जहां एक तरफ दुनियाभर में फ्री मोबिलिटी को महिला सशक्तिकरण से जोड़कर देखने का चलन बढ़ा है। वहीं, दूसरी तरफ भारत की राजधानी दिल्ली में मुफ्त बस सेवा महिलाओं से नफरत का एक अतिरिक्त कारण बन गया है। दिल्ली सरकार की फ्री बस सेवा की वजह से महिला यात्रियों को आए दिन ज़लील होना पड़ रहा है। पुरुष सहयात्रियों के साथ-साथ बस के ड्राइवर, कंडक्टर और मार्शल भी महिलाओं को हर रोज़ यह याद दिला रहे हैं कि वे मुफ्त में यात्रा कर रही हैं। इसलिए उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होगा। कई बार बस में होनेवाले यौन उत्पीड़न के खिलाफ़ आवाज़ उठाने वाली महिलाओं से यहां तक कह दिया जाता है, “फ्री में चलना है और नखरे भी दिखाना है। भीड़ है तो हाथ लगेगा ही। दिक्कत है तो पैसे देकर ऑटो से जाया करो।”
इसके अलावा ऐसे यात्रियों का भी मिलना आम है, जिन्होंने यह समझाने का बीड़ा उठा रखा है कि क्यों महिलाओं के लिए बस मुफ्त करना टैक्सपेयर्स के पैसों की बर्बादी है? कैसे मुफ्त चीजें अर्थव्यवस्था को बर्बाद करती हैं और क्यों ऐसी पहल जेंडर के आधार पर नहीं होनी चाहिए? कुल मिलाकर पुरुषों का एक बहुत बड़ा वर्ग इसे अफर्मेटिव ऐक्शन का हिस्सा मानने को तैयार नहीं है। अब पहला सवाल तो यही उठता है कि महिलाओं के लिए मुफ्त बस सेवा को एक सकारात्मक पहल क्यों माना जाए?
महिलाओं की यात्रा पर प्रतिबंध का रहा है इतिहास
मनुस्मृति के पांचवें अध्याय का 148वां श्लोक कहता है, “एक लड़की हमेशा अपने पिता के संरक्षण में रहनी चाहिए, शादी के बाद पति उसका संरक्षक होना चाहिए, पति की मौत के बाद उसे अपने बच्चों की दया पर निर्भर रहना चाहिए, किसी भी स्थिति में एक महिला आज़ाद नहीं हो सकती।” ईसा के जन्म से दो-तीन सौ वर्ष पहले लिखी इस बात के हिमायती 21वीं सदी के वर्तमान वर्ष में भी आसानी से मिल जाएंगे। मनुस्मृति हिंदुओं का ऐसा धर्मशास्त्र है, जिसे ज्यादातर भारतीयों ने भले ही न पढ़ा हो लेकिन इसमें बताए आचरण उनके जीवन का हिस्सा बन चुका है। अन्य धर्मों के शास्त्र भी महिलाओं पर इसी तरह के प्रतिबंध के पक्षधर हैं।
19वीं सदी में लड़कियों के लिए भारत का पहला स्कूल खोलने वाली सावित्रीबाई फुले पर घर से स्कूल जाने के बीच में गोबर, कूड़ा और पत्थर तक फेंका जाता था। पश्चिमी चिकित्सा में अमेरिका से डिग्री प्राप्त करने वाली पहली भारतीय महिला आनंदीबाई जोशी थीं। उन्होंने पेंसिल्वेनिया के वीमेन मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेकर 19 साल की उम्र में दो साल का कोर्स पूरा किया था। हालांकि उनके लिए ये सब आसान नहीं था। जब आनंदीबाई ने मेडिकल की पढ़ाई के लिए विदेशी कॉलेज में आवेदन किया, तो उनकी योजना जानकर भारत के हिंदू समाज ने कड़ी निंदा की।
