यूं तो बॉम्बे बेगम्स की कहानी बहुत अलग और अनोखी नहीं है, लेकिन इस सीरीज़ के निर्देशकों अलंकृता श्रीवास्तव-बोर्निला चैटर्जी ने समाज मे मौजूद कहानी को बेहतर और व्यापक अंदाज़ में पेश किया है। यह सीरीज़ छोटी-छोटी डिटेल्स को ध्यान में रखकर भारत के अलग-अलग वर्ग की महिलाओं के सर्वाइवल यानी अस्तित्व की लड़ाई को सजगता से दिखाने में सफ़ल होती हैं। यहां एक चीज़ जिसपर ध्यान दिया जाना चाहिए, वह यह है कि ओटीटी प्लेटफॉर्म्स के आने के बाद दुनियाभर में मनोरंजन क्षेत्र की तय परिभाषा में बदलाव आया। फिल्मों और सीरीज़ की दुनिया में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी और अब वे केवल ‘ऑब्जेक्ट’ भर नहीं रह गई हैं बल्कि फ़िल्म की पूरी संरचना तय कर रही हैं। वे तकनीकी पक्ष में भी बड़ी भूमिकाएं निभा रही हैं और इससे समाज वह हिस्सा जो पहले सिनेमा से पूरी तरह खारिज़ कर, केवल पुरुष दृष्टिकोण तक सीमित रहता था, वह अब धीरे-धीरे उभरकर आ रहा है।
छह एपिसोड की बॉम्बे बेगम्स की ख़ासियत यही है कि यह महिलाओं के बारे में महिलाओं द्वारा लिखी और निर्देशित कहानी है। इसका संगीत भी महिला (तराना मारवाह) ने कम्पोज़ किया है। इन महत्वपूर्ण आयामों में महिलाओं की मौजूदगी ने सिनेमाई कृति में हमेशा से मौजूद रहने वाले ‘सेक्सिज़्म’ की संभावना को, चाहे वह जोक्स के रूप में हों, डायलॉग में, या गानों में हो, खत्म कर दिया है। बॉम्बे बेगम्स पांच अलग-अलग महिलाओं के बारे में हैं, जिनकी उम्र, दृष्टिकोण, जीवन-शैली अलग हैं, फिर भी उनके बीच एक अदृश्य धागा मौजूद है जिससे वे सब आपस में जुड़ी हैं।
और पढ़ें : मॉक्सी : औरतें, जो एकसाथ आकर दुनिया बदलने का ज़रिया बन सकती हैं
बॉम्बे बेगम्स की कहानी ‘नैरेशन’ में चलती है। नैरेशन की शैली कहानी कहने की प्रक्रिया को और दिलचस्प बना देती है। इससे पहले अमेज़न प्राइम पर रिलीज हुई सीरीज़ ‘मेड इन हैवन’ में भी ‘बैकग्राउंड नैरेशन’ की झलकें देखने को मिली थीं। यह नैरेशन इलस्ट्रेशन बनाकर शाई करती है, जो रानी के पति की पहली पत्नी की बेटी है। शाई अपने सवालों को चित्रों के माध्यम से पूछती है। वह जानना चाहती है कि क्या औरतों के बड़े स्तन होने अनिवार्य हैं? वह पूछती है कि हर बार औरतों को ही समझौते क्यों करने होते हैं? इस तरह, टीनएज लड़कियों के सभी जरूरी सवालों को शाई के माध्यम से स्क्रीन पर दिखाने की कोशिश की गई है, जो सीधे तौर पर ध्यान खींचती है।
यह सीरीज़ कुछ मिथकों को बड़ी मज़बूती से तोड़ती है। जैसे, ‘महिलाएं पुरुषों से कम बुद्धिमान होती हैं’, वे बड़े और महत्वपूर्ण मसले जैसे ‘अर्थव्यवस्था’ को नहीं संभाल सकतीं। याद करिए, जब भी देश की अर्थव्यवस्था ख़राब होती है, बाज़ार मंद पड़ता है, सीधे तौर पर ‘निर्मला सीतारमण’ को ‘औरत’ होने के नाते अयोग्य साबित करने की कोशिश की जाती है, उनकी शिक्षा को लेकर सवाल उठाए जाते हैं, जबकि शिक्षा मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री जैसे पद पर रहने वाले पुरुषों की लिंग के आधार पर आलोचना नहीं होती। यह सीरीज़ बैंकिंग क्षेत्र और कॉरपोरेट में महिलाओं की भूमिका और उनके लिए मौजूद चुनौतियों को दिखाती है। यह सीरीज़ सालों से चले आ रहे ‘सौतेली माँ की शोषणकारी भूमिका’ का भी खंडन करती है। यहां समझना होगा कि आखिर क्यों सौतेली माएं लगातार निशाने पर ली जाती हैं। इसके केंद्र में दूसरे विवाह की अवधारणा को खारिज़ करना होता है। इसके पीड़ित स्त्री और पुरुष दोनों होते हैं। दरअसल, हिंदू संस्कृति के अनुसार विवाह एक बार ही होना चाहिए। जब इसके ख़िलाफ़ जाकर दूसरा विवाह किया जाता है, तो उसको हतोत्साहित करने के लिए ‘सौतेलेपन’ की धारणा लाई जाती है और क्योंकि समाज पितृसत्तात्मक है। इसलिए समूची ज़िम्मेदारी औरतों पर डाल दी जाती है। साथ ही, इस सीरीज़ में बहुत मजबूती से यह बात स्थापित करने की कोशिश की गई है कि पुरुषों के इस समाज में, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से अपना स्थान बनाने के लिए औरतों के बीच आपसी विश्वास और बहनापे का भाव बने रहना चाहिए।
और पढ़ें : डियर बॉलीवुड, महिला केंद्रित फिल्मों में नायकों की कोई ज़रूरत नहीं !
