संस्कृतिसिनेमा लैंगिक हिंसा के मुद्दे पर आधारित आठ महत्वपूर्ण फिल्में जो हमें देखनी चाहिए

लैंगिक हिंसा के मुद्दे पर आधारित आठ महत्वपूर्ण फिल्में जो हमें देखनी चाहिए

यह फिल्में महिलाओं के अधिकारों, न्याय की लड़ाई, पितृसत्ता, और उन संघर्षों को दिखाती हैं, जिसका महिलाएं, क्वीयर और ट्रांस समुदाय के व्यक्ति हर रोज़ सामना करते हैं। ये फिल्में केवल हिंसा को सामने नहीं लाती, बल्कि उस संरचना को भी चुनौती देती हैं जो इस हिंसा को जन्म देती है।

आजकल महिलाओं के खिलाफ लैंगिक हिंसा के मामले दिन प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं। यह हमारे समाज की उन समस्याओं में से एक है, जिसे अक्सर हम या तो अनदेखा कर देते हैं या सामान्य मानकर स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन डर और शर्म के कारण बात नहीं कर पाते हैं। ऐसे में सिनेमा मनोरंजन के साथ -साथ लैंगिक हिंसा से जुड़ी हुई, बहुत-सी कहानियों को फिल्मों के माध्यम से सामने लाता है। यह फिल्में महिलाओं के अधिकारों, न्याय की लड़ाई, पितृसत्ता, और उन संघर्षों को दिखाती हैं, जिसका महिलाएं, क्वीयर और ट्रांस समुदाय के व्यक्ति हर रोज़ सामना करते हैं। ये फिल्में केवल हिंसा को सामने नहीं लाती, बल्कि उस संरचना को भी चुनौती देती हैं जो इस हिंसा को जन्म देती है। इसीलिए, लैंगिक हिंसा पर बनी इन फिल्मों को देखना ज़रूरी है, ताकि हम समझ सकें, सवाल पूछ सकें और अपने खिलाफ हो रही हिंसा का विरोध कर सकें। 

1- पार्च्ड

साल 2015 में आई लीना यादव की फिल्म ‘पार्च्ड’ समाज में मौजूद रूढ़िवादी सोच, लैंगिक भेदभाव, महिलाओं के खिलाफ हिंसा, बाल विवाह, पुरुष प्रधानता, घरेलू हिंसा, मैरिटल रेप, दहेज प्रथा, सेक्सवर्कर्स की समाज में स्थिति को अच्छे तरीके से दिखाती है। इसकी कहानी राजस्थान की तीन महिलाओं के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती हुई दिखाई गई है। इसमें रानी (तनिष्ठा चटर्जी) एक विधवा महिला के रोल में है, वह अपने बेटे गुलाब का रिश्ता पड़ोसी गांव की एक कम उम्र की लड़की जानकी (लेहर खान) से करवा देती है। शादी से बचने के लिए जानकी अपने लंबे बाल तक काट लेती है, लेकिन इसके बावजूद उसकी शादी गुलाब से हो जाती है। लंबे बाल न होने की वजह से शादी के बाद उसे रोजाना शारीरिक और यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है। 

वहीं दूसरी और रानी की एक सहेली लाजो (राधिका आप्टे) शादी के बाद मां नहीं बन सकी तो उसका शराबी पति उसे रोजाना बुरी तरह से पीटता है, जबकि समस्या उसके पति में है। वहीं रानी की एक और सहेली  बिजली (सुरवीन चावला) एक स्थानीय नर्तकी है और सेक्स वर्क का काम करती है, जिसे समाज में सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता। तीनों नायिकाएं अपनी यौन इच्छाओं पर खुलकर बातें करती हैं। फिल्म दिखाती है किस तरह पुरुष अपनी सेक्सुअल जरूरतों को ‘मर्दानगी’ का नाम देते हैं। लेकिन महिलाओं की सेक्सुअल जरूरत को कोई नहीं समझता। इस फिल्म से यह सीख मिलती है कि लैंगिक हिंसा पर जब तक आवाज नहीं उठाई जाएगी तब तक महिलाओं को हिंसा का सामना करना पड़ेगा। 