सावित्रीबाई बाई फुले या आनंदीबाई जोशी, यहां उदाहरण मात्र हैं। भारत में महिलाओं की मोबिलिटी को कंट्रोल करना सांस्कृतिक प्रथा का हिस्सा रहा है। आज भी देश के कई हिस्सों में एक महिला के अकेले यात्रा करने की क्षमता सवालों के घेरे में रहती है। लड़कियों को अक्सर लंबी दूरी की यात्रा की वजह से कॉलेज जाने से ही रोक दिया जाता है। ये तो हुए सांस्कृतिक कारण। महिलाओं की आर्थिक स्थिति भी उन्हें मुफ्त बस जैसी व्यवस्था का हकदार बनाती है। अन्य और वजहें भी हैं। उन पर आगे विस्तार से बात करेंगे। यहां पहले, दिल्ली की मुफ्त बस सेवा का इस्तेमाल कर रही महिलाओं का अनुभव जान लेते हैं।
“महंगा फोन इस्तेमाल कर सकती हो लेकिन…“
दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार ने साल 2019 में 29 अक्टूबर को महिलाओं के लिए मुफ्त बस सेवा की शुरुआत की थी। तब से साल दर साल महिला यात्रियों की संख्या में वृद्धि हुई है। द इंडियन एक्सप्रेस ने परिवहन विभाग के अधिकारियों के हवाले से बताया है कि महिला सवारियों में 2020-21 में 25%, 2021-22 में 28% और 2022-23 में लगभग 33% की बढ़ोतरी देखी गई है। दिल्ली इकोनॉमिक सर्वे-2022-23 के मुताबिक, वित्त वर्ष 2021-22 में दिल्ली सरकार ने महिलाओं की मुफ्त यात्रा के लिए डीटीसी पर 13.04 करोड़ और क्लस्टर बसों पर 12.69 करोड़ रुपये खर्च किए।
इस योजना की लोकप्रियता का आलम यह है कि एक करोड़ से भी कम महिला आबादी वाले इस शहर में अब तक 100 करोड़ से ज्यादा ‘पिंक टिकट’ का इस्तेमाल हो चुका है। हालांकि, बस में महिलाओं की संख्या बढ़ने से उन्हें इस ‘मुफ्त’ सेवा के लिए ज़लील किए जाने की आशंका कम नहीं हुई है। दिल्ली विश्वविद्यालय के गार्गी कॉलेज में संस्कृत पढ़ानेवाली नीतू अपने साथ हुए एक वाकये के जरिए बताती हैं कि कैसे मुफ्त बस सेवा महिलाओं को अपमानित करने का बहाना बन गया है। वह याद करती हैं, “कुछ दिन पहले की बात है। मैं बस में चढ़ी। कंडक्टर ने बोला मैडम टिकट ले लीजिए। मैंने बोला महिलाओं के लिए तो टिकट मुफ्त है, कंडक्टर ने जवाब दिया कि आप कभी-कभी तो टिकट ले ही सकती है। मैंने कहा क्यों? उसका जवाब था- जब आप इतना महंगा फोन रख सकती है तो एक टिकट क्यों नहीं ले सकती।” बकौल नीतू, कंडक्टर ने यह बात तंज कसते हुए कही थी। वह आगे बताती हैं, “मैंने कंडक्टर से कहा कि फोन महंगा या सस्ता रखना मेरा निजी मामला है, इसमें आपको दखल देने की जरूरत नहीं है। इस पर कंडक्टर ने कहा, पिंक पास खत्म हो गया है, इसलिए आपको टिकट खरीदनी ही पड़ेगी।”
महिला सवारियों को देख बस नहीं रोकते ड्राइवर
महिलाओं के लिए बस मुफ्त होने के बाद दिल्ली में यह एक गंभीर समस्या बन चुकी है। अलग-अलग रूट की महिला बस यात्रियों की यह शिकायत थी कि उन्हें देखकर बस ड्राइवर स्टैंड पर भी बस नहीं रोकते। बस से उतरने वाली सवारी के लिए स्टैंड से थोड़ा बढ़कर बस धीरे करते हैं और पीछे से दौड़कर आ रही महिलाओं को चकमा देकर भाग जाते हैं। यह समस्या इतनी व्यापक बन चुकी है कि खुद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को ट्वीट कर, ऐसे बस ड्राइवर्स को चेतावनी देनी पड़ी। हालांकि, अब भी हालात ज्यादा नहीं बदले हैं।