जहां तक कहानी की बात है, सीरीज़ की ‘क्वीन बी’ यानी न्यूक्लीयस हैं रानी सिंह ईरानी (पूजा भट्ट), जो अभी-अभी रॉयल बैंक की प्रमुख बनी हैं। रानी के पद को लेकर उनके सहकर्मी बहुत अधिक खुश नहीं हैं। रानी की यात्रा एक आम लोवर मिडल क्लास से शुरू हुई है, इसलिए वह अपने पद को लेकर बहुत सतर्क है। हालांकि उसके व्यक्तित्व की अपनी खामियां और खूबियां हैं। वह अपने आस-पास मौजूद पुरुष-प्रभुत्व से त्रस्त है और औरतों की भागीदारी को बढ़ाने की कोशिश करती है। वह महत्वाकांक्षी है, बड़े बदलाव लाने की इच्छुक है। वह नारीवादी नहीं है, उसके व्यक्तित्व में समाज के पितृसत्तात्मक तत्व शामिल हैं। वह बैंक की सीईओ है, लेकिन करवा चौथ पर पति के लिए व्रत करती है और उसकी देखा-देखी में उसकी बेटी भी यही करती है। इस प्रकार, किस तरह से पितृसत्तात्मक प्रवृत्तियां पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनी रहती हैं, यह भी साफ़ तौर पर दिखने को मिलता है। यह सीरीज़ दिखाती है कि कॉरपोरेट औरत को उसके लिंग के आधार पर वस्तु बनाकर एक्सप्लॉइट करना चाहता है, इसलिए ही बैंक के विज्ञापन में बोर्ड प्रमुख रानी की मुस्कुराती ‘हाउसवाइफ’ की तस्वीर चाहता है, कुल मिलाकर एक बैंक की सीईओ होने के बावजूद भी पुरुष उसे ‘हाउसवाइफ’ की भूमिका से परे नहीं देखना चाहता!
बॉम्बे बेगम्स की कहानी ‘नैरेशन’ में चलती है। नैरेशन की शैली कहानी कहने की प्रक्रिया को और दिलचस्प बना देती है।
बॉम्बे बेगम्स में साफ़ तौर पर दिखाया जाता है कि बोर्ड में रानी को छोड़कर बाकी सब पुरूष हैं, यानी कॉरपोरेट बड़ी और निर्णायक भूमिकाओं में औरतों की भागीदारी न के बराबर चाहता है ताकि वह अपनी पारंपरिक कार्यवाही को बिना अवरोध के चला पाए। हालांकि पुरुषों के इस अभेद्य किले को रानी ने भेद दिया है और वह महिलाओं की भागीदारी को लेकर प्रतिबद्ध है। उसने फ़ातिमा और आएशा को नेतृत्वकर्ता की भूमिकाएं दीं। रानी के व्यक्तित्व की खासियत को लक्ष्मी के साथ उसके व्यवहार से भी आंका जा सकता था। अगर किसी पुरुष ने यह फ़िल्म डायरेक्ट की होती तो निश्चित तौर पर रानी लक्ष्मी को ‘नाचने वाली’ या ‘रंडी’ कहलवा देता, लेकिन अलंकृता श्रीवास्तव ने बड़ी सजगता से पुरुषों की असंवेदनशीलता को ख़त्म कर बेहतर डायलॉग लिखे हैं।
और पढ़ें : महिला-विरोधी फिल्मों के बीच पितृसत्ता की बेड़ियां तोड़ती ‘द लास्ट कलर’
हालांकि, जैसा मैंने पहले कहा है कि रानी के व्यक्तित्व की सीमाएं हैं। असल में, कॉरपोरेट औरतों को ऐसी स्थिति में खड़ा कर देता है, जहां उन्हें अपने पद-अपने अस्तित्व और दूसरी औरतो के लिए अवसरों में से किसी एक को चुनना पड़ता है। पूंजीवाद की जनी इस प्रणाली में एक समूह के पास सभी तरह के विशेषाधिकार मौजूद हैं। संसाधन पर स्वामित्व वाला पुरुष समुदाय शक्तिशाली है और उसी की नीतियों और नियमों से ही पूरी व्यवस्था संचालित है। इसलिए कई बार औरतें भी पुरुषों की तरह व्यवहार करने लगती हैं। रानी सिंह ईरानी यह जानती है कि आएशा का यौन शोषण किया गया है, फिर भी जवाबी कार्यवाही करने से बचती है। ऐसा इसलिए कि पुरूष बहुसंख्यक और मज़बूत है। मुश्किल से ऐसे मुकाम पर पहुंची औरतें डरती हैं कि वे प्रतिस्थापित कर दी जाएंगी हैं, उनसे सबकुछ छीन लिया जाएगा और इस डर के कारण कई बार उन्हें यथास्थिति को बनाए रखने के लिए बाध्य होना पड़ता है। ऐसी स्थितियों में, एक ज़ोरदार चीख लिए मज़बूती से खड़ी कोई औरत दूसरी औरतों को साहस दे सकती है।
