एडिटर्स नोट: #WomenOnStreets परियोजना के तहत कामकाजी महिलाओं की मुख्यधारा में गढ़ी गई परिभाषा और छवि की नये सिरे से व्याख्या करने की कोशिश की जाएगी। इसमें आपके सामने हमारे तीन राइटर्स 10 ऐसी औरतों की कहानी लाएंगे जिनके श्रम को ‘कामकाजी महिला’ की मुख्यधारा की परिभाषा से अलग रखा गया है। जिनके काम को अक्सर ‘काम’ नहीं समझा जाता। पेश है इस कड़ी की पहली कहानी का पहला हिस्सा जहां हमारे राइटर्स ने बात की एक ऐसी महिला से जो दिल्ली मेट्रो में ट्रेन ऑपरेटर हैं।
दिल्ली ‘सपनों का शहर’ है। इस शहर में जब भी आर्टिस्टिक कैमरा घूमता है या कोई लो बजट में यह शहर घूमना चाहता है तो दिल्ली मेट्रो नज़र के सामने आती है। लेकिन यही शहर जितने मौके देता है, उतने ही अलग-अलग कल्चरल शॉक्स भी देता है। इसी तरह किसी दिन मेट्रो में सफ़र करते हुए क्या आपने कभी सोचा है कि मेट्रो चला कौन रहा है? ‘रहा है’ क्योंकि ‘रही है’ सोच पाना ऐसी दुनिया में बहुत ही मुश्किल है जहां महिलाओं की ड्राइविंग पर जोक बनते हैं। क्या आप यह सोच सकते हैं कि कौन मेट्रो चला रही? टीओ यानी कि ट्रेन ऑपरेटर। दिल्ली मेट्रो देखकर आप उतने ही आश्चर्य और कंफ्यूज़न से गुज़रे होंगे जिससे इस शहर में ‘सपने देखने वाला/वाली’ हर व्यक्ति गुज़रता है! इस टीओ का नाम है श्रद्धा। पढ़िए उनकी यात्रा के एक हिस्से का दस्तावेज़ीकरण।
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किसी दिन मेट्रो में सफर करते हुए क्या आपने कभी सोचा है कि मेट्रो चला कौन रहा है? ‘रहा है’ क्योंकि ‘रही है’ सोच पाना ऐसी दुनिया में बहुत ही मुश्किल है जहां महिलाओं की ड्राइविंग पर जोक बनते हैं। क्या आप यह सोच सकते हैं कि मेट्रो चला रही? टीओ यानी कि ट्रेन ऑपरेटर।
सवाल: अपने काम की शिफ़्ट के बारे में हमें कुछ बताइए।
श्रद्धा: ट्रेन ऑपरेटर साधारण पब्लिक और डीएमआरसी के बीच इंटरफेस की तरह है। ट्रेन ऑपरेटर सर्विस ज़रूरत के हिसाब से रोज़ाना रोस्टर के अनुसार अपनी सर्विस अटेंडेंस देता है। ड्यूटी कि लिए रिपोर्टिंग की जगह मेट्रो डिपो, स्टेशन कंट्रोल रूम या क्रू कंट्रोल रूम हो सकता है। आठ घंटे की शिफ्ट होती है। बीच में ब्रेक्स ये लोग देते हैं। कम से कम आपको पच्चीस मिनट का ब्रेक मिलता है। ज़्यादा से ज़्यादा दो घंटे का भी मिल सकता है। आठ घंटे में से पांच से साढ़े पांच घंटे ट्रेन ड्राइविंग टाइम होता है। नंबर ऑफ ड्यूटीज़ पहले से बनी होती है। जैसे ड्यूटी नंबर 1 का यह कॉम्बिनेशन है। आपको कौन सी ड्यूटी मिलती है यह रोज़ तय करके बताया जाता है। रोज़ का रोस्टर निकलता है। हर दिन अलग ड्यूटी (कॉम्बिनेशन) होती है। आज मेरी ड्यूटी में था कि 7:15 (सुबह) पर मैंने साइन इन किया। 3 बजे (शाम) को मेरा साइन ऑफ है। खाना खुद से बनाकर लाती हूं क्योंकि यह एक हार्ड ड्यूटी है तो बीच में रिफ्रेशमेंट वगैरह भी मिलते हैं। ब्रेक में आप खाना खा सकते हैं, कुछ खेल सकते हैं। यह आप पर है कि आप ब्रेक में क्या कर रहे हैं।
(महिला विश्राम कक्ष में एक आइना है जिसमें देखना होता है कि आपने पूरी यूनिफॉर्म पहनी है या नहीं। मेट्रो टीओ केबिन में किसी भी तरह का इलेक्ट्रोनिक गैजेट, फोन या स्मार्ट वाच ले जाना मना है क्योंकि पैसेंजर की सुरक्षा सबसे ज़रूरी होती है)
सवाल: आपको ब्रेक में क्या करना पसंद है?
