इंटरसेक्शनलजेंडर “पुरुष कमाएं, महिलाएं बचाएं” बात ‘बचत’ की पितृसत्तात्मक अवधारणा की

“पुरुष कमाएं, महिलाएं बचाएं” बात ‘बचत’ की पितृसत्तात्मक अवधारणा की

ऐसी अवधारणा समाज में क्यों मौजूद है? शायद इसलिए क्योंकि अधिकतर महिलाएं घर संभालने का काम करती हैं? शायद इसलिए क्योंकि लोगों का मानना है कि महिलाएं पुरुष के मुकाबले ज्यादा पैसे खर्च करती हैं?

एक घर है, घर में एक रसोईघर है, पास में एक ताख है, ताख पर कुछ डिब्बे हैं जिनमें राशन का सामान है। उन्हीं राशन के डिब्बों के बीच कहीं कोई एक और डिब्बा है जिसमें हमारी माएं पैसे बचाकर रखती हैं। ये उनकी वह गुल्लक है जो कभी नहीं भरती लेकिन कभी ख़ाली भी नहीं रहती। घर की महिलाएं अक्सर रोज़मर्रा की घटती-बढ़ती ज़रूरतों के लिए इस एक गुल्लक पर निर्भर रहती हैं।

गृहिणी हो या कामकाजी महिलाएं, अपने दैनिक खर्चे से कुछ पैसे बचाना उनके लिए ज़रूरत के साथ-साथ एक आदत बन चुकी है। ऐसे में महिलाओं से हमारा पितृसत्तात्मक समाज हमेशा यह उम्मीद करता आया है कि घर के तमाम खर्चों के बीच वे बचत ज़रूर करें। इसी सोच के मुताबिक पुरुषों की ज़िम्मेदारी पैसा कमाना है और महिलाओं का घर चलाना। ख़ैर, पितृसत्तात्मक विचार से प्रभावित लोग तो इसे सही ही मानेंगे ‘पुरुष कमाएं, महिलाएं बचाएं’। 

बचत और महिलाएं 

महीने भर के घरेलू और दूसरे व्यक्तिगत खर्चों के बाद कुछ राशि बचा लेना ताकि भविष्य में अगर हमें कोई परेशानी, किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो हम उसे पूरा कर पाएं, बचत कहलाता है। निवेश के साथ ही अगर हम ये पैसे बैंक बचत खाते में भी रखेंगे तो सालाना ब्याज का लाभ उठाते हैं। ख़ैर, यह तो हो गई इसकी महत्वता जिससे सभी परिचित है। 

ऋतु सिंह पेशे से एक शिक्षक हैं। स्कूल और घर में बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ वह अकेले अपना घर और जानवरों की देखभाल करती हैं। महिलाओं से बचत की अपेक्षा क्यों की जाती है यह पूछने पर वह कहती हैं, “हम जब घर में अकेले होते हैं तो चोखा-भात से भी काम चला लेते हैं पर जब पति और बच्चे साथ होते हैं तो भात, दाल और दो प्रकार की सब्जी पकाना अनिवार्य हो जाता है। तो चोखा भात खा लेना भी बचत करने का एक तरीका है। हम कमाने के साथ बचत करें ये हमारी अपनी क्षमता है और हमें इससे कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि हमें अपने परिवार की खुशी से ही सुख मिलता है, बच्चों के शौक पूरे करने से ही संतोष मिलता है।”

लेकिन बात जब घरेलू खर्च की आती है तो ख़ासकर महिलाओं से उम्मीद की जाती है कि वे बचत करें। ऐसी अवधारणा समाज में क्यों मौजूद है? शायद इसलिए क्योंकि अधिकतर महिलाएं घर संभालने का काम करती हैं? शायद इसलिए क्योंकि लोगों का मानना है कि महिलाएं पुरुष के मुकाबले ज्यादा पैसे खर्च करती हैं?

बचत पर महिलाओं की राय

ऋतु सिंह पेशे से एक शिक्षक हैं। स्कूल और घर में बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ वह अकेले अपना घर और जानवरों की देखभाल करती हैं। महिलाओं से बचत की अपेक्षा क्यों की जाती है यह पूछने पर वह कहती हैं, “जो जिस काम में सक्षम होता है लोग उसे ही वह काम सौंपते हैं। ऐसे में महिलाओं की समझ और विचार पुरुषों के मुकाबले ज्यादा सुलझी हुई है। पत्नी तीन किलो तेल से महीने भर खाना पकाती है पर पति अगर एक समय की भी सब्जी पकाता है तो स्वाद बेहतर करने के लिए 200 ग्राम तेल उड़ेल देता है। जबकि महिलाएं स्वाद से ज्यादा महत्व पैसे को देती हैं। हम जब घर में अकेले होते हैं तो चोखा-भात से भी काम चला लेते हैं पर जब पति और बच्चे साथ होते हैं तो भात, दाल और दो प्रकार की सब्जी पकाना अनिवार्य हो जाता है। तो चोखा भात खा लेना भी बचत करने का एक तरीका है। हम कमाने के साथ बचत करें ये हमारी अपनी क्षमता है और हमें इससे कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि हमें अपने परिवार की खुशी से ही सुख मिलता है, बच्चों के शौक पूरे करने से ही संतोष मिलता है।”

