समाजख़बर स्वास्थ्य मॉडल में नारीवादी नज़रिया कैंसर से बचा सकता था 8 लाख औरतों की जान

स्वास्थ्य मॉडल में नारीवादी नज़रिया कैंसर से बचा सकता था 8 लाख औरतों की जान

समाज में असमान ताकत के वितरण से महिलाओं के कैंसर की रोकथाम और उपचार के अनुभवों पर गहरा नकारात्मक प्रभाव डालती है। लैंसेट के 185 देशों में किए गए अध्ययन में कहा गया है कि कैंसर की बेहतर देखभाल के ज़रिये से 1.5 मिलियन महिलाओं की मौत को रोका जा सकता था। इतना ही नहीं सही ‘नारीवादी दृष्टकोण’ से 8,00,000 की जान को बचाया जा सकता है।    

असमानताओं पर टिकी हमारी सामाजिक व्यवस्था में पुरुषों से इतर लैंगिक पहचान रखने वाले लोगों को शारीरिक पीड़ा में इलाज के लिए इंतजार, लापरवाही, देखभाल की कमी, इलाज न मिलना आदि है क्योंकि महज उनकी लैंगिक पहचान के चलते उनकी बीमारी पर ध्यान नहीं दिया जाता है जिसके चलते बीमारी भंयकर रूप लेकर जान तक ले लेती है। लैंगिक असमानता और भेदभाव दुनिया भर में महिलाओं के लिए समय पर बीमारी के इलाज और देखभाल में बाधा डालते हैं। हाल ही हुए एक अध्ययन में विशेषज्ञों का मानना हैं कि कैंसर की रोकथाम के लिए नारीवादी दृष्टिकोण अपनाया जा सकता है। नारीवादी विचारधारा लैंगिक असमानता को खत्म करने और हर वर्ग,जाति, लिंग और क्षेत्र के लोगों के लिए समान अधिकारों और व्यवहारों की पैरवी करती है। 

स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने कहा है कि नारीवादी दृष्टिकोण से दुनिया भर में हर साल कैंसर से होने वाली 8,00,000 महिलाओं की मौतों को रोका जा सकता है। मेडिकल जर्नल लैंसेट की एक रिपोर्ट में पता चला है कि ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स में निचले स्थान पर मौजूद देशों में कैंसर से पीड़ित महिलाओं की 72 फीसदी मौतें समय से पहले हुईं। ऐसा माना जाता है कि पुरुषों और महिलाओं के लिए शुरुआती जांच तक समान पहुंच कैंसर से संबंधित मौतों को रोकने में एक महत्वपूर्ण कारक हो सकती है। अध्ययन में पाया गया है कि पुरुषों की तुलना में कम आर्थिक स्थिति वाली महिलाओं की स्वास्थ्य समस्याओं पर अधिक ध्यान देने से मदद मिल सकती है।

कैंसर महिलाओं के सबसे बड़े हत्यारों में से एक है। दुनिया के हर महाद्वीप के लगभग हर देश में समय से पहले होने वाली मौतों के पहले तीन कारणों में से एक है। लैंगिक असमानता और भेदभाव महिलाओं के लिए कैंसर के जोखिमों से बचने के अवसरों को कम कर रहा है। समाज में असमान ताकत के वितरण से महिलाओं के कैंसर की रोकथाम और उपचार के अनुभवों पर गहरा नकारात्मक प्रभाव डालती है। लैंसेट के 185 देशों में किए गए अध्ययन में कहा गया है कि कैंसर की बेहतर देखभाल के ज़रिये से 1.5 मिलियन महिलाओं की मौत को रोका जा सकता था। इतना ही नहीं सही ‘नारीवादी दृष्टकोण’ से 8,00,000 की जान को बचाया जा सकता है।    

