“कला का कोई भी रूप उतना हमारी साधारण चेतना के परे नहीं जाता जितना कि कोई फिल्म जाती है, सीधे हमारी भावनाओं और आत्मा के गोधूलि कमरे की गहराई तक।” स्वीडिश फिल्ममेकर इंगमर बर्गमैन का यह कथन मेनस्ट्रीम हिन्दी सिनेमा में कुछ चुनिंदा फ़िल्मों के लिए कहा जा सकता है। उन्हीं चुनिंदा फिल्मों की श्रेणी में हाल ही में शामिल हुई है फिल्म ‘मट्टो की साइकिल।’
जब से ओटीटी प्लैटफॉर्मस आए हैं लोगों का रुख अंतरराष्ट्रीय और ग़ैर-हिन्दी सिनेमा की तरफ़ बढ़ा है। इससे हिन्दी कमर्शियल सिनेमा में अफरा-तफरी का माहौल बना है। हालांकि, कई एक्सपर्टस कहते हैं कि कोविड इसका बहुत बड़ा कारण है। अगर ऐसा है तो और दूसरी भाषा का सिनेमा क्यों पोस्ट कोविड दौर में भी बेहतर साबित हो रहा है? दरअसल ज़्यादातर हिन्दी सिनेमा वालों ने राइटर्स के लिए स्पेस छोटा कर दिया है। वे वही पुराने ढर्रे की कहानियां लाकर दर्शकों के सामने रख रहे हैं। हम कह सकते हैं कि ये दौर कमर्शियल हिन्दी सिनेमा के लिए एक ख़राब दौर है। इन सब बातों को चुनौती देती हुई फिल्म है, ‘मट्टो की साइकिल’, जिसकी कहानी साधारण-सी है लेकिन प्रभावशाली है।
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यह फिल्म सिनेमाघरों में 16 सितंबर 2022 को रिलीज़ हो चुकी है। फ़िल्म में मुख्य किरदार मट्टो को निभाया है प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक प्रकाश झा ने, डायरेक्ट किया है फ़िल्म मेकर एम. गनी ने और फ़िल्म का स्क्रीनप्ले लिखा है पुलकित फिलिप ने। फ़िल्म उत्तर प्रदेश के छोटे से शहर मथुरा में फिल्माई गई है और उसी शहर से एम. गनी और पुलकित फिलिप ताल्लुक़ रखते हैं।
आप अगर उन दर्शकों की श्रेणी में आते हैं जिसे बिना किसी तड़क-भड़क के फ़िल्में पसंद ही नहीं आतीं तब यह फ़िल्म आपके लिए नहीं है। लेकिन अगर आप अपने आसपास के हालात से वाकिफ हैं। आप इस ‘देश’ को समझते हैं, समझना चाहते हैं तब आपको यह फ़िल्म ज़रूरी देखनी चाहिए। फिल्म की कहानी सरल और सीधी है। मथुरा शहर के भरतिया गाँव का एक दिहाड़ी बेलदार मजदूर है-मट्टो। उसे 300 रुपये हर दिन काम के लिए मिलते हैं। मट्टो अपनी पत्नी देवकी और दो बेटियां नीरज और लिम्का के साथ अपने जीवन में संघर्ष कर रहा है। पैसों की कमी की वजह से दोनों बेटियां पढ़ने नहीं जाती और बड़ी बेटी नीरज मोतियों की माला बनाने का काम करती है। मट्टो का एक दोस्त है कल्लू जिसकी साइकिल ठीक करने की दुकान है। उसी दुकान पर अक्सर राजेश आकर बैठता है जो पेशे से वकील है लेकिन उसे अकसर कचहरी से खाली हाथ वापस आना पड़ता है। फिल्म में एक अहम भूमिका में है मट्टो की ‘साइकिल’ जिसके बिना फ़िल्म का हर सीन अधूरा है।
अगर आप अपने आसपास के हालात से वाकिफ हैं। आप इस ‘देश’ को समझते हैं, समझना चाहते हैं तब आपको यह फ़िल्म ज़रूरी देखनी चाहिए।
फिल्म की मुख्य भूमिका में है मट्टो की साइकिल
फिल्म के ज़्यादातर दृश्यों में साइकिल और मट्टो हैं। मट्टो की साइकिल में रोज कुछ न कुछ ख़राबी आ ही जाती है। साइकिल है भी उसकी उन्नीस साल की बेटी से एक साल बड़ी। फिल्म में मट्टो का उद्देश्य नीरज की शादी करना और अपने लिए एक नयी साइकिल खरीदना है। मट्टो की साइकिल उसे तकरीबन रोज परेशान करती है जिसकी वजह से जहां वो काम पर जाता है, वहां पहुंचने में अधिकतर देर हो जाती है। उसका ठेकेदार उसे हमेशा यह एहसास करवाता है कि या तो वह नयी साइकिल ले ले या फिर किसी दूसरे वाहन से आया करे, रोज़ रोज़ उसका देरी से आना नहीं चल सकता।
