संस्कृतिकिताबें मुझे चाँद चाहिएः स्त्री के आजीवन संघर्ष की दास्तान

मुझे चाँद चाहिएः स्त्री के आजीवन संघर्ष की दास्तान

वर्षा एक प्रतिष्ठित अभिनेत्री है लेकिन विरोधी पक्ष उसे बदनाम करने की कोशिश भी करता है तो शरीर और यौनिकता के ही आधार पर न कि उसके काम पर आधार पर। उसका सारा काम धरा का धरा रह जाता है।

जब कोई कहे ‘मुझे चाँद चाहिए’, तो इसका अर्थ क्या होता है? ज़ाहिर है कि यह अभिधा में नहीं कहा जा रहा है। किसी के लिए भी इसका तात्पर्य चाँद सी ऊँचाइयों को पा लेने से हो सकता है, लेकिन एक स्त्री के लिए इसका सबसे पहला अर्थ होगा अपनी पहचान बना पाने की चाहत, उसके बाद ऊँचाई छूने न छूने की बात आती है। सुरेंद्र वर्मा के लिखे उपन्यास ‘मुझे चांद चाहिए’ के शीर्षक से ऐसा प्रतीत होता है कि किसी बच्चे को चाँद पाने की लालसा है। लेकिन जैसे ही हम इस किताब में प्रवेश करते हैं तो ‘कालीगुला’ के वाक्यांश से सामना होता है जिसमें एक वयस्क व्यक्ति इस दुनिया से ऊबकर अपनी खुशी की तलाश में है। 

ठीक इसी प्रकार अपनी खुशी पाने की लालसा जागती है एक किशोरी ‘यशोदा’ के मन में। घर में लोग उसे ‘सिलबिल’ के नाम से पुकारते हैं। सिलबिल, एक ऐसी लड़की जो बचपन से ही गंभीर स्वभाव की है, एकांतप्रिय है और उसमें विद्रोह-भावना भी उतनी ही है। बिना विद्रोह-भावना के यह संभव ही नहीं होता कि कोई अपने पिता द्वारा दिया गया नाम (यशोदा शर्मा) अपनी मर्ज़ी से बदलकर (वर्षा वशिष्ठ) और दृढ़ता से पिता के सवालों का सामना कर वाजिब उत्तर दे। वर्षा के जीवन को एक निश्चित दिशा तब मिलती है जब उसके विद्यालय में अंग्रेजी विषय में शिक्षिका के पद पर मिस दिव्या कत्याल आती हैं। यहां से उसका अपने को पहचानने और इस समाज में अपनी पहचान बनाने का सफ़र शुरू होता है। 

लड़की के नाम बदल लेना उनके वंश की सात पीढ़ियों के इतिहास में कभी नहीं हुआ था, उसी प्रकार उसका ट्यूशन पढ़ाना भी उनके वंश की सात पीढ़ियों में कभी नहीं हुआ था। ट्यूशन पढ़ाने मात्र से शर्मा जी ‘गहरी सांस’ के साथ सोचते हैं ‘मैं अपनी बेटी को ही नहीं बचा पा रहा हूं।

हम सभी के समाजीकरण में घर की या कहें, परिवार की सबसे प्राथमिक भूमिका होती है। यहीं से हमारा व्यक्तित्व बनना शुरू होता है। लड़कों के जन्म लेने के साथ ही उनकी पढ़ाई और नौकरी का खयाल आता है तो वहीं लड़कियों के जन्म लेने के साथ ही उनकी शादी का खयाल आता है। इसी के साथ उचित ‘ट्रेनिंग’ शुरू हो जाती है। लड़कों को सत्ता कैसे बरकरार रखनी है? यह सिखाया जाता है और लड़कियों को एक सहयोगी के रूप में तैयार किया जाता है। अगर ऐसा नहीं होता तो वर्षा के फीस जमा नहीं करने का कारण यह नहीं होता “पिछले महीने अनेकानेक जरूरतें एक साथ आ पड़ी थीं। महादेव भैया ने पीलीभीत में नयी साइकिल खरीदी थी, गायत्री जिज्जी गर्भवती हो गयी थीं, इसलिए साड़ी, मिठाई-फल और चाँदी की एक कटोरी का शगुन भेजना जरूरी था। किशोर गर्म कोट के लिए चौखाने के मनपसंद कपड़े का आग्रह करते हुए दिन भर सिसकता रहा था।” इससे यह बिलकुल स्पष्ट है कि जो काम पितृसत्तात्मक ढांचें में ‘फिट’ है वही जरूरी है, तब लड़की की पढ़ाई इन सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कैसे हो सकती है?