कई अन्य महिला सवारियों की तरह नीतू भी इस समस्या का सामना कर चुकी हैं। वह बताती हैं, “कभी-कभी बस स्टॉप पर कई घंटे इंतजार करना पड़ता है। ऐसा नहीं है कि बस नहीं आती है, बस आती है लेकिन ड्राइवर हमें देखकर हाथ से इशारा कर देता है कि पीछे दूसरी बस आ रही है आप उसमें आना। फिर जो पीछे आती है वह भी नहीं रुकती, क्योंकि उन्हें लगता है कि अभी तो इस नंबर की एक बस गई है। इस तरह हमारे कई घंटे बर्बाद हो जाते हैं।”
महिलाओं को सीट मिलने में होती है दिक्कत
मोटर व्हीकल एक्ट (1988) के अनुसार, बसों में सीटों का एक प्रतिशत महिलाओं के लिए आरक्षित होनी चाहिए। हालांकि, यह प्रतिशत राज्य के नियमों के आधार पर अलग-अलग राज्यों में अलग होता है। जैसे दिल्ली दिल्ली परिवहन निगम ने साल 2012 के गैंगरेप की घटना के बाद दिल्ली की सरकारी बसों में महिलाओं के लिए 25% सीटें आरक्षित कर दी थीं। बस मुफ्त होने के बाद महिलाओं को आरक्षित सीट पर बैठने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है।
श्रीनिवासपुरी के एक प्राइवेट अस्पताल में काम करने वाली राजकुमारी बताती हैं, “अगर महिला सीट पर कोई पुरुष बैठा है, हमने सीट देने के लिए बोल दिया तो उल्टा जवाब मिलता है कि एक तो मुफ्त में जा रहे हो और सीट भी चाहिए। अब तो बोलना ही छोड़ दिया क्योंकि एक दिन की बात नहीं है, रोज का आना-जाना है।” कुछ ऐसा ही अनुभव जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में गार्ड का काम करने वाली सीमा का भी है। वह लाडो सराय में रहती हैं। सीमा ने बताया, “हाल में ही एक आदमी महिला सीट पर बैठा था। मैंने सीट मांगी तो उसने उठने से मना कर दिया, मार्शल ने भी मदद नहीं की। मैं 8 घंटे खड़े होकर गार्ड की नौकर करती हूं। मुझे सीट की बहुत जरूरत होती है।”
पिंक पास को माना यौन उत्पीड़न का ‘पास’
“छेड़छाड़ जैसा कुछ नहीं होता। महिलाएं खुद छिड़ना चाहती हैं। यह महिलाओं के ऊपर निर्भर करता है कि वह छिड़ना चाहती है या नहीं।”, ऐसा मानना है आशीष का, जो पिछले सात सालों से क्लस्टर बस में बतौर कंडक्टर काम करते हैं। वह महिलाओं के मुफ्त ट्रैवल स्कीम के विरोधी हैं और बसों में पुरुषों के लिए भी सीट आरक्षित करने की मांग करते हैं।
बस से यात्रा करने वाली ज्यादातर महिलाओं ने इस बात की तस्दीक की कि उनके साथ आए दिन ‘छेड़छाड़’ (यौन उत्पीड़न) होता है। कभी बस में चढ़ते हुए कोई कूल्हा पकड़ लेता है, कोई छाती नोचता है। सीट पर बैठी महिलाओं के हाथ और कंधे पर बगल में खड़े पुरुष यात्री अपना जननांग रगड़ने लगते हैं। पीछे से चिपकने की कोशिश करना और कोहनी से छाती छूने का प्रयास तो बहुत आम है। भीड़ बस में अक्सर पुरुष अपना जेब, मोबाइल और बैग बचाते नजर आते हैं, जबकि महिलाओं को इन सबके के साथ-साथ अपना छाती, कूल्हा और जननांग भी बचाना होता है।
दिल्ली की बसों में महिलाओं की हालत का अंदाज़ा इस एक घटना से भी लगाया जा सकता है, अगस्त 2022 में डीटीसी बस में तैनात एक महिला मार्शल (बसों में मार्शल की नियुक्त महिला सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए किया गया था।) ने कथित तौर पर यौन उत्पीड़न से तंग आकर आत्महत्या की कोशिश की थी। महिला मार्शल ने बस के कंडक्टर पर ही यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था। दिल्ली महिला आयोग ने इस संबंध में दिल्ली पुलिस को नोटिस भी जारी किया था।