2- बोल

फिल्म निर्माता और निर्देशक शोएब मंसूर की साल 2011 की फिल्म बोल’ एक पाकिस्तानी उर्दू भाषा की सामाजिक ड्रामा फिल्म है।इसमें लैंगिक हिंसा, गरीबी, जेंडर आधारित हिंसा और समाज की रूढ़िवादी सोच वाली विचारधारा को बहुत गहराई से दिखाया गया है। फिल्म की शुरुआत जेल में बंद ज़ैनब (हुमैमा मलिक) नाम की एक महिला से होती है, जिसे फांसी दी जानी है। वह आखरी इच्छा के रूप में अपनी कहानी सबको बताती है कि कैसे उसका परिवार लाहौर में आकर बसा। यहीं पर उसके पिता हकीम की सुरैया से शादी होती है। शादी के बाद एक बेटे की उम्मीद में सात बेटियों को जन्म दिया और इसके बाद जब आठवां बच्चा इंटरसेक्स शारीरिक पहचान के साथ पैदा हुआ, जिसे वह मारना चाहता था।

 वह उससे नफ़रत करता रहा और उसे कभी अपनाता नहीं है। लेकिन उसकी सभी बहनें मिलकर उसे बहुत प्यार से पालती हैं और उसका नाम सैफुल्लाह रखती हैं, जिसे प्यार से सैफी बुलाती हैं। वह अपनी दकियानूसी सोच के कारण अपनी बेटियों और पत्नी पर जुल्म करता है, उन्हें घर में कैदी की तरह रखता है। यहां तक कि कभी उन्हें घर से बाहर नहीं निकलने देता। हालांकि जब सैफ़ी को घर से बाहर काम पर भेजते हैं, तब उसकी लैंगिक पहचान के कारण उसे यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है। इस फिल्म को देखकर पता चलता है कि किस तरह समाज और परिवार एक व्यक्ति को अपनी लैंगिकता और यौनिकता  को छुपाने का दबाव डालता है और उन्हें अपने नियंत्रण में रखने की कोशिश करता है। जबकि हर एक इंसान को अपनी इच्छा अनुसार जीवन जीने का हक है। 

3- छपाक

साल 2012 की फ़िल्म ‘छपाक’ एसिड अटैक सरवाईवर लक्ष्मी अग्रवाल की ज़िंदगी पर आधारित है। ये फिल्म पितृसत्ता की वजह से पनपने वाली आपराधिक मानसिकता को दिखती है, और सीधे तौर पर समाज के बनाए मर्दों की उस रूढ़िवादी मानसिकता को सामने लाती है, जिन्हें ना का मतलब समझ नहीं आता है। फ़िल्म के अंत में दिखाया गया है कि अभी भी एसिड अटैक बंद नहीं हुए है। जब कोई लड़की किसी लड़के को रिजेक्ट करती है तो लड़का उसे सबक सिखाने की धमकियां देता है। फिर ऐसी धमकियों को अंजाम तक लाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, एसिड अटैक और कई बार बलात्कार जैसे रास्ते। इस फिल्म में एसिड की खुली बिक्री पर रोक लगाने की बात की गई है। 

साथ ही पुरुषों और लड़कों को समझना होगा कि किसी लड़की का मना करना बिल्कुल ठीक है, और उस रिजेक्शन को शांत मन से स्वीकार करना चाहिए। हमें पितृसत्ता और ज़बरदस्ती वाली मर्दानगी को छोड़कर ऐसे पुरुषों को बढ़ावा देना होगा जो भावुक, संवेदनशील और समझदार हों। जब पुरुष अपनी भावनाओं को समझेंगे और सम्मान देना सीखेंगे, तभी महिलाओं के खिलाफ हिंसा कम होगी और हम एक बेहतर और सुरक्षित समाज बना पाएंगे।

4- डार्लिंग्स

डार्लिंग्स साल 2022 की ब्लैक कॉमेडी फिल्म है, जिसे जसमीत के. रीन ने सह-लिखित और निर्देशित किया है। यह एक माँ-बेटी की जोड़ी के अपमानजनक शादी के बाहर निकलने की कहानी है। बदरुनिस्सा शेख (बदरू) और शमशुन्निसा अंजारी (शमशु), जिनका किरदार आलिया भट्ट और शेफाली शाह ने निभाया है। बदरु अपने सरकारी कर्मचारी पति हमज़ा शेख (विजय वर्मा) के साथ एक चोल में रहती है, जो उसे गुस्सा होकर रात भर हमेशा पीटता रहता है, और अगले दिन वह अपने गुस्से और गाली-गलौज को अपनी शराब की लत का नाम देकर, प्यार का इज़हार करके उससे सुलह करने की कोशिश करता है। लेकिन शमशु हमज़ा के स्वभाव को अच्छी तरह समझ जाती है और अपनी बेटी से इस अपमानजनक शादी को छोड़ने के लिए कहती रहती है। 