श्रद्धा: पहले तो हमारे जो ब्रेक होते हैं बहुत लिमिटेड ब्रेक होते हैं। टाइम बॉन्ड लगा होता है। सबसे पहले तो खाना खाती हूं क्योंकि सुबह जल्दी आ जाती हूं। खाना अच्छे से खाने का समय नहीं मिलता है। क्रू कंट्रोल रूम में टीओ के खेलने के लिए अलग-अलग गेम जैसे पूल, टेबल टेनिस, कैरम, चेस इत्यादि हैं। मुझे टेबल टेनिस खेलना पसंद है और ख़ाली समय में किताबें पढ़ना या इंटर्नेट सर्फ़िंग करना। पहले तो मैं नहीं खेलती थी, नहीं आता था। यहीं पर आकर ऑफ़िस में ही साथ के लोगों से सीखा है। यहां सब के साथ खेलती हूं, अच्छा लगता है। अब ठीक-ठाक खेल लेती हूं।
सवाल: क्या कोई मैच भी होता है, आप हिस्सा लेती हैं?
श्रद्धा: हर मेट्रो लाइन पर क्रू कंट्रोल होता है। कितने क्रू कंट्रोल हैं इस पर निर्भर करता है कि लाइन कितनी लंबी है। ब्लू लाइन पर दो क्रू कंट्रोल हैं। इस लाइन (मैजेंटा) पर एक है, इंटर-लाइन कॉम्पिटिशन आयोजित करवाते हैं।
सवाल: आप खेलेंगी उसमें इस बार?
श्रद्धा: मैंने नाम दे दिया है। पहली बार खेलूंगी। मुझे लगा नाम देना चाहिए, कैसा खेल रहे हैं कैसा नहीं खेल रहे हैं अलग बात है पर, यह एक बार तो करना चाहिए न।
(बोटेनिकल गार्डन मेट्रो स्टेशन पर श्रद्धा की ड्यूटी खत्म होती है। साइन ऑफ करने के बाद वे हमारे साथ मेट्रो में चढ़ती हैं। इस बार वे टीओ के केबिन में नहीं हमारे साथ पैसेंजर कोच में हैं)
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“मैंने पहली बार मेट्रो देखी साल 2012 में। उससे पहले मैंने मेट्रो-वेट्रो नहीं देखी थी। न ही मैंने यूट्यूब वीडियो में देखा था, न ही मेरा ऐसा कोई सपना था कि मुझे मेट्रो में काम करना है।”
सवाल: दिल्ली मेट्रो में अभी कितनी महिला ड्राईवर होंगी?
श्रद्धा: कितनी महिला ऑपरेटर हैं। मुझे पूरी संख्या नहीं पता है लेकिन अगर इस कंट्रोलर की बात करें तो 120 पुरुष और 8 महिलाएं हैं। 1:10 का अनुपात है। रेड लाइन पर ज्यादा हैं, वहां लगभग 20 से 25 महिलाएं हैं।
सवाल: जब आप आई थीं तो आप से पहले यहां कितनी महिला टीओ थीं?
