लेबनानी, कनाडाई फिल्म निर्माता, अभिनेत्री और कार्यकर्ता फिल्मों के बारे में कहते हैं, सिनेमा केवल लोगों को सपने दिखाने के बारे में नहीं है। यह चीज़ों को बदलने और लोगों को सोचने पर मजबूर करने के बारे में है। लेकिन इन्हीं फिल्मों में कई वर्षों तक महिलाएं शामिल नहीं थीं। अगर शमिल थीं भी तो महज पुरुष किरदार को मज़बूत दिखाने के लिए। नारीवाद आंदोलन की दूसरी लहर में नारीवादी फिल्म सिद्धांत का उदय हुआ था। बहुत ही आसान भाषा में यूं समझें कि आज जो फिल्मों में महिलाओं को देखते हैं, केंद्र में महिला किरदार को देखते हैं, वह इसी नारीवादी आंदोलन से निकला।
क्या है नारीवादी फिल्म सिद्धांत
नारीवादी फिल्म सिद्धान्त का फल है। क्या है नारीवादी फिल्म सिद्धांत? नारीवादी फिल्म सिद्धांत एक सैद्धांतिक फिल्म आलोचना है, जो नारीवादी राजनीति और नारीवादी सिद्धांत से ली गई है। यह दूसरी लहर के नारीवाद से प्रभावित है और संयुक्त राज्य अमेरिका में 1970 के दशक के आसपास लाई गई थी। प्रोफेसर एनेके स्मेलिक, लिखती हैं, “नारीवादी फिल्म सिद्धांत ने एक ओर शास्त्रीय सिनेमा को उसके महिलाओं के रूढ़िवादी प्रस्तुतिकरण के लिए आलोचना की दूसरी ओर ऐसे महिला सिनेमा की संभावनाएं जताई जो स्त्री इच्छा, और महिला विषयपरकता का प्रतिनिधित्व कर सकता है।” नारीवादी फिल्म सिद्धांत, फिल्मों में, विजुअल सिनेमैटिक फील्ड में महिलाओं के किरदारों को कैसे बुना जा रहा है, उनकी जगह, स्क्रीन टाइम कितना रखा जा रहा है और किस तरह का चरित्र महिला किरदारों के माध्यम से दर्शकों तक पहुंचाई जा रही है का विश्लेषण करता है।
नारीवादियों का कहना है, मीडिया में जेंडर का प्रतिनिधित्व पितृसत्तात्मक समाज के मूल्यों को कायम और मजबूत करता है। पुरुषों को मजबूत, सक्रिय भूमिकाओं में रखा जाता है जबकि महिलाओं को निष्क्रिय और केवल ‘सुंदर’ के रूप में दिखाया जाता है। ‘महिला’ जेंडर के किसी एक व्यक्ति का प्रतिनिधित्व नहीं करती, बल्कि एक रूढ़िवादिता, पुरुषों द्वारा परिभाषित और पुरुषों के विरोध में एक श्रेणी का प्रतिनिधित्व करती है। नारीवादी फिल्म सिद्धांत के विस्तार पूर्वक चिंतन का प्रथम, अधिक श्रेय ब्रिटिश नारीवादी फिल्म विचारक लौरा मुलवे का नाम सबसे पहले लिया जाता है। उनके विचार, प्रसिद्ध काम, उनके द्वारा लिखित निबंध ‘विजुअल प्लेजर एंड नैरेटिव सिनेमा (1975)’ के माध्यम से जनता के बीच पहुंचे।
सिनेमा में पुरुषों और महिलाओं की अलग-अलग स्थिति
मोडलेस्की के अनुसार यह लेखन नारीवादी फ़िल्म सिद्धांत का संस्थापक दस्तावेज़ है। इसमें लौरा ने पहली बार यह तर्क मजबूती से पेश किया कि सिनेमा में पुरुषों और महिलाओं की अलग-अलग स्थिति होती है। पुरुष उन एजेंटों के साथ पहचान करने वाले विषय के रूप में हैं, जो फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाते हैं। महिलाएं मर्दाना इच्छा और कामोत्तेजक निगाहों की वस्तु के रूप में दिखाई जाती हैं। पहली नारीवादी फिल्म प्रारंभ में संयुक्त राज्य अमेरिका में 1970 के दशक की शुरुआत में नारीवादी फिल्म सिद्धांत आम तौर पर समाजशास्त्रीय सिद्धांत पर आधारित था और फिल्म कथाओं या शैलियों में महिला पात्रों के कार्य पर केंद्रित था। नारीवादी फिल्म सिद्धांत, जैसे मार्जोरी रोसेन की पॉपकॉर्न वीनस: वीमेन, मूवीज, एंड द अमेरिकन ड्रीम (1973) और मौली हास्केल की फ्रॉम रेवरेंस टू रेप: द ट्रीटमेंट ऑफ वीमेन इन मूवीज (1974) उन तरीकों का विश्लेषण करती है जिनमें महिलाओं को फिल्म में चित्रित किया जाता है, और यह व्यापक ऐतिहासिक संदर्भ से कैसे संबंधित है।
फिल्म और इंटरसेक्शनलिटी
1980 के दशक तक आते आते यह सिद्धांत इंटरसेक्शनल होता है और आज की स्थिति हमारे सामने है। लेकिन आज की स्थिति पर नज़र डालने से पहले, पहली नारीवादी फिल्म का ज़िक्र न किया जाए तो यह इस सिद्धांत के जानने के बारे में चूक होगी। 1922 में, फ्रांसीसी लेखक, आलोचक और निर्देशक जर्मेन दुलैक ने अतियथार्थवाद-पूर्व मूक फिल्म ला सौरिएंटे मैडम ब्यूडेट (द स्माइलिंग मैडम ब्यूडेट) का निर्देशन किया, इसे सही मायनों में पहली नारीवादी फिल्म के तौर पर देखा जाता है। यह फिल्म कहानी है एक बुद्धिमान महिला की कहानी है को प्रेमरहित शादी में फंसी हुई है। उसका पति खुद पर बंदूक तानते हुए जान से मरने की बातें करता रहता है।