वर्ल्ड बैंक ने साल 2022 में एक शोध रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसके आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली में पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करने वालीं 80% से अधिक महिला यात्रियों को यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ा, लेकिन केवल 1% महिलाएं ही उसके खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करवाती हैं। यौन उत्पीड़न और उसके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज न करवाने का यह आंकड़ा देश के सभी महानगरों (जैसे- चेन्नई, पुणे, मुंबई) से अधिक है। वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट में प्राथमिकी दर्ज ना करवाने के पीछे का पहला कारण जानकारी की कमी और दूसरा सबसे बड़ा कारण यौन उत्पीड़न को गंभीर अपराध ना समझना बताया गया है। कुछ अन्य कारणों में सिस्टम पर भरोसे की कमी और विक्टिम ब्लेमिंग का डर भी बताया गया है।
ग्रेटर कैलाश-2 की एक कोठी में घरेलू सहायक का काम करने वाली शायरा बानो कहती हैं, “मुफ्त बस का बहुत फायदा है। मैं रोजाना चालीस रुपये बचा लेती हूं। मेरी तनख्वाह सिर्फ पांच हजार रुपये है। परिवार में चार सदस्य है। किराया का जो पैसा बचता है वो घर के दूसरे काम में इस्तेमाल हो जाता है। पांच हजार में कुछ नहीं होता बहुत ही मुश्किल से जीवन चलता है। बस मुफ्त ही रहनी चाहिए।”
The Urban Catalysts की फाउंडर सोनल शाह दिल्ली में सरकारी बसों को सुरक्षित बनाने के कई उपाय सुझाती हैं। वह इस बात पर जोर देती हैं कि महिलाओं का सिस्टम पर भरोसा स्थापित करना होगा। शाह की टीम ने बसों में लगे पैनिक बटन को दबाकर यह जानना चाहा कि उससे कैसा रिस्पांस मिलता है। शाह बताती हैं कि उनकी टीम के सदस्य ने जब पैनिक बटन दबाया तो बस वाले ने चिल्ला कर पूछा- इसे क्यों दबाया? वह कहती हैं, “इस बात का भरोसा दिलाना होगा कि अगर कोई शिकायत करता है तो उसे सपोर्ट मिलेगा। अगर मैं कोई असहज स्थिति में हूं तो मेरे पास ऐसा विकल्प होना चाहिए कि मैं एक कंट्रोल सेंटर में कॉल करूं, वहां बैठे काउंसलर को अपनी जानकारी दूं, कंट्रोल रूम से बस ड्राइवर को सूचित किया जाए, इसके बाद ड्राइवर अनाउंसमेंट करे कि ‘इस बस से सेक्सुअल हरासमेंट की शिकायत की गई है, सब सावधान रहे।’
वह आगे कहती हैं, “इस अनाउंसमेंट में कोई किसी का नाम नहीं लेगा न तो विक्टिम को प्वाइंट आउट किया जाएगा ना मोलेस्टर को। इसके बाद काउंसलर का कॉल आए और वह पूछे कि मुझे कोई कंप्लेंट फाइल करनी है या नहीं। अगर करनी है तो अगले बस स्टॉप पर पुलिस पास आएं। रिपोर्ट दर्ज करवाने के लिए हमें पुलिस के पास न जाना पड़े, पुलिस हमारे पास आए। यही प्रैक्टिकल है। केस तभी फाइल होगी, जब सर्वाइवर को पुलिस स्टेशन न जाना पड़े।”
तो क्या सब कुछ खराब ही खराब है?
