इतिहास नारीवाद की दूसरी लहर : इन महिलाओं ने निभाई थी अहम भूमिका

नारीवाद की दूसरी लहर : इन महिलाओं ने निभाई थी अहम भूमिका

प्रथम चरण की नारीवादियों का विश्वास था कि वोट देने का अधिकार प्राप्त कर लेने से महिलाओं की लगभग सभी समस्याओं का निदान हो जाएगा। अफसोस महिलाओं का विश्वास टूटा क्योंकि समाज अब भी अपने पूर्वाग्रहों को छोड़ने को तैयार नहीं था। ऐसे में असमानताओं का दौर जारी रहा। नारीवादियों को समझ आ गया कि सिर्फ अधिकारों का विस्तार महिलाओं की मुक्ति का रास्ता नहीं है। इस असफलता से उभरी निराशा और व्याकुलता की झलक बैटी बेट्टी फ्राइडन की पुस्तक ‘द फेमिनिस्ट मिस्टेक’ में भी मिलती है।

निराशा के इस दौर में नारीवादी आंदोलन को एक और झटका द्वितीय विश्व युद्ध ख़त्म होने के बाद बन रही परिस्थितियों से मिलता है। युद्ध के दौरान अपनी नौकरी छोड़ सेना में गए पुरुष अब लौटने लगे थे। इस दौरान पुरुषों द्वारा छोड़ी नौकरियों पर महिलाओं ने काम करना शुरू कर दिया था। लेकिन अब पितृसत्तात्मक समाज चाहता था औरते अपनी चारदीवारी में लौट जाएं, घर का कामकाज करें। महिलाओं को काम से निकालकर पुरुषों को नौकरी दी जाने लगी। लेकिन महिलाएं अब नौकरी छोड़ने को तैयार नहीं थीं। नौकरी करने से उन्हें जो थोड़ी-बहुत आज़ादी मिली थो वे उसे खोकर वापस घरेलू महिला की भूमिका में लौटना नहीं चाहती थी। इस नामंजूरी ने ही 1960 में नारीवाद के दूसरे चरण की बीज को बो दिया, जो 1980 तक चलता रहा। जिन व्यवसायों में पहले पुरुषों का आधिपत्य था, उनमें महिलाओं ने प्रशिक्षण और योग्यता हासिल करना शुरू कर दिया।

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सेकेण्ड वेव ऑफ़ फेमिनिज़म पर 1950 के दशक के मध्य हुए अमेरिकन सिविल राइट मूवमेंट का प्रभाव भी दिखता है। यही वजह है कि दूसरा चरण पहले चरण के मुकाबले अपने परिमाण में काफी बड़ा था। मसलन अब सवाल सिर्फ अच्छी नौकरी या किसी एक कानूनी अधिकार को पा लेना भर नहीं था। इस बार आंदोलन ‘वीमेन लिब्रलाईजेशन’ की ओर बढ़ रहा था। अब बात समान शिक्षा, समान वेतन, गर्भपात कानून के साथ-साथ तमाम नागरिक अधिकारों में बराबरी की होने लगी थी। चर्चा महिलाओं के शोषण के मूल कारणों पर होने लगी थी। और सवाल विभिन्न सामाजिक संस्थानों जैसे परिवार और विवाह पर उठाए जाने लगे थे। नारीवादियों ने इन संस्थाओं को लिंग के आधार पर अत्याचार करने वाली संस्था के रूप में चिन्हित किया।

दूसरी लहर में थ्योरी के स्तर भी बहुत काम हुआ। भारी मात्रा में नारीवादी साहित्य का सृजन भी किया गया। जैसे सिमोन द बोउवार की ‘द सेकेंड सेक्स’ (1961), कैट मिलैट की ‘द सेक्सुअल पॉलिटिक्स (1970), इवा फिजि की ‘पैट्रियार्किल एप्टीड्यूडस’ (1970) और मैरी डेली की ‘द चर्च एंड द सेकेंड सेक्स’ इसके साथ ही ग्लोरिया स्टेमन की पत्रिका मिस मैगजीन साल 1976 में नारीवाद को विषय के रूप में अपने कवर पेज पर जगह देने वाली पहली मैगज़ीन बनी। इस दौरान स्कूल की किताबों से महिलाओं के विरुद्ध पूर्वाग्रहों को बनाने या मजबूत करने वाली सामग्री को हटाने और उनके पुनर्लेखन पर भी जोर दिया गया। इस लेख में हम बात करेंगे ऐसी ही कुछ विद्रोही महिलाओं के बार में जिन्होंने दूसरी लहर को आधार प्रदान किया।

