संस्कृतिकिताबें ख़ास बात: निम्न मध्यवर्गीय-गँवई औरतों को कविताओं में पिरोती कवयित्री रूपम मिश्र से

ख़ास बात: निम्न मध्यवर्गीय-गँवई औरतों को कविताओं में पिरोती कवयित्री रूपम मिश्र से

रूपम मिश्र प्रतापगढ़ के बिनैका गाँव में रहती हैं। वह निम्न मध्यवर्गीय-गँवई स्त्री की दृष्टि और संवेदना से समाज को देखती और उस पर कविताएं लिखती हैं। उनकी एक कविता है:
“वे लड़कियाँ बथुआ की तरह उगी थीं
जैसे गेहूँ के साथ बथुआ
बिन रोपे ही उग आता है
ठीक इसी तरह कुछ घरों में बेटियाँ
बेटों की चाह में अनचाहे ही आ जाती हैं।”

प्रस्तुत है, रूपम मिश्र से फेमिनिज़म इन इंडिया की बातचीत।

फेमिनिज़म इन इंडिया- मैं आप पर रिसर्च करते हुए आपका फेसबुक देख रही थी, कितने ही लोग आपसे कह रहे थे कि आपका लिखना उन्हें आभास देता है कि उनकी माएं अपनी बातें, अपने अनुभव और अपनी यात्राएं दर्ज कर पा रही हैं, क्योंकि आपने यह माध्यम चुना है जिससे हमारे आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि से आनेवाली पिछली पीढ़ी ख़ासकर लैंगिक विभाजन के कारण औरतें अक्सर छूट जाती हैं और अभिव्यक्त नहीं कर पातीं। पहले यहां तक अपनी यात्रा के बारे में बताएं।

रूपम मिश्र- यह कोई ख़ास घटना या परिस्थिति नहीं थी, बस साहित्य और कविताएं पढ़ते हुए मुझे लगा कि बहुत कुछ है जिसे मैं दर्ज कर सकती हूं और यह भी कि मैं भी लिख सकती हूं। उसके बाद यह माध्यम मुझे मिल गया था। जहां तक शुरुआत की बात है, मुझे एक वाकया याद आ रहा है। मैं अपने आस-पड़ोस के छोटे बच्चों को पढ़ाती हूं। एक दिन उन्हीं में से किसी ने कहा कि उसे कविता बनानी है। पड़ोस की वह बच्ची मेरे पास आई तो मैंने उसके लिए तुरंत कविता बना दी। वह बच्ची बहुत खुश हुई और उतनी ही आश्चर्यचकित भी। वह स्कूल गई तो वहां कहा गया कि सबसे अच्छी कविता उसी की है। घर लौटकर उसने मुझे यह बताया। उसके बाद मुझे लगा कि शायद कविताएं मैं लिख सकती हूं।

हालांकि तब शुरुआत नहीं हुई। अब मुझे कविता लिखते और साझा करते हुए तक़रीबन दो साल हो चुके हैं और इसकी शुरुआत तब हुई जब मैंने लोगों को फेसबुक पर लिखते देखा। पहले तो मैं पाठक रही उसके बाद मैंने यहां साझा करना शुरू किया। जहां तक बात फेसबुक पर पहुंचने की है तो यह मेरे बेटे के कारण संभव हुई। उसने ही मेरी आईडी बनाई और मैं यहां आई। दरअसल, साहित्य पढ़ना और लिखना सब उसी के कारण हुआ। हालांकि, किताबें तो मैंने पहले भी पढ़ी थी, रबिन्द्रनाथ टैगोर से लेकर प्रेमचन्द्र और शरत चन्द्र मेरे पसंदीदा रहे और इनकी एक-एक किताब मैंने कई-कई बार पढ़ी, लेकिन सच कहूं तो मेरा जन्म ही मेरे बेटे के साथ-साथ हुआ और हम दोनों साथ बड़े हुए। इसका एक कारण था कि शुरू में साहित्यिक किताबें बहुत सीमित संख्या में मौजूद थीं, बेटे के आने के बाद साहित्यिक सामग्री प्रचुरता में उपलब्ध होने लगीं।

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फेमिनिज़म इन इंडिया- जैसा कि आम घरों में होता है, वहां औरतें सुबह उठते ही काम मे लग जाती हैं और रात में सबके सोने के बाद सोती हैं। ऐसे माहौल में फ़ोन इस्तेमाल करना, कविता लिखना और कविता लिखने के लिए चिंतन-मनन करना लगभग असंभव है। आप यह सब कैसे मैनेज करती हैं?

