प्रेमचंद के उपन्यास गोदान की विद्रोही स्त्रियां केवल स्मृति का संदर्भ ही नहीं एक जीवित प्रसंग हैं। उपन्यास ‘गोदान’ की ज्यादातर स्त्रियां विद्रोही हैं। इसमें ग्रामीण परिवेश की धनिया, सिलिया, झुनिया नोहरी और रूपा से लेकर शहर में रहने वाली मिस मालती, मीनाक्षी और चुहिया का चरित्र भी शामिल है। उपन्यास पढ़ते हुए लगता है कि ये सारी स्त्रियां अपने जीवन में संघर्ष करते हुए मुक्ति के लिए छटपटा रही हैं। इन विद्रोही प्रकृति की स्त्रियों में जो एक नैसर्गिक जीवटता के साथ प्रतिरोधी प्रवृत्ति दिखती है उसमें सबसे प्रमुख नाम है धनिया का। धनिया का चरित्र एक निम्नमध्यवर्गीय ग्रामीण स्त्री का चरित्र है जिसको तमाम समाजिक बंधनों में जकड़ा हुआ है लेकिन फिर भी वह बेहद संघर्षशील है।
जीवट, निर्भीक धनिया
धनिया गोदान उपन्यास के नायक होरी की पत्नी है। धनिया एक श्रमशील कर्मठ और हमेशा न्याय के पक्ष में बोलने वाली स्त्री है। व्यवस्था के प्रति उसका मन हमेशा विद्रोह करता रहता है। अपने विचारों में और व्यवहार में साम्यता को लिए हुए कभी-कभी धनिया एक बेहद विद्रोही, प्रगतिशील और आधुनिक स्त्री की तरह प्रतीत होती है। धनिया का बेटा जब विधवा लड़की झुनिया को लेकर घर आता है तो धनिया जिस साहस और मनुष्यता का परिचय देती है वह अद्भुत है। इस प्रसंग में उपन्यास का ये अंश धनिया के न्यायप्रिय मन को खूब उजागर करता है।
“हमको कुल प्रतिष्ठा इतनी प्यारी नहीं है महाराज कि उसके पीछे एक जीव की हत्या कर डालते। ब्याह नहीं किया था न सही, पर उसकी बांह तो पकड़ी है मेरे बेटे ने ही। किस मुंह से निकाल देती? वही काम बड़े-बड़े करते हैं मुदा उनसे कोई नहीं बोलता। उन्हें कलंक ही नहीं लगता। वही काम छोटे आदमी करते हैं तो उनकी मरजाद बिगड़ जाती है। नाक कट जाती है। बड़े आदमियों को अपनी नाक दूसरों की जान से प्यारी होगी। हमें तो अपनी नाक इतनी प्यारी नहीं है।” यहां धनिया एक बहुत बड़ा सामाजिक विद्रोह करते हुए एकदम से प्रगतिशील और आधुनिक स्त्री के रूप खड़ी है। साथ ही उसकी संवेदना और ज्ञान का स्तर भी उन सूक्ष्म सामाजिक वर्गीय भेदभाव को बखूबी समझता है जहां अमीर और गरीब की मर्यादा अलग-अलग दृष्टि से देखा जाता है।
इस तरह उपन्यास में कितने प्रसंग आते हैं जन धनिया परंपरा और अन्याय के विरुद्ध तनकर खड़ी हो जाती है। गाँव की दलित लड़की के लिए जिस तरह से धनिया खड़ी होती है ये धनिया के चरित्र की निर्भीकता और को बताता है। उपन्यास में इसकी एक बानगी है। “धनिया ने फटकार बताई! अच्छा रहने दो बड़े न्याय करने वाले बने हो! मर्द, मर्द सब एक होते हैं ! इसको मातादीन ने बेधर्म किया तब तो किसी को बुरा ना लगा, अब जो मातादीन बेधर्म हो गया तो क्यों बुरा लगता है। क्या सिलिया का धर्म, धर्म ही नहीं है। उसको रखते हैं पर नेक धर्मी बनते हैं। बड़ा अच्छा किया हरखू चौधरी ने ऐसे गुंडों की यही सजा है। तू चल सिलिया मेरे घर। न जाने कैसे बेदर्द मां-बाप है कि बेचारी की सारी पीठ लहूलुहान कर दी । तुम जाकर सोना को भेज दो मैं इसे लेकर आती हूं।”