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1- रोज़ा पार्क्स

रोज़ा पार्क्स: बस की छीट छोड़ने से इनकार कर जिसने नस्लभेद के ख़िलाफ़ खड़ा किया आंदोलन
रोज़ा पार्क्स: बस की सीट छोड़ने से इनकार कर जिसने नस्लभेद के ख़िलाफ़ खड़ा किया आंदोलन

रोज़ा पार्क्स वह नाम है जिन्होंने अमेरीकी सिविल राइट्स मूवमेंट के दौरान एक अहम भूमिका निभाई थी। उनकी बस की सीट न छोड़ने के फैसले ने एक आंदोलन को जन्म दिया था। रोज़ा का जन्म 4 फरवरी, 1913 को अलाबामा के टस्केगी में हुआ था। बचपन बेहद गरीबी और संघर्षों के बीच बिता था। बात 1955 की है जब रोज़ा ने साल 1955 में अपनी बस की सीट छोड़ने से इनकार किया था।

उस दौर में नस्लभेद अपने चरम पर था। श्वेत लोगों को खड़ा देखकर ब्लैक नागरिक खुद-ब-खुद अपनी सीट छोड़ दिया करते लेकिन रोज़ा को यह गुलामी अब और मंज़ूर नहीं थी। इसके लिए उन्हें गिरफ्तार किया गया और उन पर जुर्माना भी लगाया गया लेकिन रोज़ा ने जुर्माना भरने से भी इनकार कर दिया। उनके इस एक कदम के बाद ब्लैक नागरिकों ने अलग-अलग जगहों पर बसों का बहिष्कार करना शुरू कर दिया। जिसका नतीजा ये हुआ कि कोर्ट को यह फैसला देना पड़ा कि बसों के अंदर होनेवाले इस नस्लभेदी तरीके को बंद किया जाए। पार्क्स को ‘मदर ऑफ सिविल राइट्स मूवमेंट’ के तौर पर भी जाना जाता है।

2. सिमोन द बोउवा

सिमोन, तस्वीर साभार: Biography.com

“महिलाओं और पुरुषों के बीच जो जैविक अंतर है उसके आधार पर महिलाओं को दबाना बहुत ही अन्यायपूर्ण और अनैतिक है।” महिलाओं के जैविक अंतर की वास्तविकता को रेखांकित करते हुए लैंगिक गैरबराबरी का विरोध करती ये पंक्ति है सिमोन द बोउवार की चर्चित किताब ‘द सेकंड सेक्स’ की। वह साल 1947 था जब सिमोन ने इस महान पुस्तक पर काम करना शुरू किया। सन् 1948 में ‘द सेकंड सेक्स’ के कुछ हिस्से ‘ल तौ मोर्दान’ पत्रिका में प्रकाशित हुए। 1949 में इस महान कृति ने मुक़म्मल पुस्तक का रूप लिया। और देखते ही देखते ‘द सेकंड सेक्स’ ने सिमोन द बोउवार को किवदंती बना दिया।

इस किताब कि वह पंक्ति “स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है।” मानव निर्मित तमाम सरहदों को तोड़कर महिला मुक्ति की मशाल बनी। सिमोन का बहुत ही स्पष्ट कहना था कि हमारा धर्म, हमारी संस्कृति, हमारा समाज, लड़कियों को मजबूर करता है ‘स्त्री’ बनने के लिए। यही वजह रही थी कि वह आजीवन नास्तिक बन रहीं। उन्होंने चौदह वर्ष की उम्र ये ऐलान कर दिया था कि वह प्रार्थना नहीं करेंगी क्योंकि यीशु पर विश्वास नहीं है।