ऐसी पारिवारिक संरचना में वर्षा हर कदम पर संघर्ष करने के लिए मजबूर है। वह जब भी अपना निर्णय स्वयं लेती है उसे सबकी डाँट-फटकार सुननी पड़ती है। लड़कियों के स्वयं निर्णय लेने और सबके विचलित होने के पीछे वही एकमात्र भय कि लड़की ‘हाथ से ना निकल जाए’। उसके घर में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जो उसके साथ खड़ा हो सके। ‘किशोर’ को अपनी दीदी से हमदर्दी है लेकिन घर का छोटा सदस्य होने के नाते उसकी बातों का भी कोई महत्त्व नहीं। उसके अपने नाम बदल लेने पर शर्मा जी अवाक हो सोचते हैं “उन्होंने यह तो सुना था कि फलानी लड़की घर से भाग गयी, ढिकानी ने सुसाइड कर लिया, लेकिन ऐसे हादसे से वह अब तक दो-चार नहीं हुए थे।”

लड़की के नाम बदल लेना उनके वंश की सात पीढ़ियों के इतिहास में कभी नहीं हुआ था, उसी प्रकार उसका ट्यूशन पढ़ाना भी उनके वंश की सात पीढ़ियों में कभी नहीं हुआ था। ट्यूशन पढ़ाने मात्र से शर्मा जी ‘गहरी सांस’ के साथ सोचते हैं ‘मैं अपनी बेटी को ही नहीं बचा पा रहा हूं। यह तो एक मामूली सी बात हुई, आगे जब वह नाटक में भाग लेती है, उसके पोस्टर शहर में लगते हैं, लखनऊ जाती है, शादी के लिए मना कर आगे पढ़ने की इच्छा ज़ाहिर करती है, इन सब में कितना-कितना सहना और लड़ना पड़ता है उसे! और अंततः वह सबसे लड़कर ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’ पहुंचती है जहां से उसके जीवन का नया अध्याय खुलता है। 

“अगर मिस दिव्या कत्याल उसके जीवन में न आतीं, तो वह या तो अपनी जान ले चुकी होती या रूँ-रूँ करते हुए शादीशुदा जीवन में होती। उपन्यास की शुरुआत वर्षा के इसी खयाल से होती है। दिव्या को केवल उसकी शिक्षिका के रूप नहीं देखा जा सकता है। हाँ, शुरुआत में उन्होंने एक शिक्षिका होने का कर्तव्य निभाते हुए एक विद्यार्थी की उसकी खुद से पहचान करवाई। वह क्षण मार्मिक लगता है जब नाटक में भाग लेने के लिए वे उसे प्रेरित करते हुए कहती हैं- “तुम्हारे अंदर जो ज्वार भरा है, उसे मुक्ति देने के लिए ढक्कन खोलने की जरूरत है।” फिर आगे जोड़ती हैं “तुम्हें अपनी अभिव्यक्ति के लिए एक माध्यम चाहिए। वह क्या होगा, यह मैं अभी पक्के तौर पर नहीं कह सकती। पर एक बार रंगमंच की कोशिश कर लेने में कोई हर्ज़ नहीं।”

दिल्ली जैसे ‘विराट नगर’ में वह अकेली पहुंचती है, नए लोगों से मिलती है। उसके सोचने-समझने का नजरिया बदलता है। वहां अकेली लड़कियों को ‘मस्ती’ करते देख उत्तेजित होती है, अपने काम को पूरे मनोयोग से करती है।

‘सौम्यमुद्रा’ बनी वर्षा ने फिर कभी पीछे लौटना नहीं स्वीकार किया। उसके हर संघर्ष में उसकी शिक्षिका ने उसका साथ दिया। न केवल शाहजहाँपुर में रहते हुए, बल्कि वहां से लखनऊ चले जाने के बाद और वर्षा के दिल्ली और मुंबई चले जाने के बाद, जब कभी भी उसे साथ की जरूरत महसूस हुई, वह उसके पास मौजूद रही। वह हमेशा इसी प्रयास में लगी रही कि वह अपनी नज़र से सबकुछ देख-समझ सके। ‘यह सही है कि यदि वह, वर्षा के जीवन में नहीं आती तो उसका जीवन वैसा नहीं बनता जैसा उनके आने के बाद संभव हुआ। वर्षा ने इसे हमेशा अपना ‘दूसरा जन्म’ माना था। हर जगह वह पूरी ताक़त के साथ उसके के साथ खड़ी रहती है।

