हिंदी सिनेमा के लिए 2023 एक साल अहम रहा। कोविड के बाद अब लोग वापस से सिनेमाघरों में फिल्में देखने जाने लगे। बड़े बैनर्स और चमकते सितारों के बीच कई ऐसी फिल्में बनी जिन्होंने बॉक्स ऑफिस पर खूब पैसे कमाए और लोगों से खूब सराहना मिली। इनमें से कई ऐसी फिल्में भी आईं जिसमें महिलाएं केंद्र में रहीं। ओटीटी के आने के बाद विविध कहानियों को जगह मिलने लगी है। लेकिन बड़े पर्दे पर हालात अभी भी कुछ पहले जैसे ही हैं। लेकिन इस लेख के माध्यम से हम उन फिल्मों की बात करेंगे जिसने लैंगिक समानता और समावेशी समाज की दिशा अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। ये वैसी फिल्में हैं जिन्होंने समाज में सकारात्मक बदलाव लाने की कोशिश की है।
इन महिला-केंद्रित फिल्मों की अगर समीक्षा की जाए तो हर फिल्म की तरह जरूर इन कहानी और किरदारों की समीक्षा की जा सकती है। अभी ऐसी फिल्मों पर काफ़ी काम होना बाकी है। लेकिन इन कहानियों का लोगों के बीच आना ही एक बड़ा कदम है। इस लिस्ट में थिएटर और ओटीटी दोनों पर आई फिल्में हैं जिनमें महिलाओं ने मुख्य किरदार निभाए हैं।
1. मिसेज़ चैटर्जी वर्सेज नॉर्वे
मार्च में रिलीज़ हुई ‘मिसेज़ चैटर्जी वर्सेज नॉर्वे’ इस साल की सबसे पसंद की गई फिल्मों में से एक रही। सागारिका चक्रवर्ती नाम की महिला के जीवन पर आधारित इस ‘लीगल ड्रामा’ फिल्म का निर्देशन आशिमा चिब्बर ने किया और रानी मुखर्जी मुख्य भूमिका में रहीं। विपरीत परिस्थितिओं का सामना कर रही एक साधारण प्रवासी बंगाली महिला (देबिका) के किरदार को उन्होंने बखूबी निभाया है। फिल्म शुरू होती है जब देबिका के दोनों बच्चों को नॉर्वेजियन बाल कल्याण एजेंसी इस आधार पर अपने साथ ले जाती है कि उनके माँ-बाप उनका ठीक से पालन-पोषण नहीं कर पा रहे। कहानी आगे बढ़ती है और देबिका अपने ही बच्चों को घर वापस लाने के लिए सबसे नॉर्वे सरकार से लेकर भारत तक न्यायालय के साथ-साथ, परिवार और समाज के आगे साथ संघर्ष करती है। इसके साथ ही यह फिल्म एक साधारण महिला के अपने अधिकारों और बच्चों के लिए की गई लड़ाई को भी विशेष रूप से दिखाती है। रानी मुखर्जी इससे पहले भी ऐसे बहतरीन किरदार निभा चुकी हैं।
2. धक-धक
चार आम महिलाओं के एक खास सफ़र की कहानी को दिखाती फिल्म ‘धक-धक’ इस साल अक्टूबर में सिनेमाघरों में रिलीज हुई। अनविता दत्त और परिजात जोशी की लिखी इस फिल्म में अलग-अलग उम्र और परिवेश से आई ये चार महिलाएं: माही (रत्ना पाठक शाह), स्काई (फातिमा साना शेख), उज़मा (दिया मिर्ज़ा), और मंजरी (संजना सांघवी) दिल्ली से लेह तक की एक बाईक ट्रिप पर जाती हैं। इस सफ़र को तय करने के हर किरदार के अपने कारण हैं और उनके जीवन के अपने संघर्ष हैं। यात्रा के दौरान, वे हंसती हैं, मज़े करती हैं, टूटती हैं, फिर से उठती हैं और अपने सपने की ओर तेजी से आगे बढ़ती हैं। यह फिल्म महिलाओं की दोस्ती और साझेदारी को भी दिखाती है जो सफ़र के शुरुआत में बिना एक-दूसरे को जाने निकल पड़ती हैं और आगे चल कर एक-दूसरे का सहारा बन जाती हैं। ‘धक-धक’ कई पूर्वाग्रहों पर प्रहार करती है और इन चारों किरदारों के संघर्षों में शायद हर महिला अपने जीवन की कोई छवि देख सकती है।
3. छतरीवाली
