आधुनिकीकरण के इस दौर में शिक्षा और आज और भी जरूरी बन गया है, जहां यह युवाओं के लिए बेहतर रोजगार का एकमात्र जरिया है। शिक्षा के क्षेत्र में भले भारत सालों के प्रयासों से, शिक्षा नीतियों और सरकारी कार्यक्रमों से राइट टू एजुकेशन में सफल रहे हो। लेकिन महज स्कूल में दाखिले से शिक्षा का स्तर बेहतर नहीं हो सकता। कक्षाओं तक पहुंच सुनिश्चित होने के बावजूद शिक्षा के स्तर में आज भी भारी अंतर है। पिछले वर्षों में कोविड महामारी ने शिक्षा को बहुत अलग तरीके से प्रभावित किया है। जहां एक ओर ऑनलाइन शिक्षा का चलन शुरू हुआ, वहीं दूसरी ओर शिक्षा के माध्यम से सामाजिक और लैंगिक भेद सामने आए। ऐनुअल स्टेट्स ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर) 2023 के अनुसार कुल मिलाकर, 14-18 वर्ष के 86.8 फीसद बच्चे किसी शैक्षणिक संस्थान में नामांकित हैं। नामांकित न होने वालों का प्रतिशत 14-वर्षीय युवाओं के लिए 3.9 फीसद है और 18-वर्षीय युवाओं के लिए 32.6 फीसद है।
यह रिपोर्ट सिर्फ ग्रामीण जिलों में किया जाने वाला सर्वेक्षण है। इसलिए इसके आंकड़ों में दिखने वाले कमियां और लैंगिक भेद और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं। कोविड महामारी के बाद रोजगार के क्षेत्र में आज भी नौकरियों और वेतन में कटौती हो रही है। प्राइवेट संस्थानों में पढ़ाई का खर्च उठाना निम्न मध्यम वर्ग परिवारों के लिए या तो संभव नहीं, या तो एक अतिरिक्त खर्च है जिसे वह मजबूरन अच्छी शिक्षा की चाह में उठा रहे हैं। ऐसे में सरकारी संस्थानों का आकलन भी जरूरी है। असर रिपोर्ट के अनुसार युवाओं में 14 वर्ष के आयु वर्ग में 72 फीसद छात्र सरकारी संस्थानों में नामांकित हैं। वहीं 18 वर्ष के उम्र वर्ग में यह आंकड़ा लगभग 44 फीसद है।
अध्ययन में सर्वेक्षण किए गए युवाओं के आयु समूह के बीच पढ़ने और समझने की क्षमता पर भी नज़र डाली गई है। इसमें कुछ बेहद चिंताजनक नतीजे निकल कर सामने आए हैं। रिपोर्ट के अनुसार 14-18 वर्ष के लगभग 25 फीसद बच्चे अभी भी अपनी क्षेत्रीय भाषा में कक्षा 2 स्तर का पाठ धाराप्रवाह नहीं पढ़ सकते हैं। आधे से अधिक लोग विभाजन यानि डिविशन (3-अंकीय का 1-अंक से) करने में समस्या से जूझते हैं। हालांकि यह दोनों ही ऐसी चीज है जिसकी आमतौर पर तीसरी या चौथी कक्षा के बच्चों से अपेक्षा की जाती है।
क्या शिक्षा के बुनियादी स्तर में है सुधार
साल 2020 में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) लॉन्च की गई थी। यह नीति हमारी शिक्षा प्रणाली को मजबूत करने और विद्यार्थियों को तैयार करने के लिए तीन साल के उम्र से विश्वविद्यालय तक के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा कैसे प्रदान की जाए, इसपर व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। लेकिन दिखने में यह जितना आकर्षक लगता है, शायद व्यावहारिक तौर पर देश में यह अबतक संभव नहीं हो सका है। असर रिपोर्ट के अनुसार 14-18 आयु वर्ग के महज 45 प्रतिशत युवा बुनियादी अंक गणित जानते हैं। बाकियों को इन बुनियादी कौशलों को हासिल करने की जरूरत है। इस रिपोर्ट के अनुसार 14-18 आयु वर्ग के लगभग एक चौथाई युवाओं को मूलभूत साक्षरता और संख्यात्मकता सीखने की आवश्यकता हो सकती है।