यह सीरीज़ अलग-अलग वर्गों की प्रतिदिन की समस्याओं व संघर्ष को भी सजगता से दिखाती है। जहां रानी के बच्चों के लिए महंगी कारें, हर महीने नए कपड़े, ऑनलाइन मेकअप की खरीददारी सामान्य बात हैं, वहीं लक्ष्मी अपने बेटे के एक अच्छे स्कूल तक के लिए जद्दोजहद करती है। यहां पैरासाइट फ़िल्म बरबस ही याद हो आती है। खाने और जीने का संघर्ष बहुत पुराना है। दूसरी ओर, आएशा, जो ख़ुद हाशिए पर होती है, पितृसत्तात्मक तंत्र की शिकार होती है, वह खुद भी लक्ष्मी के साथ भेदभाव करती है। उसको अछूत मानते हुए सिगरेट साझा नहीं करती है। दरअसल, यहां यह दिखलाने की कोशिश की गई है कि जबतक औरतों के बीच यह ‘पुरुषों वाली प्रवृत्ति’ मौजूद रहेगी, उनकी स्थिति में बदलाव नहीं आ पाएगा। फ़ातिमा के किरदार में शहाना गोस्वामी जंची हैं। शहाना का व्यक्तित्व समाज की संरचना को धता बताता नज़र आता है। वह ऐसी महिला है, जो अपने पति के मुक़ाबले अधिक क़ाबिल है लेकिन संबंध बचाने के लिए अपनी आकांक्षाओं का त्याग करती है। फ़िल्म में एक डायलॉग बार-बार आता है- वीमेन कैन हैव चिल्ड्रन एंड करियर! यह कभी पुरुषों से नहीं कहा जाता कि आदमी नौकरी और बच्चा साथ-साथ कर सकता है। फ़तिमा का किरदार यह भी बताता है कि औरत के पास यदि शक्ति है, आर्थिक सशक्तता है, तब वह सामाजिक मापदंडों को ध्वस्त कर सकती है, और इसलिए ही पुरुष नहीं चाहते कि औरतें शक्तिशाली हों क्योंकि ऐसे उनकी पूरी सत्ता ही ढह जाएगी।
बॉम्बे बेगम्स समाज के दोहरेपन व जटिलता पर तब चोट करती है, जब एक ओर जहां फ़तिमा के दोस्त उसके प्रोमोशन को लेकर बधाई देते नजर आते हैं, वहीं उनकी अपनी पत्नियां घर संभालने और बच्चा पालने तक सीमित होती हैं और हारकर कहती हैं, ‘आखिरकार, कुछ औरतें नौकरी और बच्चा साथ कर सकती हैं।’ सीरीज़, आएशा (प्लेबिता बोर्थरकर) के किरदार के माध्यम से आज के तथाकथित प्रगतिशील पुरुष समाज के छिछलेपन को उधेड़ती है, जो खुलेपन और हंसमुख व्यवहार को ‘सेक्स का आमंत्रण’ समझकर झेड़झाड और यौन शोषण पर उतारू हो जाता है। यहां लेखिका और निर्देशक ने बड़ी सजगता से #MeToo की महत्ता को दर्शाते हुए कार्यस्थलों पर शोषण की सर्वाइवर हमहिलाओं की आवाजों को अपना समर्थन दिया है। कुल मिलाकर, यह एक ज़रूरी सीरीज़ है। जितनी बातें लिई गई हैं, उससे बहुत अधिक बातें हैं, जो दिखायी गई हैं और वे समाज की असली तस्वीर दिखाती हैं। इस सीरीज़ के ज़रिये महिलाओं की भागीदारी से ज़रूरी पक्ष समाज के सामने रखे जा रहे हैं, जो निश्चित तौर पर विमर्श तैयार करेंगे।
और पढ़ें : त्रिभंगा : अपने सपनों को चुनने वाली तीन औरतों की कहानी
तस्वीर साभार : Netflix