लेकिन बदरू अपने पति के प्यार  में अटूट विश्वास के साथ डटी रहती है और उम्मीद करती है कि वह उसके व्यवहार को सुधार देगी। यह फिल्म  उन अनगिनत महिलाओं को आईना दिखाती है जिन्हें पितृसत्ता के रूढ़िवादी ढांचे ने यह मानने के लिए मजबूर कर दिया है कि प्यार और दुर्व्यवहार साथ-साथ हो सकते हैं। लेकिन उसकी उसकी मां ने उसे इस शोषणकारी रिश्ते से बाहर निकलने में मदद की और एक मिसाल कायम भी की, कि ऐसे अपमानजनक और भोझ भरे शादी के बंधन में रहकर रोज़ाना हिंसा का सामना करने से बेहतर है। अकेले रहकर अपनी मर्ज़ी अनुसार आज़ादी से जीवन जीना।  

5-प्रोवोक्ड

साल 2006 में आई फिल्म प्रोवोक्ड वास्तविक घटनाओं पर आधारित एक बेहद प्रभावशाली  फिल्म है, यह  इंग्लैंड की एक महिला की दुर्दशा और उसके मामले को दिखाती है। इस फिल्म में ऐश्वर्या राय ने किरणजीत आहलुवालिया का किरदार निभाया है। जो उन अनगिनत महिलाओं की आवाज़ बनता है, जो सालों तक घरेलू हिंसा के दायरे में फंसी रहती हैं, लेकिन समाज, परिवार और कानून की उदासीनता के कारण चुप रहने को मजबूर होती हैं। फिल्म की कहानी लंदन में बसे एक भारतीय दंपत्ति से शुरू होती है। शादी के बाद किरण अपने पति दीपक के साथ एक बेहतर जीवन की उम्मीद लेकर जाती है। लेकिन शादी के बाद उसका पति उसके साथ लगातार यौन हिंसा और शारीरिक हिंसा करता है और शादी के बाद 10 सालों तक वो उसके शोषण का सामना करती है।

एक रात लगातार हुई पिटाई के बाद, दहशत में जी रही किरण अचानक उसका विरोध करती है और उसे आग लगा देती है। मौके पर पहुंची पुलिस किरण को बाहर सदमे की हालत में पाती है। दीपक कहता है कि उसकी पत्नी ने उसे आग लगाई है, और वह इससे इनकार नहीं करती। किरण पर हत्या का केस चलता है और उसे जेल हो जाती है। लेकिन उसका मामला एक महिला अधिकार समूह उठाता है, और यह साबित करने की कोशिश करता है कि उसने जो किया, वो लंबे समय से चली आ रही हिंसा के डर की प्रतिक्रिया थी। यह फिल्म दर्शकों को यह सोचने पर मजबूर करती है कि हम हिंसा को अक्सर अनदेखा कर देते हैं, जिसका परिणाम आखिर में खतरनाक रूप ले लेता है । 

6 -थप्पड़

साल 2020 में आई फिल्म थप्पड़, अनुभव सिन्हा की सबसे खूबसूरत फिल्म है। जो घरेलू हिंसा की शुरुआत कहां से होती है, इस प्रश्न को सबसे सरल लेकिन सबसे प्रभावशाली तरीके से सामने रखती है। यह फिल्म बताती है कि हिंसा केवल तब नहीं होती जब एक महिला को बार-बार मारा जाए, बल्कि तब भी होती है जब समाज यह मान लेता है कि एक थप्पड़ तो चलता है, गुस्से में हो गया होगा, इससे रिश्ते थोड़ी टूटते हैं। 