श्रद्धा: जब मेरी पोस्टिंग इस लाइन पर हुई तो मुझे मिलाकर 6 महिला टीओ थीं। फिर 8 हुईं। कभी यह संख्या 10 से ज़्यादा नहीं हुई। कुछ लोग चले गए, किसी की शादी हो गई तो अपने ससुराल के पास काम करने लगे। उनकी जगह पर और कोई नहीं आई है जबकि पुरुष टीओ की संख्या लगभग 110 होगी।
सवाल: कभी ऐसा केस रहा है कि किसी की शादी हो गई और जो ससुरालवाले हैं उनकी वजह से किसी को काम छोड़ना पड़ा या फिर बच्चा होनेवाला है, उस समय छोड़ना पड़ा हो। ऐसी और कोई दिक्कत जो कि पुरुष टीओ के साथ नहीं होती है।
श्रद्धा: नहीं! मेरी जानकारी में ऐसा कभी हुआ। DOPT (Department of Personnel and Training) के द्वारा निर्धारित नियमों कि अनुसार प्रेग्नेंसी के केस में मैटरनिटी लीव और चाइल्ड केयर लीव का प्रावधान है। किसी ने जॉब तो नहीं छोड़ी है इस वजह से, इन लॉ वगैरह की वजह से। हां, अगर बेबी होनेवाला है तो उस केस में मैटेरनिटी लीव अच्छी- खासी मिल जाती है। यहां लोग लगभग एक-एक साल की छुट्टी के बाद आए हैं। (वेटिंग ड्यूटी पर बैठी एक महिला टीओ की ओर इशारा करते हुए श्रद्धा कहती हैं) यह लड़की अभी-अभी मां बनी है। अच्छी खासी लीव के बाद आ जाते हैं लेकिन ऐसा केस कोई मैंने देखा नहीं जिसमें किसी को जॉब ही छोड़नी पड़ गई हो। हां, एक लड़की ने मेट्रो की नौकरी छोड़कर सरकारी टीचर का काम चुना।
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सवाल: मेट्रो में जो महिला स्टाफ हैं क्या उनकी नाइट ड्यूटी लगती है?
श्रद्धा: मेट्रो में दो विंग्स होती होती हैं। पहली ऑपरेशंज विंग्स और दूसरी मेंटेनेंस विंग्स। महिलाओं को रात में ड्यूटी कम ही मिलती है। चूंकि हमारे पास पुरुष स्टाफ़ मौजूद हैं और महिला स्टाफ और पुरुष स्टाफ की रेशियो देखें तो यह टेन इज़ टू वन है, ऑपरेशन में तो यही हैं। मेंटेनेंस का मुझे उतना आइडिया नहीं है पर यही रेशियो मान लीजिए। जब विशाखा गाइडलाइंस आई थी, तो उसके हिसाब से अगर रात में महिला स्टाफ़ आ रही हैं तो उनके लिए अलग से स्टाफ़ प्रोवाइड करना पड़ेगा। एक स्टाफ़ के लिए अलग से स्टाफ़ रखना हो जाएगा। इसलिए अगर पुरुष स्टाफ हैं तो ये उनकी ही ड्यूटी लगाएंगे। ऐसा कभी नहीं होता है कि सारे पुरुष स्टाफ़ कहीं चले गए और एक महिला स्टाफ़ है और उसी को काम करना है। मेट्रो प्रमाइसेज़ के अंदर सुरक्षा है। हर इंसान कैमरे की निगरानी में है। रात में घर से ऑफ़िस तक आने में कठिनाई आ सकती है। वहीं, एक ऐसा एरिया है जो अनसेफ है। उसको अवॉयड करने के लिए हमें ऑड आवर्स में ड्यूटी नहीं मिलती है।
सवाल: बीते 4 जून को 2 बजे दोपहर में जोरबाग में एक महिला यात्री को मेट्रो में किसी ने फ़्लैश किया था, सेक्सुअल एब्यूज़। दिल्ली मेट्रो आपको महिला यात्रियों और मेट्रो की महिला कर्मचारियों के लिए कितना सुरक्षित लगती है?