इसी देरी के चक्कर में एक दिन ठेकेदार उसे काम से मना कर देता है, लेकिन बिना कमाए तो परिवार नहीं पल सकेगा सो मट्टो मजदूरों की मंडी में जा बैठता है। मजदूरों की मंडी आपको एक नया शब्द समूह जान पड़ सकता है लेकिन मजदूरों के जीवन में यह आम हो चुका है। कोई व्यक्ति जिसे मज़दूर की किसी काम के लिए ज़रूरत हो वह इस मंडी में से किसी भी मजदूर को पूरे दिन के तय रुपयों में ले जाता है। मट्टो को भी इस मंडी में से एक व्यक्ति साढ़े तीन सौ रुपए दिन के हिसाब से काम पर ले जाता है।
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फिल्म यथार्थवादी सिनेमा है। जगह-जगह हंसाती है, व्यवस्था पर चुपके से व्यंग करती है और कई जगह आंखें नम भी कर देती है। इस सब के इर्द-गिर्द ही फिल्म की कहानी चलती है।
गाँव में चुनावी माहौल का दृश्य भी है और नये उम्मीदवार सिकंदर फौजी की गांव में लहर है इस आशा के साथ कि जिस फ़ौजी ने देश की सीमा की रक्षा की, वह चुनाव जीतने के बाद लोगों की भलाई के लिए काम करेगा, उनके अच्छे दिन लेकर आएगा। फौजी जीत भी जाता है। हालांकि, फौजी की सच्चाई आप फ़िल्म देख कर ही जानेंगे। वहीं, एक जगह मट्टो की पत्नी देवकी को किडनी स्टोन का दर्द होता है। उसके ऑपरेशन के लिए मट्टो को उधार लेना पड़ता है और घर के इकलौते जेवर झुमकी को भी बेचना पड़ता है।
फिर एक शाम काम से लौटते हुए गाँव के ही रास्ते में सब्ज़ी खरीदते वक़्त मट्टो की साइकिल को एक ट्रैक्टर कुचलकर चला जाता है और वहां से मट्टो के जीवन में संघर्षों का अंबार खड़ा हो जाता है। अड़तीस सौ रुपये की नयी साइकिल खरीदने का संघर्ष। फिल्म यथार्थवादी सिनेमा है। जगह-जगह हंसाती है, व्यवस्था पर चुपके से व्यंग करती है और कई जगह आंखें नम भी कर देती है। इस सब के इर्द-गिर्द ही फिल्म की कहानी चलती है।
फ़िल्म का स्क्रीनप्ले किस तरह प्रभावशाली है?
फिल्म का ओपनिंग शॉट लगता है हम काफी दूर से देखते हैं कि गाँव के बाहर जाने का एक लंबा रास्ता है जहां सड़क के बीचो-बीच एक साइकिल खड़ी है और उसे कोई ठीक कर रहा है। पहला ही डायलॉग है, “रे मट्टो तेरी फटफटिया नै मरवाए आज फिर।” पहले ही सीन में पहले ही डायलॉग में हम फिल्म के विषय से मिल लेते हैं, यह एक अच्छे स्क्रीनप्ले की निशानी है। फिल्म सांकेतिक रूप से दर्शकों से बातें करती है। जितनी बातें सीधे-सीधे संवादों से फिल्म कहती है उससे कई ज़्यादा बातें हम से कैमरा कह देता है।
गांव के दो बड़े मोहल्ले जिसमें से एक को ‘ऊंचा मोहल्ला’ कहा जाता है, इस ऊंचे मोहल्ले से ये बात स्पष्ट हो जाती है कि गांव की ऊंची ज़मीन पर तथाकथित उच्च जाति, वर्ग के लोग बसे हैं जिनके यहां कुछ मूलभूत सुविधाएं जैसे पानी का नल, ठीक-ठाक रास्ते बने हुए हैं लेकिन मट्टो का परिवार जिस मोहल्ले में है वह ‘नीच मोहल्ला’ है यानी तथाकथित निचली जाति, वर्ग के लोगों का मोहल्ला जहां पानी के नल की सुविधा, लेट्रिन की सुविधा तक उपलब्ध नहीं है और ऐसे में नीचे मोहल्ले वालों को ऊंचे मोहल्ले से पानी भरकर लाना पड़ता है।