रूपम मिश्र- समय को लेकर सबसे ज़्यादा दिक्कत हुई। एक तरह से धीरे-धीरे मैंने बैलेंस बना लिया है। जैसे किचन में रोटी बना रही हूं तो फेसबुक खोल लिया या किसी को फोन कर लिया और स्पीकर पर डाल दिया। इससे मेरा घरेलू कामकाज भी हो जाता है और संवाद भी। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि बहुत सारी समस्याएं हैं। कई बार परिवार में लोग इसको लेकर खीझ भी जाते हैं कि क्या है ये सब; लेकिन बेटे का साथ निरंतर मिलता रहा। मैं इस बात से बिल्कुल इनकार नहीं कर सकती कि ‘बाहरी दुनिया’ जैसी कोई चीज़ सबसे पहले मैंने उसकी ही नज़र से-उसके साथ-साथ देखी। यह मेरा प्रिविलेज है कि वह हमेशा मेरे साथ रहा जिससे मैं कठिनाईयों में भी खड़ी रह पाई।

फेमिनिज़म इन इंडिया- क्या आपको लगता है कि बचपन में आपके साथ लैंगिक भेदभाव हुआ, जो अवसर घर के पुरुष बच्चों को मिल रहा था, वह आपको नहीं मिला। घरेलू जीवन और शिक्षा के बारे में बताइए।

रूपम मिश्र- बिल्कुल, लैंगिक भेदभाव तो हमारे समाज का दुखद सच है लेकिन इसमें भी विडंबना ये है कि परिवार के भीतर जो लोग इस तरह का भेदभाव कर रहे थे उन्हें पता भी नहीं था कि ये भेदभाव है। सच कहूँ तो, यह पूरा प्रसंग मेरे लिए बहुत पीड़ादायक है, जब भी इस पर बातचीत होती है, वही स्मृतियां फ़िर से उभर आती हैं। बचपन से ही, पढ़ाई को लेकर मैं बहुत उत्साहित रहती थी लेकिन शादी और बच्चे के बाद सब कुछ एक साथ संभालना आसान नहीं रहा। एक तरह से कहूं तो शिक्षा के नामपर मैंने स्वाध्याय ही किया है। बाद में, मैंने गांव के ही एक कॉलेज से एम.ए किया। मन में कईबार आया भी की आगे की पढ़ाई पूरी करूं, लेकिन ये संभव नहीं हो पाया। कभी-कभी तो बहुत निराश हो जाती हूं। असल में, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर न होना मुझे बहुत खलता है। मेरा मानना है कि स्त्री की मुक्ति की ओर पहला कदम आर्थिक स्वतंत्रता ही है।

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फेमिनिज़म इन इंडिया- आपकी कविताएं पढ़ते हुए मैंने महसूस किया कि बहुत कुछ है, जो कविता में आने से छूट रहा है। क्या आप इस बात से परिचित हैं? अगर ऐसा है तो क्यों?

रूपम मिश्र- अगर सीधा-सीधा कहूं तो मेरे मन में एक तरह का संकोच है जिससे मैं हर रोज़ जूझती रहती हूं। बहुत कुछ है जो मुझे कहना है, लेकिन अभी तक मैं उसे कह नहीं पा रही हूं। कई बार तो कविताओं में सारी बातें आ भी नहीं पाती हैं, इसलिए मैं कहानियों की ओर भी मुड़ी। इस तरह, अभिव्यक्ति की ओर मेरी कोशिश, मेरा संघर्ष अपने स्तर पर निरंतर जारी है। एकाध बार मन में आता है कि शायद अभी मेरे भीतर उतना साहस नहीं है, जिससे मैं वह सब कुछ कह सकूं, जो कहना चाहती हूं लेकिन हो सकता है कि बाद में मुझ में वह साहस आ पाए और मैं अपना सच पूरी तरह कह पाऊं।

फेमिनिज़म इन इंडिया- कविता तक आपकी पहुंच और आपकी कविता तक लोगों की पहुँच कैसे हुई? आप इसके बारे में कुछ बताएंगी।

रूपम मिश्र – कविता के संदर्भ में कोई ठीक-ठीक फार्मूला नहीं रहा। मुझे लगता है कि कविता प्रत्येक व्यक्ति के भीतर है। कविता लिखने की शुरुआत अनायास हुई और एक बार लिखने के बाद फिर लंबा गैप भी रहा। बाद में, लोगों को पढ़ते-सुनते मैं भी लिखने लगी। फेसबुक पर बहुत सारे लोगों को लिखते-कहते देखकर लगा कि हम भी कुछ लिख सकते हैं, तो इस तरह यह क्रम शुरू हुआ। हालांकि, मैंने कवियों को कम पढ़ा है। आज भी कवियों की तुलना में कहानीकार और उपन्यासकार मुझे अधिक भाते हैं। कवियों में, देवी प्रसाद मिश्र की कविताएं मुझे बहुत प्रभावित करती हैं।