देश में चुनिंदा सरकारी कॉलेजों का भले नाम हो, हजारों ऐसे कॉलेज और स्कूल हैं जहां शिक्षा के लिए शिक्षक, लैब, स्कूल में शौचालय, सही तरीके से निर्मित स्कूल का इमारत तक मौजूद नहीं। ऐसे में शिक्षा एक अतिरिक्त खर्च है। अक्सर निजी स्कूलों में पढ़ने के बावजूद बच्चों को प्राइवेट ट्यूशन दिया जाता है। निजी संस्थानों में साधारण स्नातक या बच्चों की पढ़ाई में भी लाखों रुपए लगते हैं। आज निम्न मध्यम वर्ग परिवारों में शिक्षा का खर्च एक हद तक समस्या बन चुका है। यह पिछले वर्ष विभिन्न सरकारी विश्वविद्यालयों और आईआईटी जैसे संस्थानों में फीस वृद्धि पर विरोध की खबरों से समझा जा सकता है।
क्या युवाएं उचित रूप से कौशल सीख रहे हैं
जहां आज देश में युवाओं को महत्व दी जा रही है। इसलिए यह जरूरी है कि युवाएं न सिर्फ सही और बुनियादी शिक्षा प्राप्त करे, बल्कि रोजगार के बाजार के हिसाब से कौशल सीखे और सही निर्णय लेने में सफल हो। जहां असर की रिपोर्ट शिक्षा के स्तर में बुनियादी कमियां जाहिर करती है, वहीं रिपोर्ट के अनुसार हर पांच में से एक युवा किसी भी प्रकार के काम या नौकरी का नाम बताने में असमर्थ हैं, जिसकी वे इच्छा रखते हैं। यह प्रवृत्ति विद्यार्थियों में स्पष्टता की कमी पर प्रकाश डालता है, जो उनके भविष्य के लिए हानिकारक साबित हो सकता है। रिपोर्ट में साझा किए गए आंकड़ों के अनुसार, सर्वेक्षण में शामिल विद्यार्थियों में से 42.5 फीसद पुरुषों और 48.3 फीसद महिलाओं के पास अपनी इच्छा अनुसार काम के कोई रोल मॉडल नहीं है। आज जब हम आए दिन युवाओं के रहन-सहन, पढ़ाई से लेकर निजी जीवन तक पर सवाल खड़े करते हैं, तब यह जरूरी है कि हम शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में किस तरह की प्रणाली, वातावरण और उदाहरण पेश कर रहे हैं, उसकी जांच हो।
जहां एक ओर इंटर्नशिप या ट्रैनिंग को आज के दिनों में बढ़ावा दिया जाता है। वहीं यह भी जरूरी है कि शिक्षा के मामले में बुनियादी सीख में कमी न हो। यह रिपोर्ट बताती है कि 14-18 आयु वर्ग के 33.7 फीसद युवाओं ने पिछले महीने में 15 दिनों से अधिक काम किया है। इसमें घरेलू काम शामिल नहीं है। जो बच्चे वर्तमान में नामांकित नहीं हैं उनमें से 55 फीसद काम करते हैं। अध्ययन में पाया गया कि 28 फीसद महिलाओं की तुलना में 40 से अधिक प्रतिशत पुरुष पिछले महीने के दौरान कम से कम 15 दिनों के लिए घरेलू काम के अलावा अन्य काम किए हैं। वहीं जब यह घरेलू काम नहीं होता, तो युवा पारिवारिक कृषि के कामों में लगे पाए जाते हैं।
शिक्षा और नामांकन में भेदभाव