लैंसेट के अन्य अध्ययन के मुताबिक़ 2020 में 70 वर्ष से कम उम्र की महिलाओं में कैंसर से होने वाली 1.5 मिलियन समय से पहले होने वाली मौतों को खतरे का पहले पता लगने और इलाज के माध्यम से रोका जा सकता था। रिसर्च में 30 से 69 वर्ष की उम्र की महिलाओं में कैंसर से होने वाली असामयिक मौतों का विश्लेषण किया गया है।

हर साल दुनिया में 2.3 मिलियन महिलाएं कैंसर से पीड़ित होती हैं। द गॉर्डियन में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक़ शोधकर्ताओं ने कहा है कि अध्ययन में विशेष रूप से महिलाओं को होने वाले कैंसर ब्रेस्ट, सर्वाइकल कैंसर इसमें शामिल है। फेफड़े और कोलोरेक्टल कैंसर इस बीमारी से मौते होने वाली तीन प्रमुख कारणों में से एक है। लैंगिक असमानताएं कैंसर के क्षेत्र में रिसर्च, प्रैक्टिस और नीति-निर्माण के रूप में महिला पेशेवरों की तरक्की में बाधा बन रही है। इस वजह से महिला केंद्रित कैंसर रिसर्च की कमी बनी हुई है। कैंसर वर्कफोर्स में लैंगिक उत्पीड़न और भेदभाव निपटने के लिए कानूनों और नीतियों की आवश्यकता है। जहां महिलाओं को प्रतिनिधित्व कम है उसे बढ़ाया जाए। यह तय करने के लिए महिलाओं के पेशेवर विकास को बढ़ावा दिया जाए। इस तरह से कैंसर के क्षेत्र में महिलाओं के पक्ष को लिए अज्ञानता बनी हुई है जिसे समय पर अक्सर पहचाना नहीं जाता है जिसके परिवार और समुदाय के लिए व्यापक दूरगामी परिणाम होते हैं।

नैशनल कैंसर इंस्टीट्यूट के सेंटर फॉर ग्लोबल हेल्थ में क्लीनिकल रिसर्च के वरिष्ठ सलाहकार और आयोग के सह-अध्यक्ष डॉ. ओफिरा गिन्सबर्ग ने कहा है कि महिलाओं के कैंसर के अनुभवों पर पितृसत्तात्मक समाज का प्रभाव काफी हद तक अज्ञात रहा है। वैश्विक स्तर पर महिलाओं के स्वास्थ्य को प्रजनन और मातृत्व स्वास्थ्य तक केंद्रित किया गया है। यह समाज में महिलाओं के मूल्य और भूमिकाओं की संकीर्ण नारी-विरोधी सोच से जुड़ा हुआ है। रिपोर्ट में कहा गया है कि तमाम पक्ष को देखते हुए लैंगिक असमानता को खत्म करने के लिए कैंसर देखभाल के लिए एक नए नारीवादी एजेंडे की ज़रूरत है।

कैंसर से जान गंवाती महिलाएं

लैंसेट के अन्य अध्ययन के मुताबिक़ 2020 में 70 वर्ष से कम उम्र की महिलाओं में कैंसर से होने वाली 1.5 मिलियन समय से पहले होने वाली मौतों को खतरे का पहले पता लगने और इलाज के माध्यम से रोका जा सकता था। रिसर्च में 30 से 69 वर्ष की उम्र की महिलाओं में कैंसर से होने वाली असामयिक मौतों का विश्लेषण किया गया है। अगर सभी महिलाओं तक सही इलाज और देखभाल की पहुंच होती तो बड़ी संख्या में महिलाओं को बचाया जा सकता था। कैंसर के चार प्रमुख खतरों में तंबाकू, शराब, मोटापा और संक्रमण है। इस कारण 2020 में सभी उम्र की 1.3 मिलयन महिलाओं की मौत हुई। रिपोर्ट में कहा गया है कि महिलाओं में कैंसर के कारणों में इन चार प्रमुख को व्यापक रूप से कम पहचाना गया है। महिलाओं के लिहाज से अन्य कारकों पर कम ध्यान दिया जाता है। उदाहण के लिए 2019 में एक अध्ययन में पाया जाता है कि यूके में ब्रेस्ट कैंसर की जांच कराने वाली केवल 19 फीसदी महिलाओं को पता था कि शराब ब्रेस्ट कैंसर के लिए प्रमुख जोखिम का कारण है।