यहां धनिया का चरित्र जात-पात के भेदभाव से एकदम ऊपर उठ जाता है। वह संसार में स्त्री जीवन की पीड़ा और कठिनाई को महसूस करती है। वह समाज में सदियों चलते आ रहे लैंगिक भेदभाव को ठोकर मार देती है सिलिया को अपने घर में जगह देती है और इस अन्याय के लिए तन कर खड़ी हो जाती है। ये स्त्रीजाति के लिए बहनापा भर की बात नहीं है ये मेहनतकशों और शोषितों को साथ खड़े होने का संदेश भी है।
दोहरे शोषण का सामना करती सिलिया
इसी तरह उपन्यास की दूसरी प्रमुख पात्र है सिलिया। इसका जीवन चरित्र आज भी स्त्री जीवन के लिए प्रासांगिक बना हुआ है। धनिया के ही गाँव की स्त्री है सिलिया जो एक हाशिये की जाति की लड़की है। जिसका प्रेम-प्रसंग गोदान उपन्यास में एक बहुत बड़ी सामाजिक क्रांति की नींव भी रखता है। सिलिया का ब्राह्मण मातादीन से प्रेम और फिर एकदिन एक साथ होना, एक जड़ व्यवस्था पर कड़े प्रहार के साथ स्त्री की प्रकृति उसके प्रेम और अधिकार का विमर्श भी है।
गोदान उपन्यास में सिलिया का पूरा चरित्र उसका जीवन उसकी यातना सब पढ़ते हुए भारतीय स्त्री की दशा पर निराला की कविता की पंक्ति जैसे साकार हो उठती है, “देखकर कोई नहीं/देखा मुझे उस दृष्टि से/जो मार खा रोई नहीं।” सिलिया गाँव के दलित समुदाय की लड़की है जिसके कारण वह समाज में दोहरे शोषण का सामना करती है। समाज में अपनी जातिगत और आर्थिक स्थिति के कारण वह पंडित दातादीन की बेगार मजदूर है। स्त्री होने के कारण वह उसके बेटे मातादीन द्वारा शोषित। सिलिया का दोहरा दोहन समाज में स्त्री की दोहरी सर्वहारा भूमिका की शिनाख्त का एक प्रत्यक्ष प्रमाण भी है। इस संदर्भ में शोषक वर्ग के ढीठपन का आलम ये है कि उपन्यास में सिलिया के दोहरे शोषण को गाँव का ब्राह्मण दातादीन शास्त्र सम्मत भी बताता है। दातादीन कहता है कि यह प्रथा आदिकाल से चली आई है और इसमें कोई लज्जा की बात नहीं और फिर उसका तो सिलिया से जितना पार होता है उतना ब्राम्हण कन्या से क्या होगा। सिलिया अकेली तीन आदमियों का काम करती है और रोटी के सिवा बहुत हुआ तो साल में एक धोती दे दी।
उपन्यास के स्त्री चरित्रों में सिलिया का चरित्र मुझे बहुत महत्वपूर्ण इसलिए भी दिखता क्यों कि समाज में आज भी स्त्री की स्थिति कमोबेश ऐसी ही दिखती है। स्त्री का यौन और शारीरिक शोषण जैसे भारतीय पितृसत्तात्मक समाज का जन्मसिद्ध अधिकार है। स्त्री मन की जिस चेतना के स्तर पर सिलिया खड़ी है वहां बहुत सी त्रासदियां हैं। शारीरिक शोषण और यौन शोषण के अलावा भी सिलिया पितृसत्तात्मक व्यवस्था की बनाई हुई श्रेष्ठ स्त्री-चरित्र के मोह से निकल नहीं पाती है। इतनी निर्दयता और अन्याय के बाद भी वह मातादीन को ही अपना सबकुछ मानती है। वह मातादीन को स्वामी पति और रक्षक की भूमिका में देखती है। वह भारतीय पारंपरिक व्यवस्था में स्त्री की सती छवि में कैद सी रहती है। जिस व्यवस्था में पितृसत्ता और स्त्री-पुरुष का संबंध इतना स्त्रीघाती है कि स्त्री का तन और मन लेकर भी बदले में कुछ नहीं देना चाहता।