मुफ्त बस योजना कई मोर्चों पर महिलाओं को सशक्त बना रही है। इसका सबसे ज्यादा फायदा आर्थिक तौर पर कमज़ोर महिलाओं को मिल रहा है। ग्रेटर कैलाश-2 की एक कोठी में घरेलू सहायक का काम करने वाली शायरा बानो कहती हैं, “मुफ्त बस का बहुत फायदा है। मैं रोजाना चालीस रुपये बचा लेती हूं। मेरी तनख्वाह सिर्फ पांच हजार रुपये है। परिवार में चार सदस्य है। किराया का जो पैसा बचता है वो घर के दूसरे काम में इस्तेमाल हो जाता है। पांच हजार में कुछ नहीं होता बहुत ही मुश्किल से जीवन चलता है। बस मुफ्त ही रहनी चाहिए।”
55 वर्षीय रेवन्तिका दक्षिणपुरी में रहती है। घरों में साफ-सफाई और खाना बनाने का काम करती है। वह बताती हैं, “मेरा आदमी (पति) काम नहीं करता। सिर्फ शराब पीता है। घर पर रहता है। मैं दो कोठियों में काम करने जाती हूं। पहले सुबह लाजपत नगर जाकर खाना बनाती हूं फिर दिन में जीके जाकर साफ-सफाई का काम करती हूं। सफाई करने के बाद दोबारा लाजपत नगर जाती हूं। वहां से शाम तक घर लौटती हूं। कोठियों में जितना काम करवाते हैं, उस हिसाब से वेतन नहीं मिलता। बस मुफ्त होने से महीने में 1500 से 1700 बचा लेती हूं।”
घरेलू सहायक का ही काम करने वालीं नीलम कहती हैं, “मुफ्त बस ने महिलाओं के भीतर आत्मविश्वास पैदा कर दिया है। अब बस किस रंग की आ रही है, इस बात की चिंता नहीं होती, बस हमारी रूट की होनी चाहिए। बस मुफ्त नहीं थी तो मैं बस का कलर देखकर चढ़ती थी। ज्यादातर नॉन एसी वाले बस में सफर करती थी ताकि कुछ पैसे बच सकें।”
“मुफ्त सेवाएं तो इंसान को कमज़ोर बनाती हैं”
डीटीसी बस ड्राइवर संजय कुमार साफ कहते हैं कि उन्हें मुफ्त बस सेवा अच्छी नहीं लगती क्योंकि महिलाएं इसका गलत इस्तेमाल करती हैं। वह बताते हैं, “महिलाएं एक स्टॉप से अगले स्टॉप पर उतर जाती हैं। पता नहीं महिलाओं के पास कोई काम होता भी है कि नहीं, मुफ्त में घूम रही है। मुफ्त पास है फिर भी याद दिलाना पड़ता है कि पास ले लो। मुफ्त तो कुछ भी नहीं होना चाहिए क्योंकि मुफ्त चीज़ें तो इंसान को पंगु बनाती हैं।”
नाम न छापने की शर्त पर क्लस्टर बस के एक ड्राइवर ने कहा, “बस स्टॉप आ जाता है लेकिन महिलाएं सीट छोड़ने को तैयार नहीं रहतीं। जब स्टॉप आ जाता है तब उतरने के लिए आगे आती हैं। अगर पैसे देकर टिकट लेना होता है तो मालूम होता है कि टिकट कहां से कहां तक का है, उसके अगले स्टॉप पर उतरते वक्त चेकर मिल गया तो जुर्माना देना होता है। लेकिन अभी तो महिलाएं मस्त रहती हैं। कोई फर्क नहीं पड़ता कही भी उतरती है। एक स्टॉप आगे भी उतर जाती है। महिलाओं को टिकट खरीदना होगा तो बसों में इतनी भीड़ नहीं होगी। पहले महिला पूछ कर बैठती थी कि यह बस उनके रूट में जाएगी या नहीं और अब बस में बैठ कर पूछती की यह बस कहां जाएंगी। अगर उनके रूट की न हो तो बोलती हैं, ‘कोई नहीं अगले स्टैंड पर उतर जाउंगी।’ यहीं कारण है जिन महिलाओं को बस में जाना जरूरी होता है वो चढ़ नहीं पाती लेकिन जिन्हें गोलगप्पे खाना होता है वो बस में चढ़ जाती है।”