वर्षा के जीवन में दिव्या का होना बहुत ही गहराई से इस इच्छा को प्रबल करता है कि प्रत्येक लड़की के जीवन में कम से कम एक ऐसा इंसान जरूर होना चाहिए जो किसी भी हालत में उसके साथ खड़ा रहे । वह जिन हालातों से गुजरते हुए दिल्ली पहुंच कर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में नामांकन पाया उसके लिए सच में बहुत आत्मविश्वास चाहिए। यह कितना संघर्ष का काम है जहां हर व्यक्ति आप के ख़िलाफ़ है, आपको रोकने का हर संभव प्रयास कर रहा है लेकिन अपने को उनके सामने समर्पित नहीं होने देना। दिल्ली जैसे ‘विराट नगर’ में वह अकेली पहुंचती है, नए लोगों से मिलती है। उसके सोचने-समझने का नजरिया बदलता है। वहां अकेली लड़कियों को ‘मस्ती’ करते देख उत्तेजित होती है, अपने काम को पूरे मनोयोग से करती है। इन सब से उसका खुद पर विश्वास बढ़ता है।

एन.एस.डी. आकर उसकी कलात्मक क्षमता में निखार आने का श्रेय उसकी मेहनत तो है ही, इसके साथ ही डॉ. अटल की भूमिका भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है। डॉ. अटल, जिन्होंने उसके के समक्ष नयी-नयी चुनौतियां रखीं, जिससे वह अपने कार्यक्षेत्र और व्यक्तिगत जीवन में भी अपना सौ प्रतिशत दे सके। आगे के उद्धरण से डॉ. अटल की भूमिका को हम समझ सकते है। जब ‘सीगल’ नाटक में वर्षा को माशा की जगह नीना का अभिनय करने के लिए कहा जाता है और वह अपनी भूमिका में बदलाव के लिए डॉ. अटल से कहती है- “मैं अभी ऐसी चुनौती के लिए तैयार नहीं।” तब वह कहते हैं- “वर्षा, तुमने जो कलापथ चुना है, उसमें चुनौती तुमसे निमंत्रण लेकर नहीं आयेगी। शाम के अंधेरे में एक तीखी, आक्रामक, चुनौती यकायक तुम्हारा रास्ता रोककर तुम्हें द्वंद्व के लिए ललकारेगी और तुम्हें अपनी सारी क्षमता और मनोबल के साथ उसका सामना करना होगा। विश्वास रखो, पीछे बराबर मैं रहूंगा और हर घात-प्रतिघात पर तुम्हें दिशा-निर्देश दूंगा। पर अगर तुम उस रास्ते से लौटने की सोचने लगो, तो यह उस रास्ते का भी अपमान है और तुम्हारा व मेरा भी।” इसके बाद जितनी चुनौतियां आयीं, उन सब का सामना पूरी हिम्मत से किया। कभी-कभी निराशाओं से भी घिरती लेकिन हर बार खुद को संभाल लेती।

अकेले नयी जगह पर किसी के प्रति आकर्षित होना यह स्वाभाविक ही है। वर्षा की स्थिति भी ऐसी है, जहां सब कुछ उसके लिए नया है, ऐसे में भावात्मक साथ की जरूरत महसूस होना स्वाभाविक है। लेकिन किसी के भी साथ होने के पहले यह जरूरी होता है कि सबसे पहले हम खुद की जांच करें कि हम संबंध में जाना क्यों चाहते हैं, लेकिन वह शायद ऐसा नहीं कर पाती। पहले दिल्ली में हर्ष के साथ उसका जुड़ाव होता है, लेकिन आगे चलकर दोनों में वैचारिक मतभेद सामने आते हैं, जिसके बाद वह सोचना शुरू करती है कि वह हर्ष से शादी करने के लिए तैयार क्यों नहीं है। इसके बाद मुंबई में सिद्धार्थ की ओर वह आकर्षित होती है, लेकिन यह आकर्षण उसकी ओर से केवल ‘टेम्पररी’ रहता है। वह इसे स्वयं सिद्धार्थ के सामने स्वीकारती भी है कि उनके बीच जो कुछ भी रहा वह भावात्मक अकेलेपन के कारण हुआ। इससे यह सवाल उभरता है कि यह कौन सी मानसिक स्थिति होती है?