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फेमिनिज़म इन इंडिया- आपने अपने बेटे का ज़िक्र बार-बार किया है। माँ बनने के बाद स्त्रियों का जीवन बच्चे के पालन-पोषण और उसकी ज़रूरतें पूरी करने में चुक जाता है― आपके साथ शुरुआत में चीज़ें जटिल तो रहीं लेकिन बाद में बदलीं भी, इस परिवर्तन के बारे में बताएं।

रूपम मिश्र- उसके कारण ही कविता लिखने की ओर बढ़ी। मैं लिखने-पढ़ने संबंधित जितनी भी और बातें है , सब उसी से करती हूं। कविता लिखकर सबसे पहले मैं उसे ही दिखाती हूं, वह भी कुछ लिखता है तो मुझसे साझा करता है। हालांकि, हमारी वैचारिकी अलग-अलग है। वह मुझसे अगली पीढ़ी का है। हमारी अगली पीढ़ी, हमसे आगे जाकर पढ़-लिख समझ रही है। अधिकतर बार ऐसा होता है कि हम उनके कहे को नहीं समझ पाते, इसके बावजूद भी मैं उससे लगातार संवाद की प्रक्रिया में बनी रहती हूं।

फेमिनिज़म इन इंडिया- मेरी माँ आपकी उम्र की होंगी, उनकी कोई सहेली नहीं है। लेकिन ऐसा नहीं है कि कभी नहीं थी। स्कूल-कॉलेज की बातचीत में कई बार वह कई नामों का ज़िक्र करती भी हैं, लेकिन ऐसे देखें तो कोई नहीं है। यही स्थिति मेरे गांव की अधिकतर औरतों की है। पुरुषों के साथ ऐसा नहीं रहा। उनके मित्र-जान पहचान वाले आते रहे, गोलबंद होकर समोसा-कचौरी खाते रहे। पढ़ाई के समय के बाद क्या आपने कभी इस तरह की बातचीत का ‘स्पेस’ अपने आस-पास महसूस किया ?

रूपम मिश्र- शुरुआत में कभी कोई सहेली नहीं रहीं लेकिन अब धीरे-धीरे कई महिलाओं से दोस्ती हो गई है। औरतों के बीच संवाद नहीं होने में पितृसत्ता और इसके द्वारा उपजाए पूर्वाग्रह और कुंठाएं सब की अपनी भूमिकाएं रही हैं। अपनी बात करूं तो मैं जहां रहती हूं, बेहद अकेली हूं। दूर-दूर तक कोई नहीं है जिससे बातचीत की जाए। आस-पास के अधिकतर लोग अबोध और सीधे-सादे हैं तो जब भी कविता या साहित्य पर बात करनी होती है तो मैं भाई-बहनों और बेटे से ही कर पाती हूं। लेकिन शुरू से ही इन सभी चीज़ों के बारे में मैं बहुत अधिक सोचती थी। कई बार लोग मेरा मज़ाक भी बनाते थे। अब तो पढ़ना और अभिव्यक्त करना ज़्यादा हो गया है, लेकिन इसकी शुरुआत बचपन से ही हो गई थी।

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फेमिनिज़म इन इंडिया- ‘मेरा सारा स्त्रीवाद उसके प्रेम भरे संबोधन पर निसार हो जाता’ असका रूखापन बढ़ जाता, विमर्श बहस में बदल जाता। ‘इसी के परिपेक्ष्य में सवाल है कि प्रेम और वैचारिक पक्षधरता, दोनों को आप किस तरह देखती हैं? क्या आप ऐसे व्यक्ति से प्रेम कर सकती हैं जिसके साथ आपका कोई वैचारिक साम्य न हो?

रूपम मिश्र- मेरा मानना है कि किसी भी संबंध के लिए वैचारिक साम्यता ज़रूरी है। किसी ऐसे आदमी से प्रेम या संबंध नहीं चल सकता जिससे विचारधारा या समझ के स्तर पर साम्य न हो। प्रेम को लेकर मेरे मन में श्रेष्ठ भाव हैं, प्रेम में कोई समस्या नहीं है, समस्या है व्यक्ति के पूर्वाग्रहों और परंपरागत रूढ़ियों में। इसके साथ एक चीज़ जो समझना ज़रूरी है कि पुराना कोई भी ढर्रा बदलते समय के साथ एकदम फ़िट नहीं बैठ सकता।

फेमिनिज़म इन इंडिया- अपनी एक और कविता में आप कहती हैं-
“एक दिन मैं चली जाऊंगी,
वहां जहाँ से चलकर आयी थी
मेरा लौट जाना इसलिए भी ज़रूरी है…”

इस कविता में, ये वापसी कहां की है?