55 वर्षीय रेवन्तिका दक्षिणपुरी में रहती है। घरों में साफ-सफाई और खाना बनाने का काम करती है। वह बताती हैं, “मेरा आदमी (पति) काम नहीं करता। सिर्फ शराब पीता है। घर पर रहता है। मैं दो कोठियों में काम करने जाती हूं। पहले सुबह लाजपत नगर जाकर खाना बनाती हूं फिर दिन में जीके जाकर साफ-सफाई का काम करती हूं। सफाई करने के बाद दोबारा लाजपत नगर जाती हूं। वहां से शाम तक घर लौटती हूं। कोठियों में जितना काम करवाते हैं, उस हिसाब से वेतन नहीं मिलता। बस मुफ्त होने से महीने में 1500 से 1700 बचा लेती हूं।”
क्या मुफ्त बस महिलाओं को पंगु बना रहा है? इस सवाल के जवाब में प्रसिद्ध महिला अधिकार कार्यकर्ता और लेखिका कविता कृष्णन कहती हैं, “पुरुषों से सवाल करना चाहिए कि घर के काम से लेकर बच्चे पालने तक के काम का आप मुफ्त में आनंद ले रहे है। आप महिलाओं की बदलौत क्या-क्या मुफ्त में इंजॉय करते हैं। इस पर जरा सोचिए।”
महिलाओं के निशुल्क श्रम पर टीकी है अर्थव्यवस्था
बुजुर्गों, बच्चों और विकलांगों के लिए बस मुफ्त की मांग करते हुए ड्राइवर रविकांत कहते हैं कि महिलाएं फिजूल में घूमती हैं, सब्जी और दूध लेने जाती है। रविकांत, सब्जी या दूध लाने को यानी ‘घरेलू काम को’ इतना फिजूल मानते हैं कि उसके लिए मुफ्त बस के इस्तेमाल से नाराज़ हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रोफेसर निवेदिता मेनन अपनी किताब ‘नारीवादी निगाह से’ में महिलाओं द्वारा मुफ्त में किए जानेवाले इस तरह के घरेलू काम को अर्थव्यवस्था की नींव मानती हैं।
वह लिखती हैं, “महिलाओं को जिन कार्यों के बदले कोई दाम नहीं मिलता उनमें ईंधन, चारा और पानी आदि जुटाना, पशुओं की देखभाल, फसल की कटाई करना, घरेलू बगीचे की देखभाल तथा मुर्गीपालन जैसे काम शामिल किए जा सकते हैं। इन कामों से पारिवार के संसाधनों में भारी इजाफा होता है। अगर महिलाएं इन कामो को हाथ नहीं लगातीं तो ऐसी कई चीज़ें बाजार से खरीदनी पड़ती। किसी को मजदूरी देनी पड़ती या फिर परिवार को इन चीजों से वंचित रहना पड़ता। लेकिन जेंडर के बारे में ऐसी धारणाएं इतनी स्वाभाविक बन चुकी हैं कि भारत की जनसंख्या-गणना की प्रक्रिया में भी ऐसे कार्यों को बहुत समय तक ‘काम’ का दर्जा नहीं दिया गया क्योंकि इस काम को घरेलू मानकर उसके बदले कोई मजदूरी नहीं दी जाती। अगर महिलाएं यह निशुल्क श्रम करना छोड़ दें अथवा इस श्रम का इंतजाम करने की जिम्मेदारी से हाथ खींच लें तो अर्थव्यवस्था का पहिया यकायक रुक जाएगा। यह सच है कि पूरी अर्थव्यवस्था महिला के इस निशुल्क श्रम पर ही टिकी है।”
महिलाओं के लिए मुफ्त बस सेवा क्यों ज़रूरी?