श्रद्धा: मेट्रो के पीक आवर में बहुत भीड़ होती है। इतनी कि आपको एकदम चिपककर ही खड़े होना है। उसमें अगर कोई ऐसा कुछ करता है तो यह तो कहीं भी कोई भी कर देता है। महिलाओं के साथ कई बार ऐसे एनकाउंटर होते हैं। हमारा उस पर कंट्रोल नहीं है। बाकी जो दिल्ली मेट्रो की तरफ से सुविधा मिली है वह यह है कि हर प्लैटफार्म पर DMRP है, CRPF है, महिला जवान भी रहती हैं। शिकायत कर दीजिए या किसी मेट्रो अथॉरिटी से संपर्क करिए जो आपके सबसे नज़दीक है। कोई स्टाफ़, स्टेशन कंट्रोलर। अगर अब्यूज़र मेट्रो एरिया से निकला नहीं है तो उसे तुरंत पकड़ लिया जाएगा। मेट्रो में यौन उत्पीड़न के लिए शून्य सहनशीलता है।
DMRC D&AR कठोर दंड का प्रावधान भी है। चाहे वह यात्री हो या कोई मेट्रो का कर्मचारी। हम अपनी बात करें, तो हम यूनिफॉर्म में रहते हैं, उसे देखकर ऐसे भी लोग थोड़ा सजग ही रहते हैं। मेरी जानकारी में कोई केस रिपोर्ट हुआ नहीं है। सोशल मीडिया जैसे कि ट्विटर पर भी महिलाएं DMRC की टीम से अपनी शिकायत कर सकती हैं और पीआर टीम वैगरह तुरंत जवाब देती है। महिलाओं की सहायता कि लिए मेट्रो कि हर कोच में हेल्पलाइन नंबर लिखे हुए हैं। बाकी ICC है- इंटरनल कम्प्लेन कमेटी। यह 4 सदस्यों से बनी हुई कमिटी है जिस में से दो सदस्य इग्ज़ेक्युटिव( AGM/HR और DGM/HR) महिलाएं हैं। तीसरे DGM/OPS पुरुष सदस्य हैं और चौथी NGO की सदस्य हैं। इसमें हमारी शिकायत पूरी तरह गुप्त रखी जाती है।
(जसोला विहार मेट्रो पर श्रद्धा पार्किंग से अपनी ब्लू रंग की कार निकालती हैं, हम उनके साथ हो लेते हैं। वे रास्ते में पड़नेवाला डिपो हमें दिखाती हैं)
श्रद्धा: यह डिपो है, कभी कभी हमें यहां भी आना पड़ता है। बीच में यहां ट्रेन ने दीवार तोड़ दी थी, प्रधानमंत्री मोदी इसका उद्घाटन करनेवाले थे। हम यहां जॉइन करनेवाले थे टीओ के पद पर, सोचो क्या हालत हो गई थी। मतलब आप ट्रेन ऑपरेटर बन रहे हैं, डर तो लगता ही है। लेकिन ट्रेनिंग इतनी अच्छी करवाते हैं कि कर लेते हैं आप।
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सवाल: यह कार आपने कब ली थी, कैसा लगा था जब आपने कार खरीदी थीं? जैसे टेबल टेनिस आपने यहां आकर सीखी, कार के साथ आपकी क्या कहानी रही?
श्रद्धा: जरूरत पड़ी थी तब। लॉकडाउन हो गया। सारे ट्रांपोर्टेशन बंद थे। मैं नोएडा में रहती थी। अब ऑफ़िस तो आना है। ड्यूटी लग गई थी। नोएडा से एंट्री बंद थी दिल्ली में। कैब दिल्ली में चल रही थी, नोएडा में नहीं चल रही थी। ऑफिस से कैब मिलती भी तो वह नोएडा नहीं आती। मुझे कार लेनी थी, क्योंकि जरूरत है तो ले ली। कार लेने से पहले ड्राइविंग स्कूल से भी सीखा था, कार लेने से तीन चार महीने पहले ही। वह तो कह रहा था, “आपके बस की नहीं है, आप नहीं चला पाओगे। मैंने कहा, “ट्रस्ट होना चाहिए।”
सवाल: क्या आपने उन्हें बताया था कि आप मेट्रो ट्रेन ऑपरेटर हैं?
श्रद्धा: नहीं, नहीं (मुस्कुराती हैं) मैं दोनों हाथों से कार चलाती ही नहीं हूं। एक गलतफ़हमी रहती है दिमाग़ में कि गाड़ी स्टेयरिंग से चलती है, गाड़ी पैर से चलती है। जितना हाथ फ्री रखोगे उतने अच्छे से चला पाओगे।
सवाल: रुदौली, फैज़ाबाद से दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन में ट्रेन ऑपरेटर तक का आपका निजी सफ़र कैसा था?