रकुल प्रीत सिंह की अभीनित ‘छतरीवाली’ बेहतरीन सीख देने वाली एक ताज़ा फिल्म है। स्कूलों में यौन शिक्षा के महत्व के बारे में बताती ये फिल्म समाज और परिवार में बदलाव के पीछे महिला के योगदान पर भी बात करती है। रकुल प्रीत का किरदार कई महिलाओं को परिवार या समाज से बहिष्कृत किए जाने के डर के बिना सामाजिक आंदोलनों का नेतृत्व करने की आशा देता है। तेजस प्रभा विजय देओस्कर की निर्देशन में बिना उपदेशात्मक बने यह फिल्म अपनी बात को हस्यात्मक रूप से बहुत ही सरल तरीके से दर्शकों को समझाती चलती है। रकुल प्रीत के करिअर की यह पहली ऐसी फिल्म है जिसमें उनके किरदार और अभिनय के कंधे पर कहानी आगे बढ़ती है। कंडोम टेस्टर बनने से पहले की सान्या से लेकर घर से बाहर होने की नौबत आने तक वह एक मजबूत महिला का अपना किरदार बिना उत्तेजित हुए बहुत दृढ़ता के साथ निभाने में कामयाब रहती हैं। उनके अभिनय में एक अलग तरह की सहजता है।
4. नियत
अनु मेनन द्वारा निर्देशित नियत एक ‘मर्डर रहस्य थ्रिलर’ है, जिसका नेतृत्व विद्या बालन कर रही हैं। इसमें एक महिला जासूस को दिखाया गया है जो न केवल अपने कौशल में, बल्कि लैंगिक मानदंडों को चुनौती देने की क्षमता में भी शक्तिशाली है। नियत में दो आकर्षक विषय शामिल हैं। पहली कहानी एक निर्वासित अरबपति आशीष कपूर (राम कपूर) की रहस्यमय हत्या और लालच, साजिश और किसी भी तरह से अमीर बनने के गंदे इरादों के साथ लोगों के इर्द-गिर्द घूमती है और दूसरी तरफ़ एलजीबीटीक्यू+ समुदाय का प्रतिनिधित्व करती प्रभावशाली महिला विद्या बालन फिल्म को काफी महत्वपूर्ण बनाती है। आपने कितनी बार महिला जासूसों के बारे में सुना है, शर्लक होम्स की दुनिया में? नियत में विद्या का किरदार हमें रहस्य शैली में नई रोशनी देता है। एक महिला को रहस्य की गुत्थी सुलझाते और उसका समाधान ढूंढते देखना ताजगी भरा है।
5. खुफ़िया
नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हुई विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘खुफ़िया’ में तब्बू ने कृष्णा मेहरा या ‘केएम’ नाम की एक अफ़सर का किरदार निभाया है। यह फिल्म थ्रिलर की श्रेणी में आती है। तब्बू, वामिका गब्बी और आली फज़ल समेत कई बहतरीन अभिनेता इस फिल्म में दिखते हैं। तब्बू का किरदार फिल्म को एक अलग बारीकी देता है। कहानी के लिहाज़ से इस फिल्म में कई कमियां निकाली जा सकती हैं। विशाल भारद्वाज की फिल्मों में ये सबसे अच्छा काम नहीं कहा जा सकता। लेकिन तमाम खामियों के बावजूद ‘खुफिया’ अपनी महिलाओं को पर्दे पर सशक्त रूप से दिखाती है, जो उसे बाकी कई हिंदी फिल्मों से अलग बनाता है। विशाल भारद्वाज भारत के चुनिंदा फ़िल्मकारों में से हैं, जो औरतों को किसी रहस्यमयी देवी या लुभाने वाली लड़की की तरह नहीं दिखाते, बल्कि एक इंसान की तरह देखते हैं। फिल्म के सभी महिला किरदारों की कहानियां काफ़ी अच्छी तरह से लिखी गई है।
6. कटहल
कॉमेडी के रूप में प्रस्तुत की गई यह फिल्म भी महिला-केंद्रित फिल्म है। ‘कटहल’ में सान्या मल्होत्रा (महिमा बसोर) का किरदार दिखाता है कि महिलाएं भी अच्छी पुलिसकर्मी बन सकती हैं। सान्या का किरदार इस फिल्म के केंद्र में है, जो अपने कर्तव्यों के प्रति बहुत जिम्मेदार है। यसहोवर्धन मिश्रा की लिखी और निर्देशित यह फिल्म राजनीतिक और सामाजिक कुरीतियों पर व्यंग्य करते हुए जाति और लिंग से जुड़े के विभिन्न मुद्दों पर बात करती है। फिल्म की सामाजिक टिप्पणी काफ़ी सटीक है। अमीर-गरीब, ऊंच-नीच, जातिवाद इन सब समस्याओं को दिखाते हुए फिल्म कहीं नहीं चूकती। किसी एक पूरे तबके को उसका गुनहगार नहीं ठहराती, पर व्यंग्य करने से पीछे भी नहीं हटती। फिल्म में विजय राज और राजपाल यादव जैसे कई सधे हुए अभिनेता मौजूद हैं। सान्या का किरदार बहुत बारीकी से लिखा गया है और अपने बेहतरीन अभिनय से उन्होंने ने अपना कौशल साबित किया है।
7. तरला