कविता कृष्णन अपनी किताब ‘फियरलेस मुफ्त डम’ में तर्क देती हैं कि भारत में महिलाएं जितनी स्वतंत्र होंगी, समाज उतना ही सुरक्षित होगा। मुफ्त बस स्कीम पर बातचीत करते हुए उन्होंने कहा, “जिनके पास पैसा है, जो गाड़ियों में घूमते हैं वे महिला और दलित विरोधी मानसिकता से ग्रस्त होते हैं। उनकी तरफ से अक्सर यह कहा जाता है कि बस किफायती करना मुफ्त में रेवड़ी बांटना है। लेकिन महिलाओं के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट मुफ्त ही रहना चाहिए। महिलाएं आज भी आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं है। आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण महिलाएं काम पर जाने के लिए कई किलोमीटर पैदल चलती हैं। बस मुक्त होने की वजह से आज महिलाएं आसानी से कही भी आ जा सकती है।” वह उदाहरण से समझाती हैं, “अगर किसी महिला के साथ घर में यौन उत्पीड़न या मारपीट की घटना होती है, जो भारत में अब भी सामान्य है। तो ज्यादातर महिलाओं के पास वहां से भाग निकलने के लिए पैसा नहीं होता है। ऐसे में अगर उनको कहीं भी जाना हो तो कैसे जाएंगी लेकिन अगर पब्लिक ट्रांसपोर्ट मुफ्त रहेगा तो उनके भीतर आत्मविश्वास रहेगा कि हम मदद मांगने कहीं से कहीं तक जा सकते हैं।”
कई रिपोर्ट्स इस बात की गवाह हैं कि महिलाएं, पुरुषों की तुलना में कम कमा रही हैं। एक ही काम के लिए पुरुषों को महिलाओं से कम वेतन दिया जाता है। जेंडर के आधार पर श्रम का विभाजन (ऐसा काम जिसे पुरुषों द्वारा किए जाने वाला काम मानकर, महिलाओं को रोजगार से वंचित कर दिया जाता है), इसे और विकराल बना रहा है। समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976 में ही पारित हो गया था लेकिन स्थिति आज भी यही है कि महिलाओं को एक ही काम के बदले पुरुष से कम मजदूरी दी जाती है। ऑक्सफैम इंडिया की डिस्क्रिमिनेशन रिपोर्ट-2022 बताती है कि नियमित नौकरियों में किसी काम के लिए अगर पुरुष कर्मचारी को 19,779 रुपये का मासिक वेतन दिया जाता है, तो महिला सहकर्मी को 15,578 रुपये ही मिलता है। दोनों के वेतन में 27 प्रतिशत का अंतर है। शहरी स्वरोजगार के मामले में यह खाई सबसे चौड़ी है, इसमें पुरुषों की औसत मासिक कमाई 15,996 रुपये है, जबकि महिलाओं की कमाई 6,626 रुपये है। दोनों की कमाई में 141 प्रतिशत से अधिक का अंतर है।
नैशनल फैमिलि हेल्थ सर्वे-5 की रिपोर्ट बताती है कि भारत में फीमेल लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट 25 प्रतिशत है, जबकि वर्क फोर्स में पुरुषों की भागीदारी 57.5 प्रतिशत है। वर्कफोर्स में महिलाओं की कमी सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं की कमी को भी दर्शाता है। ज्यादातर नारीवादियों को यह मानना है कि सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं की भागीदारी जितनी अधिक होगी, सार्वजनिक जगह उतने ही ज्यादा सुरक्षित होंगे। कविता कृष्णन कहती हैं, “महिलाओं की संख्या जहां ज्यादा होगी वह जगह महिलाओं के लिए सुरक्षित होगी, वह सड़क हो या पब्लिक ट्रांसपोर्ट। इस लिहाज से भी महिलाओं के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट मुफ्त होना चाहिए और यह सिर्फ दिल्ली में नहीं पूरे देश में होना चाहिए।”
नोट: सभी तस्वीरें श्वेता ने उपलब्ध करवाई हैं।