श्रद्धा: मैंने पहले इंजीनियरिंग की। कानपुर के किसी प्राइवेट कॉलेज से, इलेक्ट्रॉनिक एंड कम्युनिकेशन, मतलब एकदम स्टीरियोटाइप अचीवमेंट रहा है आपका। मेहनती मैं शुरू से थी। ऐसा नहीं कहूंगी कि बहुत होशियार वगैरह पर यह तो था कि कुछ न कुछ तो करना है। वह इसलिए क्योंकि करने के अलावा कोई ऑप्शन नहीं था। अच्छे लोग के साथ आप चार बातें सीखते हैं। मैं शुरू से उन लोगों के साथ नहीं रही। थोड़ा पढ़ लिया, एक उम्र तक शादी कर ली। खुद ही चुनना होता है कि आप अपने संपर्क में कैसे-कैसे लोगों को रखते हैं।
इंजीनियरिंग थर्ड ईयर में इसरो का फॉर्म डाला और यहां पर मेरे कज़िन रहते थे। इसरो का सेंटर हर जगह नहीं पड़ता है। मुझे लगा दिल्ली डाल देते हैं, आकर दे सकते हैं क्योंकि मेरे लिए यह जगह सही थी। हम वह लोग हैं जो कहीं भी जाकर एग्ज़ाम नहीं दे सकते हैं। हम वही जगह ढूंढते हैं जहां हमारे रिश्तेदार रहते हैं कि चलो उनके यहां जाकर दे देंगे। हम आए, वह मुझे लेने आए। पहली बार मैं दिल्ली आ रही थी अकेले। डर तो लग रहा था लेकिन उन्होंने मेरी टिकट करवा दी। वह मुझे लेने आए और मैं ट्रेन में सो रही थी। उन्होंने आकर मेरा पैर हिलाया, “मैडम उतरना नहीं है क्या।” यह जो लंबी यात्रा होती है मुझे उसका भी अनुभव नहीं था। मैं रुदौली में पहले रहती थी उसके बाद कॉलेज गई। मेरा केवल रुदौली से कॉलेज जाने तक का अनुभव था। मैं फैज़ाबाद तक नहीं गई थी कभी ढंग से। फैमिली वालों के साथ कहीं गई पर ऐसे अकेले ट्रैवल करने का कोई अनुभव नहीं था। फिर वह मुझे लेने आए।
हम लोग अक्षरधाम रहते थे। उन्होंने कहा, “मेट्रो से चलेंगे।” ज़ाहिर सी बात है मेट्रो से ही लेकर जाएंगे। तब मैंने पहली बार मेट्रो देखी साल 2012 में। उससे पहले मैंने मेट्रो-वेट्रो नहीं देखी थी। न ही मैंने यूट्यूब वीडियो में देखा था, न ही मेरा ऐसा कोई सपना था कि मुझे मेट्रो में काम करना है। हम वह लोग हैं कि जॉब करनी है, जॉब में आप क्या करोगे, तो टेक्निकल फील्ड में हो, आपको कुछ स्पेसिफिक जॉब पता होती है। जो पता है उसका फॉर्म भरो, कोडिंग सीख ली तो आप आईटी में भी जा सकते हैं। आपके पास स्कोप ज्यादा हैं। रिलेटिव के पास दो मेट्रो कार्ड था। एक कार्ड उन्होंने मुझे दे दिया। अपना कार्ड उन्होंने वॉलेट के अंदर रखा हुआ था। उन्होंने बोला, “इसको यहां ऐसे पंच करो, गेट खुलेगा तुम अंदर चली जाना।” उन्होंने पहले मुझे भेजा। उन्होंने बोला, “जाओ जाओ जाओ।” फिर मैं अंदर चली गई। मैंने सोचा अब यह कैसे आएंगे। उन्होंने अपना वॉलेट लिया, वॉलेट लगाया, खुल गया गेट और वह अंदर आ गए। मुझे समझ नहीं आया बहुत देर तक कि यार वॉलेट से कैसे गेट खुल जाता है। मैंने सोचा हो सकता है कुछ हो, पास-वास।