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बहुत छोटे से डायलॉग से यह बात स्पष्ट हो जाती है, जब प्रधान के चेले मट्टो से पूछते हैं कि वह साइकिल से क्यों नहीं जा रहा? तब वह कहता है कि लिम्का ऊंचे मोहल्ले से पानी लाते हुए साइकिल और पानी को लेकर गिर पड़ी तो साइकिल टूट गई। फ़िल्म समाज में मौजूद ऊंच नीच के सिस्टम को सिंबलाइजेशन के मध्यम से दिखाने में सफल होती है। लिम्का से टूटी साइकिल को मट्टो साइकिल रिपेयर वाले व्यक्ति, कल्लू से इतनी बार ठीक करा चुका है कि कल्लू हंसी-हंसी में उसकी साइकिल को पल्सर कहता है।
कल्लू की ही दुकान पर वकील राजेश अख़बार पढ़ते हुए कल्लू से देश-दुनिया की ख़बर को साझा करते है। राजेश हमें शुरू के दृश्यों में सूअरों को चराते हुए दिखता है लेकिन उसके बाद वह एक वकील की पोशाक में दिखता है और तब पता चलता है कि वह एक पेशेवर वकील है। राजेश फिल्म का बहुत कहता है, “हमारी तौ नेम प्लेट ही खोटी है, कभी-कभी तौ कचहरी से खाली हाथ आनौ पड़ौ है। सूअर ताड़ते रहो तो ठीक गटर में घुसते रहो तो ठीक।”
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मट्टो का परिवार जिस मोहल्ले में है वह ‘नीच मोहल्ला’ है यानी तथाकथित निचली जाति, वर्ग के लोगों का मोहल्ला जहां पानी के नल की सुविधा, लेट्रिन की सुविधा तक उपलब्ध नहीं है और ऐसे में नीचे मोहल्ले वालों को ऊंचे मोहल्ले से पानी भरकर लाना पड़ता है।
वहीं मट्टो देवकी को, किडनी स्टोन दर्द से तड़पने पर साइकिल पर बैठाकर दवा दिलवाने के लिए ले जाता है तब हमें ‘प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र’ की इमारत खस्ता हालत में बैकग्राउंड में दिख जाती है जो साफ़ कहती है कि सरकारी अस्पतालों की आज क्या हालत है? किस प्रकार से सरकारी डॉक्टर बाहर के जांच केंद्रों के लिए अनुशंसा करते हैं। इस फिल्म में बख़ूबी दिखाया गया है।वह दृश्य जहां एक बड़ा ट्रैक्टर मट्टो की साइकिल को कुचलकर चला जाता है जिसके पीछे मट्टो रूआंसा होकर दौड़ता है लेकिन कुछ कर नहीं पाता। फिल्म की जान है उस दृश्य में। टेक्निकल भाषा में कहें तो प्लॉट पॉइन्ट। फिल्म के इस सीन में बड़े ट्रैक्टर का साइकिल को कुचलना, पूंजीवादी व्यवस्था की पहचान है जहां संसाधन से लैस वर्ग, उससे कमतर वर्ग को कुछ नहीं समझता और उससे वह सब कुछ छीन लेता है जिससे वह कोई पूंजी कमा, जुटा ना सके।
चाहे चुनाव के वक्त विकास भरे नारे लगाते वक्त गंदी नालियों में गिरते हुए युवक का एक छोटा सा शॉट हो या नीरज का मोरमुकुट को यौन हिंसा की कोशिश करने पर थप्पड़ लगाना हो, यह बताती है कि गरीबी में प्रेम होने का अर्थ यह नहीं कि उसका आत्मसम्मान ही नहीं है। फ़िल्म के हर शॉट का कोई न कोई मतलब है जिसकी अलग-अलग व्याख्या की जा सकती है। जब मुख्यधारा में ये नैरेटिव गढ़ा जा चुका है कि फिल्में मेट्रोपोलिटन शहर जैसे दिल्ली, मुंबई के सिवाय कहीं नहीं बन सकतीं तब मथुरा जैसे शहर में ऐसा कर दिखाना, इस बात का संकेत है कि फिल्में हर शहर, कस्बे, गांव में बन सकती हैं, वहां से निकलकर सिनेमाघरों तक पहुंच सकती हैं।
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