तस्वीर साभारः Bayshore Health Care

पितृसत्ता और महिलाओं के स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही उनकी जान जोखिम में डालने का एक बड़ा कारण है। आज के माहौल में भी हमारे घर-परिवारों में महिलाओं के स्वास्थ्य के प्रति सजगता और गंभीरता की भारी कमी देखने को मिलती है। ख़ासतौर पर जब उनके प्रजनन अंग से जुड़ी समस्या हो। ब्रेस्ट में गांठ या वजाइना में हुए परिवर्तन पर शुरू में चुप्पी साध ली जाती है जिस वजह से उनकी समस्या समय के साथ विकराल रूप ले लेती है और उनकी जान तक चली जाती है। घर-परिवार में महिलाओं की समस्याओं को नज़रअंदाज करने वाले रवैये पर फेमिनिज़म इन इंडिया की मैनेजिंग एडिटर रितिका का कहना है, “जब मेरी दादी को कैंसर हुआ तो इसकी पहचान इस तरह से हुई की उनके वल्वा से खून आने लगा। इस पर घर पर लोगों को लगा कि अरे इस उम्र में उनको पीरियड्स कैसे शुरू हो गए। इस पर उनकी बहुत शर्मिदगी हुई घर की औरतों में ही इस विषय पर बहुत फुसफुसाकर बात हुई। परिवार के मर्दों को इस बारे में बात नहीं हुई। खुद हमारी दादी भी बहुत हिचक रही थी। फिर ये लगातार चलता रहा और पीरियड्स का कोई भरोसा नहीं है कभी भी वापस आ जाता है ऐसा कहकर कुछ समय तक टालते रहे।” 

वह आगे बताती है,” मेरी दादी के कपड़ों पर हमेशा खून के दाग लगे रहने लगे। आखिर में जाकर हमारे पापा को बताया गया। उन्हें इलाज के लिए फिर डॉक्टर के पास ले जाया गया। गायनोलॉजिस्ट ने भी सलाह दी की उनका यूटरस निकाल देते है सब सही हो जाएगा। हालांकि उस समय किसी ने नहीं सोचा था कि कोई और बीमारी भी हो सकती है। यूटरस निकालने को विकल्प बताकर समस्या खत्म करने की बात कही गई। इसके लगभग एक महीने बाद दादी के ऑपरेशन की तारीख पड़ी। जब ऑपरेशन के लिए ले जाया गया तब उस समय डॉक्टरों ने पाया कि उनका कैंसर पूरी तरह फैल गया है। इसके बाद डॉक्टर ने बताया कि उनको यूटरस कैंसर है और अब ऑपरेशन का कोई फायदा नहीं है। इस तरह से उनके मामले में लापरवाही होती रही और बिल्कुल आखिरी स्टेज पर हमें उनके कैंसर के बारे में पता चला। क्या पता वह कब से इसका सामना कर रही हो कि हमारी योनि से खून निकल रहा है और शर्मिंदगी की वजह से बता नहीं रही हो। इस तरह से मार्च 2010 में उनका कैंसर के बारे में पता चला और छह महीने के अंदर हमारी दादी की मौत हो गई।” महिलाओं के स्वास्थ्य के प्रति इस तरह की चुप्पी और लापरवाही बीमारी को बढ़ाने और मृत्यु की एक उन वजहों में से है जिसको टाला जा सकता है।