“इंजीनियरिंग थर्ड ईयर में इसरो का फॉर्म डाला और यहां पर मेरे कज़िन रहते थे। इसरो का सेंटर हर जगह नहीं पड़ता है। मुझे लगा दिल्ली डाल देते हैं, आकर दे सकते हैं क्योंकि मेरे लिए ये जगह सही थी। हम वह लोग हैं जो कहीं भी जाकर एग्ज़ाम नहीं दे सकते हैं। हम वही जगह ढूंढते हैं जहां हमारे रिलेटिव रहते हैं कि चलो उनके यहां जाकर दे देंगे।”
हम लोग नयी दिल्ली से आ रहे थे। नई दिल्ली से आए राजीव चौक। राजीव चौक पर मेट्रो बदलनी थी। वह जो नीचे से ऊपर केवल राजीव चौक का चेंज था मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। मैं पूरी तरह कंफ्यूज़ थी। किधर से कैसे ट्रेन आ रही है, किधर जा रही है, कुछ समझ नहीं आ रहा है। उन्होंने कहा, “हमें नोएडा सिटी सेंटर की तरफ जाना है, हम द्वारका वाले की तरफ आ गए।” ऊपर से क्रॉस करना होता है। कहते हैं न जैसे आपको चक्कर आ जाता है। मुझे वैसा सा लग रहा था। बहुत कन्फ्यूजिंग सा था। मैं बस देख रही थी। क्या चीज़ है, क्या सही चीज़ है, मतलब वह हाई लेवल की जो कम्फर्ट ट्रैवेलिंग होती है न मैंने पहली बार की थी। मैं तो प्लेन में भी नहीं बैठी थी। मैंने मेट्रो जैसी चीज़ नहीं देखी थी। तब तो लखनऊ मेट्रो भी नहीं बनी थी। वह मेरा एसी वाला ट्रैवल भी पहला था जिसमें मेरा थर्ड एसी का टिकट था। फिर यहां पर मेट्रो में। तब तक मैंने नहीं सोचा था कि मुझे मेट्रो में जॉब करनी है। फिर मैंने इसरो का एग्ज़ाम दिया और बस उसके बाद यहां से चले गए।
उसके बाद जब फोर्थ ईयर आया तो ज़ाहिर सी बात है प्लेसमेंट चल रहा था। लेकिन कॉलेज में कंपनियां आती नहीं हैं। आती हैं तो फेक आती हैं। कुछ लोग टैलेंटेड थे जिनको एक्सपोज़र चाहिए होता था, वह ऑफ कैंपस कोशिश कर रहे थे। यहां पर भी एक चेंजिंग पॉइंट है कि मैंने FCAT का फॉर्म भर दिया था। उसको देने के लिए मैं दोबारा दिल्ली आई थी 2013 में। वह मेरा पहला एग्ज़ाम था जो क्लियर हो गया था। वही, जेनरली तैयारी की थी जो लोग प्लेसमेंट के लिए करते हैं। FCAT का रिटन एग्ज़ाम मैंने निकाल लिया था। मेरे कॉलेज में एक लड़के का और मेरा निकला था। बहुत सारे लोग होते हैं न जो आपको पहचानते नहीं हैं तब पहचानने लगे। मैं कॉलेज में बाकी एक्टिविटीज़ जैसे सिंगिंग, डांसिंग उसमें नहीं थी। बस पढ़ते रहो वही बहुत है। कॉलेज में हर शहर से बच्चे आ रहे हैं तो आपको अपना स्पेस बनाने में टाइम लगता है। थर्ड ईयर आते-आते मैं टॉप थ्री में आ गई थी। एक बार रिटेन निकल गया तब मुझे लगा कि एक बार तैयारी करनी चाहिए। अपने आप को मौका देना चाहिए। उससे पहले तो बस यही सोच रही थी कि बस कोई सी भी जॉब मिल जाए। वह जो पहला डायवर्जन आया, वह उन छोटे-छोटे डिसीज़न में से पहला था जिसने यहां तक पहुंचाया।
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सभी तस्वीरें ऐश्वर्य, निधि और ताज द्वारा उपलब्ध करवाई गई हैं।