बेशक हालिया सरकार बच्चों के नामांकन पर जोर देती रही है। उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण (आइशी) के अनुसार उच्च शिक्षा में साल 2020-21 में कुल नामांकन 4.14 करोड़ से भी अधिक रहे। यह संख्या साल 2014-15 में 3.42 करोड़ था। साल 2020-21 में अनुसूचित जाति के छात्रों का नामांकन 58.95 लाख है जबकि अनुसूचित जाति के छात्राओं का नामांकन 2020-21 में बढ़कर 29.01 लाख हुआ है। अनुसूचित जनजाति विद्यार्थियों का नामांकन साल 2014-15 में 16.41 लाख से बढ़कर 2020-21 में 24.1 लाख हुआ है। वहीं दूरस्थ शिक्षा में नामांकन का संख्या 45.71 लाख है जबकि इसमें 20.9 लाख महिलाएं हैं। साफ तौर पर किशोरियों और महिलाओं के मामले में न सिर्फ शिक्षा मुश्किल है बल्कि नामांकन भी मुश्किल है।
शिक्षा मंत्रालय के UDISE+ के रिपोर्ट अनुसार, भारत में प्राथमिक, उच्च प्राथमिक और उच्च माध्यमिक स्तरों पर स्कूली बच्चों का सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) पिछले वर्ष की तुलना में 2021-22 में बेहतर हुआ है। असर की रिपोर्ट को माने तो 33.4 फीसद महिलाओं के मुकाबले 31.6 फीसद पुरुषों ने अपना नामांकन कहीं भी नहीं कराया है। रिपोर्ट के अनुसार 18.2 फीसद लड़कियां और 16.7 फीसद लड़के डॉक्टर या इंजीनियर बनने की इच्छा रखते हैं। लेकिन जहां 36.3 फीसद लड़कों ने स्टेम पाठ्यक्रम चुना, वहीं केवल 28 फीसद लड़कियों ने ऐसा पाठ्यक्रम चुना।
क्या है महिलाओं के शिक्षा का हाल
हालांकि नई शिक्षा नीति में कई नई चीजों, पद्धतियों, शिक्षा के सभी स्तर पर बेहतरी के लिए जोर दिया गया है। लेकिन जमीनी सच्चाई कुछ और ही बताती है। साथ ही, भारतीय शैक्षिक व्यवस्था में नई शिक्षा नीति को अपनाने के लिए बुनियादी ढांचा कितना मौजूद है, ये भी विचार का विषय है। राइट टू एजुकेशन के अनुसार 6 वर्ष से 14 वर्ष की आयु के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करना है। लेकिन यह अधिनियम इसके बाद की शिक्षा को न ही अनिवार्य करता है और न ही इसे सुनिश्चित करता है। किशोरियों के मामले में आर्थिक रूप से परिवार का कमजोर स्थिति, जल्दी शादी, घरेलू काम और पीरियड्स में स्वच्छता उत्पादों की कमी ड्रॉप आउट के अहम कारणों में से हैं। असर रिपोर्ट के अनुसार 66 फीसद पुरुषों के मुकाबले 86 महिलाओं ने दैनिक रूप से घरेलू काम करने की सूचना दी। आज के दौर में डिजिटल तौर पर भी पढ़ाई की जा रही है। रिपोर्ट के अनुसार लगभग 90 फीसद युवाओं के पास घर में स्मार्टफोन है और वे इसका उपयोग करना जानते हैं। जो लोग स्मार्टफोन का उपयोग कर सकते हैं, उनमें से 43.7 फीसद पुरुषों के पास अपना स्मार्टफोन रखने की संभावना है जबकि यह प्रतिशत महिलाओं के लिए महज 19.8 फीसद है।
बात कंप्युटर की करें, तो घरों में कंप्यूटर या लैपटॉप की उपलब्धता बहुत कम है। केवल 9 प्रतिशत प्रतिभागियों के पास घर पर कंप्यूटर है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं को स्मार्टफोन या कंप्यूटर का उपयोग करने की समझ कम पाई गई। सरकार के पास भले ही नामांकन की समस्या ही सर्वप्रथम हो, लेकिन वैश्विक स्तर पर बेहतर रोजगार के लिए और टीके रहने के लिए शिक्षा की गुणवत्ता और कौशल जरूरी है। आर्थिक तौर पर परिवार की मदद करने के क्रम में युवाओं का भविष्य संकुचित न हो, इसके लिए जमीनी तौर पर काम करने की जरूरत है। साथ ही, डिजिटल होती दुनिया में डिजिटल ज्ञान को हकीकत बनाने के लिए नीतिगत बदलाव और पुरजोर काम करने की जरूरत है।