ऐसी पारिवारिक संरचना में वर्षा हर कदम पर संघर्ष करने के लिए मजबूर है। वह जब भी अपना निर्णय स्वयं लेती है उसे सबकी डाँट-फटकार सुननी पड़ती है। लड़कियों के स्वयं निर्णय लेने और सबके विचलित होने के पीछे वही एकमात्र भय कि लड़की ‘हाथ से ना निकल जाए’।

यह कितनी चौंकाने वाली स्थिति है कि एक लड़की छोटे शहर से निकल कर दिल्ली आती है, जहां वह एक बेहतरीन कलाकार के रूप में खुद को स्थापित करती है, फिर दिल्ली से मुंबई तक का सफर जहां बहुत ही कम समय में अपने काम और मेहनत के बलबूते पर ‘पद्मश्री’ से सम्मानित होती है। जिसका पूरा जीवन इसी संघर्ष में लगा है कि मेरी अपनी पहचान हो, मैं किसी की बेटी, बहन, माँ के नाम से ना पहचानी जाऊं बल्कि अपने नाम से पहचान मिले मुझे, अंततः जब अपने नाम से पहचानी जाती है तो वह ख़ुशी अद्वितीय ही होती है। लेकिन क्या अपनी पहचान बना लेने के बाद एक लड़की के जीवन से संघर्ष समाप्त हो जाता है? अंततः एक शरीर ही दिखता है इस समाज को। इस पितृसत्तात्मक समाज में एक लड़की का पूरा संघर्ष यही है कि हमें शरीर के पहले एक इंसान के रूप में स्वीकार किया जाए। लड़कियों के संदर्भ में शरीर का तात्पर्य केवल उनकी योनि से है। यही कारण है कि लड़कियों पर तमाम तरह के प्रतिबंध लगाए जाते हैं ताकि कोई पुरुष लड़की के परिवार की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उससे संबंध न बना ले और ना ही लड़की अपनी ही इच्छा से किसी से संबंध बना ले।  

वर्षा एक प्रतिष्ठित अभिनेत्री है लेकिन विरोधी पक्ष उसे बदनाम करने की कोशिश भी करता है तो शरीर और यौनिकता के ही आधार पर न कि उसके काम पर आधार पर। उसका सारा काम धरा का धरा रह जाता है। सबसे महत्त्वपूर्ण लड़की का चरित्र है, और यदि अपनी मर्ज़ी से वह एक या अनेक लोगों से संबंध बनाए तो वह चरित्रहीन है। वर्षा के घर के लोगों की सोच भी नहीं बदलती। उसके पिता को अपनी बेटी को फिल्म में देख कर पहली बार गर्व की अनुभूति होती है लेकिन अंततः उनकी चाहत यही है कि उनकी बेटी का घर बस जाए, और संस्कारों से बंधी रहे। 

एक तरफ घर-समाज तो एक तरफ़ उसकी निजी ज़िंदगी में उथल-पुथल। ऐसे में मानसिक शांति कैसे महसूस हो सकती है। उपन्यास के शुरू होने से लेकर अंत तक उसका जीवन केवल संघर्ष में ही बीता। उसके हिस्से आखिर अकेलापन ही आता है। हर्ष की मौत के बाद उसका जीवन कैसा रहा होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। लेकिन अंत तक वह अपनी हिम्मत को बरकरार रखती है। ऐसे बच्चे को जन्म देना जिसका ‘होने वाला पिता’ ही दुनिया में नहीं है, यह बिना हिम्मत के संभव नहीं था। 

जिसका पूरा जीवन इसी संघर्ष में लगा है कि मेरी अपनी पहचान हो, मैं किसी की बेटी, बहन, माँ के नाम से ना पहचानी जाऊं बल्कि अपने नाम से पहचान मिले मुझे, अंततः जब अपने नाम से पहचानी जाती है तो वह ख़ुशी अद्वितीय ही होती है।

इस किताब में एक लड़की के बारे में क्या कुछ नहीं है! ऐसा लगता है कि एक-एक चीज, एक-एक बातों को, उनके जीवन में आने वाली परिस्थितियों को एक जगह ही व्यवस्थित रूप से रख दिया गया है। लड़की की पहचान कितनी जरूरी है, उसमें कितनी तरह की बाधाएं आती हैं, (बल्कि लायी जाती हैं) शादी का क्या असर होता है लड़की की पहचान बनने में, यह सबकुछ ‘मुझे चाँद चाहिए’ बताता है। इस उपन्यास में जितनी लड़कियां आई हैं, उन सब की शादी होती है, सिवाय वर्षा के। जिनकी शादी हुई उनका जीवन एवं वर्षा का जीवन, दोनों में कितना फ़र्क है। जिनकी शादी हो चुकी है वे अपने पत्नी रूप में खुश हैं अपना परिवार चलाते हुए, लेकिन कोई भी अपने कार्यक्षेत्र में आगे नहीं बढ़ पाईं। और वर्षा, जो ‘पद्मश्री वर्षा वशिष्ठ’ के नाम से जानी जाती है वह भावनात्मक स्तर पर अकेली रह जाती है। इसे इस रूप में भी समझा जा सकता है कि सबकी कहानी सुखान्तक नहीं होती, विशेषतः स्त्रियों के जीवन में तमाम संघर्ष के बावजूद कुछ न कुछ छूट जाता है।


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