एक दिन मैडम ब्यूडेट बंदूक में सच्ची गोलियां भर लेती हैं। पश्चाताप होने पर गोलियां निकालने से पहले बंदूक पति के हाथों में आ जाती है। लेकिन इस बार वह बंदूक खुद की कनपटी पर रखने की बजाय मैडम की कनपटी पर रख देता है। गोली ब्यूडेट के बालों से होकर गुज़र जाती है। पति को लगता है, वह खुद मरना चाहती है और इस विचार से निकालने के लिए वह उसे इंतहा प्रेम देना शुरू कर देता है। फिल्म को नारीवादी बनाया है। पूरी फिल्म मैडम की नज़र से चलती है। वह क्या सोच रही है, वह कैसे अपने पति को देख रही है। वह कैसे रिएक्ट कर रही है। पूरी तरह से एक महिला के लेंस से बनी है। यह फिल्म ग्यू डी मौपस्संत द्वारा लिखित एक कहानी पर आधारित है। यह 38 मिनट की एक शॉर्ट फिल्म है।
भारतीय हिंदी सिनेमा में नारीवादी फिल्म सिद्धांत की स्थिति
बागची (1996) और राम (2022) के अनुसार लैंगिक भूमिकाओं के बारे में विचारों को आकार देने में सिनेमा एक आवश्यक भूमिका निभाती है। भारतीय संदर्भ में महिलाओं को पुरुषों में अधीनस्थ भूमिकाएं निभाने के योग्य माना जाता है। हिंदी सिनेमा में महिला किरदारों की भूमिका अच्छी मां बने रहने पर खूब बुनी गई है। फिल्म घर हो तो ऐसा में एक नारीवादी महिला को शादी और परिवार को तोड़ने के रूप में दिखाया गया है।
भारतीय फिल्मों के अपने अध्ययन में, गोकुलसिंग और डिसनायके (2004) ने पाया कि महिलाओं को व्यावसायिक फिल्म क्षेत्र में दो प्रमुख प्रकार की भूमिकाएं दी गईं। माँ की (जिसकी विशेषताएँ उसके सर्वोच्च रूप से मेल खाती हैं) और पत्नी जिसकी विशेषताएं सीता के पौराणिक चरित्र पर आधारित हो जो (पति के प्रति अत्यधिक समर्पण का प्रतीक है)। ऐसी परिस्थितियों के मद्देनजर दास गुप्ता कहती हैं, “व्यावसायिक हिंदी फिल्मों में आदर्श भारतीय महिला का रूढ़िवादी चित्रण नारीवादियों के बीच चिंता का विषय रहा है।” हिंदी सिनेमा में पहली नारीवादी फिल्म की श्रेणी में 1936 में बनी।
क्या भारतीय नारीवादी फिल्में समावेशी है
वी शांताराम द्वारा निर्देशित एवं प्रभात फिल्म कंपनी द्वारा निर्मित ‘अमर ज्योति’ का नाम लिया जाता है। यह फिल्म कहानी थी एक विद्रोही महिला रानी की जो पितृसत्तात्मक रवैये से तंग आने पर एक समुद्री डाकू बन जाती है। सौदामिनी का किरदार निभा रही दुर्गा खोटे को अपना बच्चा रानी द्वारा नहीं सौंपा जाता क्योंकि वह अपने पति से अलग हो जाती है। ऐसी परिस्थिति में वह अपने बच्चे को पाने के लिए डाकू बन जाती है। ऐसी कहानियों से गुजरकर हिंदी सिनेमा ने महिला केंद्रित कई फिल्में बुनीं। मदर इंडिया, बैंडिट क्वीन, बंदिनी आदि। वर्तमान में ऐसी फिल्में बन रही हैं जैसे थप्पड़, पिंक, क्वीन, गंगूबाई काठियावाड़ी आदि। हालांकि हिंदी सिनेमा में नारीवादी फिल्मों में अभी भी इंटरसेक्शनलिटी देखने को कम ही मिलती है। नीरज घेयवान की गीली पुच्ची, फिल्म सर काफ़ी सुर्खियों में आई थी जिसमें दलित महिला केंद्र में थी। हालांकि उन्हें निभाने वाली अभिनेत्री दलित नहीं थीं।
भारतीय हिंदी सिनेमा में सवर्ण महिलाएं आगे निकलकर आ रही हैं। ज़ोया अख्तर, एकता कपूर जैसी निर्देशक इस काम को खासा कर रही हैं। लेकिन दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक महिलाएं फिल्म इंडस्ट्री में बतौर कैमरापर्सन, निर्देशक, लेखक देखने को कम ही मिलती हैं। तो ऐसे में क्या भारतीय हिंदी सिनेमा की नारीवादी फिल्मों में समाज के हर वर्ग, जाति, धर्म और समुदाय की महिलाओं का प्रतिनिधित्व हो पाएगा? शायद नहीं क्योंकि सवर्ण किरदार केंद्रित महिला फिल्में हाशिए पर धकेली जा चुकी महिलाओं का संघर्ष उस तरह उजागर नहीं कर सकती। जब ये फिल्में समावेशी होने के आसपास भी नहीं भटक रही हैं ऐसे में भारतीय सिनेमा को अपने अंदर के नारीवादी तत्व को टटोलने और खोज निकालने की जरूरत है।