रूपम मिश्र- ज़ाहिर सी बात है, अपनी माटी की ओर। दरअसल, सारी वैचारिक यात्रा के बाद लगता है कि अब लौट चलें। अक्सर मन अकुलाहट से भर जाता है। मेरा यह मानना है कि अगर कुछ भी ठीक होगा तो जड़ों से ही होगा। मेरी कविता में जो लौटना है, वह यूंही नहीं है, उसके साथ सवाल और सज्ञानता अंतर्निहित हैं। इन सवालों से जूझकर ही बुनियादी समस्याओं का समाधान संभव है।

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फेमिनिज़म इन इंडिया-– क्या आपको आपके आस-पास के लोग पढ़ते हैं? उनकी कुछ प्रतिक्रिया होती है?

रूपम मिश्र- मुझे मेरे आस पास के लोग नहीं पढ़ते हैं। यहां जो लोग मुझे पढ़ते हैं, उसमें दो-तीन लोग हैं, मेरे भाई- बहन और बेटा। मुझे पढ़कर ये लोग खुशी और गर्व से भर जाते हैं। इनके अलावा मेरे परिवेश का कोई व्यक्ति मुझे नहीं पढ़ता है, लोग तो यह तक नहीं जानते कि मैं लिखती भी हूं। हां, लेकिन कभी-कभी जब मैं आस-पास की औरतों से कोई संवाद करने की कोशिश करती हूं तो देखती हूं कि उनमें पुरुषों की तरह ना समझने की ज़िद नहीं है, वे नयी बातों को सुनना व समझना चाहती हैं। बाकी कुछ लोग, जिनके पास सोशल मीडिया जैसे माध्यम हैं भी, वे परंपरागत ढांचे में बंधे हुए हैं, जिससे बाहर निकलकर बात करने के लिए वे तैयार ही नहीं हैं।

फेमिनिज़म इन इंडिया- आपकी भाषा मे खेत-खलिहान, गांव घर के बिम्ब और शब्द आते हैं। ये भाषा का इस्तेमाल सहजता से इच्छा से होता है? या खुद ब खुद आता है?
और क्या आपको लगता है कि ये आपको आपके पाठक से कैसे जोड़ता है

रूपम मिश्र- ये स्वत: ही आते हैं। हाँ, कुछेक बार मैं सायास भी अवधी के कुछ शब्दों को कविता में डालती हूँ, उसमें भी सहजता का बराबर ध्यान रहता है ताकि ऐसा न हो कि लोग समझें ही न या वाक्य अटपटा हो जाए। ये मेरी भाषा और शब्दों को बचाए रखने की कोशिश है। यह भाषा (अवधी) मेरी संतुष्टि में, मेरी अभिव्यक्ति को सही-सही भाव भी देती है। जैसे अवधी में एक शब्द है- ‘किता’। यह शब्द अपने आप में रूप-रंग, वेशभूषा सभी के लिए प्रयोग किया जाता है, कई बार तो मैं चकित रह जाती हूं कि कैसे एक शब्द पूरे वाक्य का भाव समेटे हुए है।

फेमिनिज़म इन इंडिया- आप अपनी सामाजिक स्थिति को लेकर क्या सोचती हैं?

रूपम मिश्र- सवर्ण जाति से होने के कारण बहुत सारे विशेषाधिकार तो मिलते ही हैं। लेकिन लिंग के आधार पर दुख और समस्याएं तो हैं, लेकिन अन्य समूहों की औरतें मसलन दलित- स्त्रियों की स्थिति सवर्ण स्त्रियों की तुलना में अधिक संघर्षशील है। वे औरतें बाहर मज़दूरी व खेती किसानी भी कर रही हैं और वापस आकर उन्हें घर भी संभालना पड़ता है; जबकि मेरे आस पास सवर्ण घरों की औरतों के साथ ऐसा नहीं है।

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तस्वीर साभार: फेसबुक

Comments:

  1. Sunita says:

    बहुत सुंदर और अच्छा प्रयास है , हम जैसे गाँव से जुड़े महिलाओं को बहुत सम्बल मिलता है !

  2. अमिता शीरीं says:

    बहुत सुंदर रूपम! तुम बहुत ढेर सारी औरतों की प्रेरणा हो! और तुम्हारी कविताएं तो मेरे दिल के बहुत करीब हैं! लिखती रहो!!

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