सिमोन का कैथोलिक परिवार इस ऐलान से हैरान था। सबसे अधिक आहत उनकी माँ हुईं। लेकिन पहली संतान होने के कारण उन्हें माता-पिता का भरपूर स्नेह मिलता रहा। हालांकि यह भी सच है कि कैथोलिक स्कूल की अपनी शुरुआती पढ़ाई के दौरान वह नन बनना चाहती थीं। लेकिन किताबों की दुनिया ने सिमोन की दुनिया बदल दी, जिससे उनके सपने भी बदल गए।

विलक्षण प्रतिभा की धनी सिमोन का जन्म 9 जनवरी, 1908 को पेरिस में हुआ था। परिवार अमीर था लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के बाद उनके घर की वित्तीय स्थिति बहुत ही कमजोर हो गई। गरीबी इस दुनिया की बहुसंख्यक आबादी की सच्चाई है। इसलिए यहां इस पर विशेष चर्चा जरूरी नहीं है। हां, चर्चा इस बात पर जरूर होनी चाहिए कि कैसे एक आम अंतर्मुखी लड़की नारीवाद का पर्याय बन गई। सिमोन को एक नारीवादी और दार्शनिक के तौर पर अधिक याद किया जाता है लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि वह एक संवेदनशील शिक्षिका भी थीं। सिमोन वामपंथी थीं। बावजूद इसके वह इस बात को स्वीकार करती थीं कि स्त्री की समस्या को साम्यवाद से नहीं सुलझाया जा सकता।

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3. शुलामिथ फायरस्टोन

शुलामिथ फायरस्टोन , तस्वीर साभार: Wikipedia

शुलामिथ फायरस्टोन अमेरिका की शुरूआती रैडिकल महिला मुक्तिवादियों में से एक थीं। इन्होंने नारीवाद की दूसरी लहर को सैद्धांतिक आधार प्रदान किया था। फायरस्टोन ने महिलाओं के उत्पीड़न को मार्क्स और फ्रायड के सिद्धांतों से समझाया था। फायरस्टोन तीन कट्टरपंथी नारीवादी समूहों की संस्थापक सदस्यों में से एक थीं। ये समूह थे- न्यूयॉर्क रेडिकल वीमेन, रेडस्टॉकिंग और न्यूयॉर्क रेडिकल फेमिनिस्ट। फायरस्टोन को आज भी मार्क्सवादी नारीवाद के सबसे प्रमुख चेहरों में से एक माना जाता है। वह 1960 के दशक में राजनीति में भी सक्रिय रहीं।

शुलामिथ फ़ायरस्टोन का जन्म 7 जनवरी, 1945 को कनाडा के ओटावा शहर में हुआ था। परिवार यहूदी था। पिता के रूढ़िवादी होने के कारण फ़ायरस्टोन का संबंध उनसे खराब ही रहा। फायरस्टोन सिर्फ 25 वर्ष की थी जब उनकी ‘विवादित’ किताब “द डायलेक्टिक ऑफ सेक्स” प्रकाशित हुई थी। यह किताब प्रकाशित होते ही सनसनी बन गयी थी। इस किताब में फायरस्टोन ने कृत्रिम गर्भ की वकालत की थी। उस वक्त इनका बहुत मजाक बनाया गया था और जमकर आलोचना भी कई गई थी।

फायरस्टोन अपनी किताब में लिखती हैं, ”जिस तरह आर्थिक वर्गों के उन्मूलन को सुनिश्चित करने के लिए अंडरक्लास (सर्वहारा) के विद्रोह की आवश्यकता होती है। ठीक उसी प्रकार लैंगिक वर्गों के उन्मूलन को सुनिश्चित करने के लिए अंडरक्लास (महिलाओं) के विद्रोह की आवश्यकता है।” इसके अलावा पुस्तक में एक महिला उत्पीड़न रहित समाज की कल्पना भी की गई है, जो फ़ायरस्टोन के मुताबिक आदर्श समाज है। 28 अगस्त 2012 को फ़ायरस्टोन न्यूयॉर्क स्थित अपने अपार्टमेंट में मृत पाई गई थीं।