एक घर है, घर में एक रसोईघर है, पास में एक ताख है, ताख पर कुछ डिब्बे हैं जिनमें राशन का सामान है। उन्हीं राशन के डिब्बों के बीच कहीं कोई एक और डिब्बा है जिसमें हमारी माएं पैसे बचाकर रखती हैं। ये उनकी वह गुल्लक है जो कभी नहीं भरती लेकिन कभी ख़ाली भी नहीं रहती। घर की महिलाएं अक्सर रोज़मर्रा की घटती-बढ़ती ज़रूरतों के लिए इस एक गुल्लक पर निर्भर रहती हैं।

वहीं, सुनिता देवी एक मध्यवर्गीय संयुक्त परिवार की गृहिणी हैं। महिलाओं से बचत की अपेक्षा के बारे में वह कहती हैं, “पुरुषों में यह क्षमता ही नहीं होती है कि वे बचत करें, इसलिए महिलाएं करती हैं। हम अपनी योग्यता का पूर्ण इस्तेमाल कर बचत करते हैं ताकि घर-परिवार में पैसे का अभाव न हो। अगर हमें सिलाई आती है और हम अपना ब्लाऊज़, पेटिकोट खुद सिलते हैं तो दर्जी का खर्च बचता है। झाड़ू, पोछा, बर्तन करते हैं ताकि घरेलू कामगार का खर्च बचे। ऐसी कई छोटी-बड़ी चीज़ें हैं। हमारी कोशिश रहती है कि जितना हो सके बचा लिया जाए। सिर्फ़ कहने कि बातें होती है कि महिलाओं के बहुत खर्चे हैं, लेकिन असल में ऐसा नहीं है। महिलाएं ही हैं जो घर को चलाती है, बचत करती हैं।”

हमारे पितृसत्तात्मक समाज में अधिकतर महिलाएं घर संभालती हैं। दूध, राशन, कपड़े, बर्तन आदि जैसे कामों के लिए पैसे खर्चती हैं और इन खर्चों से उनसे पैसे बचाने की उम्मीद की जाती है।

नीलम साव सिंगल पेरेंट हैं और घर के काम के साथ सिलाई का काम करती हैं। बचत को लेकर उनका कहना है, “मेरे घर पर तो आमदनी, खर्च और बचत तीनों की जिम्मेदारी मेरी अपनी है इसलिए अगर हम बचत नहीं करेंगे तो उसका नुकसान हमको ही सहना पड़ेगा। लड़की का शादी कैसे करेंगे अगर बचत नहीं करेंगे तो? ख़ैर मेरा तो यही प्रयास रहता है पर बाकि महिलाओं को लेकर हम ये बोलेंगे कि जो खुद कामकाजी है उनको परेशानी कम होती है पर जो हर तरफ से अपने पति, पिता, भाई या किसी दूसरे पर निर्भर है उनको तो गुपचुप खाने के लिए भी हाथ फैलाने होंगे, हर छोटी-बड़ी चीज़ पूछ कर लेनी होगी और इससे बचने के लिए महिलाओं को बचत करना ही चाहिए। कोई उससे अपेक्षा रखें न रखें उसके अपने सुख के लिए ये ज़रूरी है।”

हमारे पितृसत्तात्मक समाज में अधिकतर महिलाएं घर संभालती हैं। दूध, राशन, कपड़े, बर्तन आदि जैसे कामों के लिए पैसे खर्चती हैं और इन खर्चों से उनसे पैसे बचाने की उम्मीद की जाती है। इसके अलावा हमारा समाज भी अब ऐसे ढल चुका है कि गृहिणी हो या कामकाजी महिला, दोनों ही स्थिति में घर संभालने का काम अक्सर महिलाएं ही करती हैं। भले ही ये उनका शौक, जिम्मेदारी न होकर मजबूरी हो। आज महिलाएं हर क्षेत्र में सशक्त हो रही है पर फिर भी और जगह असमानता के साथ ही समाज में यह अवधारणा भी है कि महिलाएं घर की परिधि में रहे और घर की जिम्मेदारियों को पूर्ण रूप से निभाएं यही उचित होता है। बचत करना कोई दोष नहीं एक अच्छी आदत है। ऐसे में सिर्फ महिलाओं से घरेलू खर्चे में बचत की उम्मीद कितनी जायज़ है?


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