गोदान का ये एक दृश्य उस मर्दवादी व्यवस्था की अनंत शोषक प्रवृत्ति को एकदम से उघाड़ कर रख देता है। “दुलारी सहुआइन अपना लेना वसूल करती फिरती थी सिलिया उसकी दुकान से होली के दिन दो पैसे का गुलाबी रंग लाई थी। अभी तक पैसे नहीं दिए थे। इसलिए के पास आकर बोली क्यों रे सिलिया महीना भर रंग लाए हो गया। अभी तक पैसे नहीं दिए मांगती हूं तो मटक कर चली जाती है। आज मैं बिना पैसे लिए ना जाऊंगी। मातादीन चुपके से सरक गया था। सिलिया का तन और मन दोनों लेकर भी बदले में कुछ ना देना चाहता था । सिलिया उसकी निगाह में केवल काम करने की मशीन थी और कुछ नहीं। उसकी ममता को वह बड़े कौशल भुनाता रहता था। सिलिया ने आंख उठाकर देखा तो मातादीन गायब था बोली चिल्लाओ मत सहुआइन दो की जगह चार ले लो।अब क्या जान लोगी मैं मरी थोड़े ही जाती थी। उसने अंदाज से कोई शेर भर अनाज ढेर में से निकालकर सहुआइन के आंचल में डाल दिया था।
उसी वक्त मातादीन पेड़ की आड़ से झल्लाया हुआ निकला और सहुआइन का आंचल पकड़कर कहा अनाज सीधे रख दो सहुआइन कोई लूट नहीं है। फिर उसने लाल आंखों से देखकर सिलिया को डांटा। किस से पूछ कर दिया तूने! तू कौन होती है मेरा अनाज देने वाली! सहुआइन ने अनाज ढेर में डाल दिया। सिलिया हक्का-बक्का होकर मातादीन का मुंह देखने लगी। ऐसा जान पड़ा जिस डाल पर वह निश्चिंत होकर बैठी हुई थी वह टूट गई। वह नीचे गिरी जा रही है। खिसीआए हुए मुंह से आंखों में आंसू भर सहुआइन से बोली तुम्हारे पैसे दे दूंगी आज मुझ पर दया करो। सहुआइन ने उसे दयाद नेत्रों से देखा और मातादीन को धिक्कार भरी आंखों से देखती हुई चली गई। तब सिलिया ने अनाज ओसाते हुए आहत गर्व से पूछा, तुम्हारी चीज में मेरा कुछ अख्तियार नहीं है? मातादीनने आंखें निकाल कर बोला नहीं, तुझे कोई अख्तियार नहीं है ।काम करती है तो खाती है जो तू चाहे कि खा भी लुटा भी तो यह यहां न होगा। अगर तुझे यहां परता न पड़ता पड़ता हो कहीं और जाकर काम कर। मजदूरों की कमी नहीं सेंत में नहीं लेते खाना कपड़ा देते हैं।”
आज भी घर-परिवार, समाज में यही शोषण स्त्रियों का हो रहा है। स्त्री अगर अपने हक-अधिकार की बात करती है तो समाज आज भी इसी तरह उसे प्रताड़ित और लांछित करता है। मातादीन घोर शोषक प्रवृत्ति का मनुष्य है लेकिन उसके लिए सिलिया के मन में आस्था दिखती है यही आस्था स्त्रियों के लिए हमेशा से घातक रही है। इससे निकलकर ही स्त्री की दृष्टि साफ और चेतनाशील बनती है। लेकिन सिलिया के भीतर अंतर्विरोध भी है और यही अंतर्द्वंद्व उसे एकदिन अपनी गरिमा और अस्मिता की पहचान भी करवाता है। जिस समय सिलिया की बिरादरी के लोग मातादीन का धरम भ्रष्ट करते हैं उसी प्रसंग के बाद सिलिया के भीतर अपनी गरिमा का बोध दिखता है, ‘”मातादीन ने लकड़ी उठाई और बाप के पीछे पीछे घर चला। सिलिया भी उठी और लंगड़ाती उसके पीछे हो ली। मातादीन ने पीछे फिर कर कठोर स्वर में कहा मेरे साथ मत आ। मेरा तुझ से कोई वास्ता नहीं। निष्कासित करवा कर भी तेरा पेट नहीं भरता।”
सिलिया ने निर्भीकता के साथ उसका हाथ पकड़कर कहा वास्ता कैसे नहीं। गांव में तुमसे धनी ,तुमसे सुंदर , तुमसे ज्यादा इज्जतदार लोग हैं मैं उनका हाथ क्यों नहीं पकड़ती। तुम्हारी यह दुर्दशा ही आज क्यों ही हुई और इसी अंश के अंत मे सिलिया नेअपने पूर्ण अधिकार की बात की उसने कहा अब तुम्हारे गले में पड़ गई हूं उसे तुम लोग चाहो नहीं छोड़ सकते। और ना मैं तुम्हें छोड़कर कहीं जाऊंगी मजदूरी करूंगी भीख मांगूँगी लेकिन तुम्हें नहीं छोडूंगी। सिलिया अंत में मजबूत स्त्री के जिस संस्करण में दिखती है वो नयी स्त्री की संरचना है जिसमें वो अपना ही नहीं अपने साथी पुरुष को भी मुक्ति के रास्ते पर लाकर खड़ा कर देती है। क्योंकि एक सामूहिकता का जीवन जीते हुए उसे पता है कि मुक्ति अकेले की नहीं होती । उसने इसी गाँव में होरी जैसा पुरुष भी देखा है जो स्त्री को मनुष्य समझता है उनके अधिकार और तकलीफ़ को जानता है।