फिल्म ‘तरला’ दिवंगत शेफ और लेखिका तरला दलाल की बायोपिक है। इसमें तरला दलाल की भूमिका में हुमा कुरैशी को दिखाया गया है। दलाल के रूप में, हुमा शादी के बाद महिलाओं के करियर न बना पाने के सामाजिक समस्या और चुनौतियों से लड़ती हैं। यह फिल्म उस सामाजिक आदर्श को खारिज करती है कि रसोई कौशल के बिना कुछ भी नहीं किया जा सकता है। हालांकि दलाल को शादी के लिए अपनी शिक्षा छोड़नी पड़ी, लेकिन उसने भविष्य में कुछ बनने के अपने दृढ़ संकल्प को नहीं छोड़ा। अपने खाना पकाने के कौशल का उपयोग करके, वह बहुत प्रशंसा और सफलता प्राप्त करती है। इसके अलावा, फिल्म उन चुनौतियों पर भी प्रकाश डालती है जिनका कामकाजी महिलाओं को सामना करना पड़ता है और पारिवारिक समर्थन से उन्हें कैसे दूर किया जा सकता है।
8. मिसेज़ अन्डरकवर
अनुश्री मेहता की फिल्म ‘मिसेज़ अन्डरकवर’ में राधिका आप्टे मुख्य भूमिका निभाती हैं, जो एक ग्रहणी होने के साथ एक अंडरकवर एजेंट भी है। फिल्म में आप्टे का किरदार एक सीरियल किलर से लड़ता है जो महत्वाकांक्षी महिलाओं को चुनता है और उन्हें जान से मार देता है। आप्टे न केवल एक अंडरकवर एजेंट के लैंगिक पूर्वाग्रह को तोड़ती हैं बल्कि गृहिणियों को अपनी प्रतिभा को पुनर्जीवित करने और अपने जुनून का पालन करने की नई आशा भी देते हैं।
9. सुखी
शिल्पा शेट्टी द्वारा अभिनीत ‘सुखी’ एक गृहिणी के संघर्ष को उजागर करने वाली फिल्म है। इस फिल्म की कहानी इतनी दमदार तो नहीं है, लेकिन शेट्टी ने जिस तरह से ‘सुखी’ के किरदार में जान डाली है किया है, वह सराहनीय है। हालांकि फिल्म का संदेश दर्शकों से यह सवाल पूछना था कि गृहिणियों का श्रम और प्रयासों को कम क्यों आंका जाता है? यह इस सवाल का भी जवाब देता है कि महिलाएं अपने परिवार को खुद से ऊपर क्यों रखती हैं। परिवार में बच्चों, बुजुर्गों और पतियों की ज़िम्मेदारियां, वित्तीय निर्भरता, रूढ़िवादी लिंग भूमिकाएं निभाने का बोझ और आत्मविश्वास की कमी किसी भी व्यक्ति पर हावी हो सकती है। जब सुखी अपने दोस्तों से मिलने के लिए अपना परिवार छोड़ती है, तो वे उसे एहसास दिलाते हैं कि चाहे कुछ भी हो, एक व्यक्ति को पति, बच्चों और परिवार के गलत व्यवहार के खिलाफ खड़े होने के लिए अपनी रीढ़ का इस्तेमाल करना पड़ता है।
10. थैंक यू फॉर कमिंग
‘थैंक यू फॉर कमिंग’ एक सेक्शुअल कॉमेडी है जिसमें भूमि पेडनेकर ने कनिका कपूर की भूमिका निभाई है। उसकी उम्र 30 की होने वाली है, लेकिन उन्हें अब तक कभी भी ऑर्गैज़म का अनुभव नहीं हुआ है। वह अपने ‘प्रिंस चार्मिंग’ की तलाश में है और साथ ही किसी ऐसे व्यक्ति की भी तलाश कर रही है जो अंतरंग पलों के दौरान उसके साथ रह सके। कहानी का कुछ हिस्सा नारीवादी परिदृश्य से दूर लग सकता है। लेकिन महिलाओं के नजरिए से एक ‘सेक्शुअल कॉमेडी’ होना इसे देखने और सराहने लायक बनाता है। भारत में सेक्स को वर्जित माना जाना एक बात है। वहीं ऑर्गैज़म पर किसी महिला का बात करना दूसरी बात है। करण बुलानी द्वारा निर्देशित, इस फिल्म ने एक महिला के जीवन के इस पहलू को दिखाने का बहुत अच्छा काम किया कि वह क्या चाहती है। इसके बारे में उसे कोई अफसोस नहीं है। हर व्यक्ति के लिए नारीत्व की परिभाषा अलग-अलग हो सकती है, लेकिन एक चीज सभी में समान है – इच्छा।
महिला-केंद्रित फिल्मों का मतलब ये नहीं होता कि उनकी हमेशा नैतिक रूप से ‘सही’ छवि बुनी जाए। ये फिल्में भी फिल्मों के ढांचे पर ही आंकी जानी चाहिए। कहानी में महिलाओं और बाकी सभी जेंडर के किरदारों का बिना किसी पूर्वाग्रह या रूढ़िवाद के निरूपण होना चाहिए। उनके किरदारों को सही तरीके से लिखा जाना चाहिए। हर साल ऐसी कई फिल्में आती हैं, जो जेन्डर डिसकोर्स की एक नई दिशा पकड़ती है। लेकिन ऐसी महिला-केंद्रित फिल्में देखना और उन पर बात करना नारीवादी सोच को बढ़ावा देने के लिए जरूरी है।