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4. केट मिलेट

केट मिलेट, तस्वीर साभार : The Guardian

केट मिलेट मूल रूप से एक कलाकार और मूर्तिकार थीं। उनका जन्म 14 सितंबर 1934 को अमेरिका के मिनोसाटा शहर में हुआ था। उनके पिता पेशे से इंजीनियर थे। केट की मां एक शिक्षिका और बीमा विक्रेता थीं। केट पहली अमेरिकी महिला थीं जिसने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ाई की और प्रथम श्रेणी के सम्मान के साथ डिग्री प्राप्त किया।

केट मिलेट महिलाओं के उत्पीड़न का मुख्य कारण लैंगिक असमानता को मानती हैं। अपनी किताब ‘सेक्शुअल पॉलिटिक्स’ में केट लिखती हैं कि अगर महिलाओं को मुक्त कराना है तो पुरुषों का वर्चस्व को समाप्त करना होगा क्योंकि पुरूषों का वर्चस्व पितृसत्ता की खाई को बनाए रखता है। उन्होनें अपनी लेखनी के जरिए कार्यक्षेत्र में महिलाओं से बराबरी का बर्ताव, कानूनी तौर पर गर्भपात का अधिकार, सेक्सुअल आज़ादी को महत्व दिया हैं। एक नारीवादी विचारक के तौर पर उन्हें स्त्रीवाद की ‘माओ त्से तुंग’ संज्ञा भी दी गयी थी।

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5. जर्मेन ग्रीयर

“आजादी, वे आजादी चाह सकती हैं! आजादी, आंखों में आंखें डालकर देखते इंसान की बजाय देखी जा रही चीज़ होने से। संकोच से आज़ादी। आज़ादी मर्दों की खाई- अघाई चाहत को उकसाते रहने की ज़िम्मेदारी से जिसकी नाक तले किसी की भी छाती की सख्ती या किसी भी टांग की लंबाई नहीं आती। आजादी तकलीफदेह कपड़ों से जिनका पहना जाना मर्दों को गुदगुदाने के लिए ज़रूरी है। उन जूतों से आजादी जो हमे छोटे कदम लेने पर मजबूर करते है और हमारे कूल्हों को उभारते है। पेज 3 के सदा के बने रहने वाले किशोर सुलभ लावण्य से आजादी।” ये कहना है सेकेंड वेव ऑफ फेमिनिज्म की प्रसिद्ध नारीवादी जर्मेन ग्रीयर का। इनका जन्म 29 जनवरी 1939 को ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न में हुआ था। ग्रीयर की पढ़ाई मेलबर्न और सिडनी विश्वविद्यालयों में हुई। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय वर्ष 1967 में इन्हें साहित्य में डॉक्टरेट की उपाधि भी दी थी।

जर्मेन ग्रीयर की पहली ही किताब ‘द फीमेल यूनक’ ने नारीवाद में नई बहस को जन्म दिया था। ग्रीयर अपनी किताब में साफ तौर पर ‘वुमैनहुड’ और ‘फेमिनिटि’ के अवधारणाओं का खंडन करती हैं। साथ ही स्त्री देह को लेकर भी इस पुस्कत में विस्तार से चर्चा की गई है। ग्रीयर लिखती हैं, “अड़तालीस गुणसूत्रों में से एक ही गुणसूत्र अलग है और इस अंतर को हम स्त्री और पुरुष के पूरे अलगाव का आधार बनाते हैं जैसे कि अड़तालीस के अड़तालीस गुणसूत्र अलग हों।” दरअसल ग्रीयर स्त्री-पुरुष के सामान्य से अंतरों को बढ़ा-चढ़ाकर बताने का विरोध करती हैं। स्त्री पुरुष के बीच के सामान्य जैविक अंतर को असमानता का स्वरूप प्रदान करने को ग्रीयर साजिश बताते हुए विरोध करती हैं। अलग-अलग 11 भाषाओं में पढ़ी जाने वाली यह पुस्तक नारीवादी आन्दोलन के इतिहास में मील का पत्थर मानी जाती है। इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद बधिया स्त्री के नाम से हुआ है, जिसे वर्ष 2008 में राजकमल प्रकाशन ने छापा था

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Comments:

  1. DUMRENDRA RAJAN says:

    फेमिनिज्म पर मुझे हिंदी भाषा में एक शानदार लेख पढ़ने को मिला खासकर सिमोन बुआ और फायरस्टोन बारे में, बहुत-बहुत धन्यवाद!!

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