होरी के सांत्वना भरे शब्द को सुनकर सिलिया कहती है “दादा मैंने तो किसी को दयावान नहीं पाया! कैसे कहा पंडित ने कि तुमसे मेरा तुमसे कोई वास्ता नहीं । ऐसा इसलिए करते हैं समझते होंगे इस तरह अपने मुंह की लाली रख लेंगे। लेकिन जिस बात को दुनिया जानती है उसे कैसे छुपा लेंगे। मेरी रोटियां भारी है न दें। मेरे लिए क्या मजदूरी अभी करती हूं तब भी करूंगी । सोने को हाथ भर जगह तुम ही से मांगी तो क्या तुम ना दोगे। यहां होरी अपने मनुष्यता के सम्बंध को सहेजता दिखता है लेकिन धनिया की तरह निर्भीक नहीं है धनिया कहती है, “जगह की कमी है बेटी तू चल मेरे घर होरी ने कहा बुलाती तो है लेकिन पंडित को जानती नहीं! धनिया निर्भीक स्वर में कहा बिगड़ेंगे तो एक रोटी बेसी खा लेंगे और क्या करेंगे। मैं कोई उनकी दबैल नहीं हूं। उसकी इज्जत ली, बिरादरी से निकलवाया। अब कहते हैं मेरा तुझ से कोई वास्ता नहीं है। आदमी है कि कसाई। उसी नीयत का आज फल मिला है पहले नहीं सोच लिया था। तब तो बिहार करते रहे अब कहते मुझसे कोई वास्ता नहीं।”
धनिया का चरित्र जितना उज्ज्वल और निर्भीक दिखता है उतना उपन्यास में और किसी स्त्री का नहीं नज़र नहीं आता। लेकिन चेतना की अपनी यात्रा होती है इसलिए अंततः सिलिया का पूरा जीवन चरित्र एक बड़े सामाजिक आंदोलन की तरह प्रगट होता है। जिस स्वालम्बन और आत्मनिर्भरता के साथ वो उसी गाँव में रहने का निर्णय लेती है । वो एक प्रेम में पड़ी कोमल स्त्री का अपने दायरे से निकल कर मुक्ति की तरफ बड़ा कदम है। आज भी स्त्रियों की चेतना की यात्रा ऐसे ही चलती दिखती है। गोदान उपन्यास के स्त्री-विमर्श को लेकर आलोचक वीरेंद्र यादव लिखते हैं, “प्रेमचंद गोदान में नारी का कोई एक मॉडल न प्रस्तुत करके नारी विमर्श का जो व्यापक परिपेक्ष्य प्रस्तुत करते हैं वही भारतीय समाज का नारी यथार्थ है। जो आज भी प्रासंगिक है। महत्वपूर्ण यह है कि यह सब प्रेमचंद तब कर सके थे जब ना तो नारी मुक्ति की कोई मुखर चेतना थी और ना कोई संगठित नारी आंदोलन।”
लेकिन स्त्रीमुक्ति की चेतना को लेकर यह बात थोड़ी सी सपाट लगती है क्योंकि अगर लोकगीतों का इतिहास खंगाला जाए तो स्त्रियां तो जाने कब से प्रतिरोध कर रही हैं। वहां भले स्त्रियों में कोई संगठित आंदोलन की चेतना नहीं थी लेकिन शिक्षा और अधिकार से कोसो दूर उनको रखने बावजूद भी वो अपने साथ हो रहे अन्याय को समझती रहीं और अपने लोकगीतों में,अपने क़िस्सों में लगातार दर्ज करती रहीं। गोदान उपन्यास की स्त्रियों को पढ़ते हुए और आज स्त्रियों के साथ लगातार हो रही हिंसा को देखकर लगता है कि ये समाज जितना स्त्री-विरोधी सौ साल पहले था आज पूंजी और बाज़ार के समय में अपनी मूल प्रकृति के साथ उतना ही स्त्रीघाती हुआ है।