भारत में महिलाओं में कैंसर की स्थिति

49 वर्षीय सविता शर्मा एक गृहणी हैं। हाल ही उनका ब्रेस्ट कैंसर का इलाज हुआ है। आज से सात साल पहले उनकी छाती में एक गाँठ निकली जिसका उन्होंने उसी वक्त इलाज करा लिया था। पिछले साल उन्हें दोबारा परेशानी हुई और अचानक से उनकी ब्रेस्ट में गांठे बननी शुरू हो गई। जांच के बाद पता चला कि उन्हें ब्रेस्ट कैंसर है। लगभग एक साल होने वाला है इस बीच एक हॉस्पिटल से दूसरे हॉस्पिटल, टेस्ट, कीमो, ऑपरेशन और तनाव का उन्होंने और उनके परिवार से सामना किया है। इस पर उनका कहना है, “अब इन गुजरे वक्त को याद करते हुए लगता है कि सबकुछ एक तूफान की तरह आया और चला गया। घबराहट और चिंता शुरू में हुई, घर और बच्चों को लेकर बहुत सारे ख्याल आते थे। मैं उन लोगों में शामिल हूं जिसके पास सारी सुविधाएं, समय पर इलाज सबकुछ मिल गया। इसके बाद बस मैंने सोचा कि खुद को मजबूत रखकर ही इन सबसे निकल सकती हूं। यही सोच खुद पर हावी करी और इसका नतीजा है मैं अपने परिवार में बैठी हूं। बहुत आसान था निकलना ये नहीं कहूंगी लेकिन मेरी दोनों बेटियां ढ़ाल बनकर खड़ी रही और जिससे मुझे बहुत ताकत मिली।”

लैंगिक असमानताएं कैंसर के क्षेत्र में रिसर्च, प्रैक्टिस और नीति-निर्माण के रूप में महिला पेशेवरों की तरक्की में बाधा बन रही है। इस वजह से महिला केंद्रित कैंसर रिसर्च की कमी बनी हुई है। कैंसर वर्कफोर्स में लैंगिक उत्पीड़न और भेदभाव निपटने के लिए कानूनों और नीतियों की आवश्यकता है।

अध्ययन में भारत से जुड़े आंकड़ों पर बात की जाए तो शोध में पता चला है कि स्क्रीनिंग और इलाज में बढ़ोत्तरी करके महिलाओं की कैंसर से होने वाली 63 फीसदी मौतों को कम किया जा सकता है। इंडियन एक्सप्रेस में छपी ख़बर के मुताबिक़ वुमन, पॉवर एंड कैंसर रिपोर्ट में कहा गया है कि महिलाओं में कैंसर से होने वाली लगभग 6.9 मिलियन मौतों को रोका जा सकता था और 4.03 मिलयन का इलाज किया गया। भारत में महिलाओं में कैंसर के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। ग्लोबोकॉन के डेटा के मुताबिक़ 2020 में भारत में सभी तरह के कैंसर में से 13.5 ब्रेस्ट कैंसर के मामले सामने आए और जिसमें 10.6 प्रतिशत मौतें भी हुई।  

साल 2004 में हुए एक अध्ययन के मुताबिक़ भारत में सर्वाइकल कैंसर से जुड़े 130,000 नए मामले सामने आए थे जो कुल वैश्विक मामलों के एक चौथाई केस थे। इसके अतिरिक्त सर्विक्स में सेल्स की अनियंत्रित वृद्धि जैसे परिणामों की वजह से 74,000 महिलाएं सालाना अपनी जान गवां देती है। घर और स्वास्थ्य मॉडल दोंनो जगह महिलाओं के स्वास्थ्य को निचले स्तर पर रखे जाने के चलन को खत्म करना समय की पहली मांग है। यही वजह है कि स्वास्थ्य देखभाल के नारीवादी मॉडल को मांग हो रही है जिसमें सबतक समान पहुंच, साझा निर्णय लेने की विशेषता आधारित है। ऐसा मॉडल सामाजिक परिवर्तन ला सकता है जिससे स्वास्थ्य सेवाएं सुलभ और सभी के लिए फायदेमंद हो सकती है।


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