यह विक्रम (पावेल गुलाटी) और अमृता (तापसी पन्नू) की कहानी है। एक पार्टी में, पति अपनी पत्नी को थप्पड़ मार देता है। इससे उनकी शादी टूट जाती है, हालांकि लगभग सभी को लगता है कि यह एक बार की बात थी, और अमृता विक्रम को छोड़कर नासमझी कर रही है। फिल्म इसे बहुत खूबसूरती से दिखाती है कि कभी-कभी महिलाओं का सबसे बड़ा संघर्ष बाहरी हिंसा से नहीं, बल्कि समझौते के लिए मजबूर करने वाली सामाजिक मानसिकता से होता है। यह दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम अभी भी ऐसे समाज में जी रहे हैं, जहां महिलाओं से उम्मीद की जाती है कि वे चुप रहें, सह लें, और परिवार और रिश्ता बचाने के नाम पर अपना आत्म-सम्मान खो दें।

7 – पिंक 

अनिरुद्ध रॉय चौधरी की साल 2016 की फ़िल्म ‘पिंक’, भारतीय सिनेमा की उन महत्वपूर्ण फिल्मों में से एक है, जिसने लैंगिक हिंसा, सहमति और पितृसत्ता के गहरे जाल को सीधे तौर पर सबके सामने रखा है । फिल्म की कहानी दिल्ली में रहने वाली तीन युवा महिलाओं मीनल (तापसी पन्नू), फलक (कृति कुल्हारी), और एंड्रिया (एंड्रिया तारियांग) के इर्द-गिर्द घूमती है। तीनों अलग-अलग जगह नौकरी करती है। एक दिन तीनों किसी रॉक शो मे जाती है जहां उनकी मुलाकात राजवीर (अंगद बेदी) और उसके दोस्तों से होती है। वह उन्हें किसी रिसॉर्ट में खाने का निमंत्रण देते हैं जिसे वह मान लेती है। वहां  पर राजवीर मीनल के साथ उसके बार-बार मना करने पर भी उससे जबरदस्ती करता है। जब मीनल आत्मरक्षा में राजवीर पर बोतल मारती है, तो अगले ही दिन लड़के उन पर हिंसा और हत्या की कोशिश जैसे आरोप लगा देते हैं।

अदालत में राजवीर का वकील प्रशांत महरा (पीयूष मिश्रा) तीनों लड़कियों को सेक्स वर्कर साबित करने की कोशिश करता है। यहां तक कि यह भी कहा जाता है कि लड़कियों का चरित्र ठीक नहीं है और उन्होंने राजवीर से पैसे मांगे थे, जिसको न देने पर उन्होंने उस पर हमला कर दिया। इससे यह साफ दिखाई देता है कि किस तरह समाज महिलाओं को बिना किसी दोष के भी अपराधी घोषित कर देता है। हालांकि इस फिल्म में महिलाएं ये केस जीत गई, क्योंकि उन्होंने उस हिंसा के खिलाफ आवाज उठाई थी जो उन पर जबरदस्ती थोपी जा रही थी । 

8- आर्टिकल 15

निर्देशक अनुभव सिन्हा की साल साल 2016 की फिल्म आर्टिकल 15,की कहानी मुख्य रूप से दलित लड़कियों के बलात्कार और उनकी हत्या पर केन्द्रित केस पर आधारित है।  फिल्म के अभिनेता अयान रंजन (आयुष्मान खुराना) उन लड़कियों के बारे में अपने सीनियर अधिकारी को बताते हुए कहते हैं कि ये तीन लड़कियां अपनी दिहाड़ी में सिर्फ तीन रुपया एक्स्ट्रा मांग रही थी। तीन रुपये जो आप मिनरल वाटर पी रहे हैं, उसके दो या तीन घूंट के बराबर। उनकी इस गलती की वजह से उनका रेप हो गया सर उनको मारकर पेड़ पर टांग दिया गया ताकि पूरी जात को उनकी औकात याद रहे।

 हिंसा के इन घिनौने चेहरों को हम किसी भी दलित महिला के साथ होने वाले बलात्कार की घटना में देख सकते है, जिसमें न केवल महिला को बल्कि उसकी पूरी जाति को निशाना बनाया जाता है। फिल्म समाज से जुड़े तमाम उतार चढ़ावों को दिखाती इस फिल्म में आज भी समाज में बनी जाति-व्यवस्था की जटिल समस्या को दिखाते हुए जाने-अनजाने फिल्म ये संदेश देती है कि इन परिस्थितियों को बदलने के लिए अब हमें किसी हीरो का इंतज़ार नहीं करना है। हमारी एक छोटी पहल से बहुत से बदलाव लाए जा सकते हैं। 

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