तरक्की पर ही निर्भर है।

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