प्रेम हमेशा से समाज में बदलाव का प्रतीक रहा है। अलग-अलग समुदाय, जाति, धर्म या वर्ग में प्रेम या शादी हालांकि चुनौतीपूर्ण हो सकता है पर ये हमेशा एक-दूसरे से जुड़ने का मूलभूत तरीका है। यह समाज में फैली कुरीतियों को खत्म करने में भी अपना योगदान देता है। लेकिन क्या विकलांग लोगों के लिए प्रेम करना एक अतिरिक्त चुनौती का कारण नहीं है? खासकर तब जब विकलांग होने का मतलब किसी व्यक्ति को किसी भी काम में असमर्थ होना समझा जाता है। आमतौर पर हम देखते हैं कि समाज में हमेशा विकलांग लोगों को कई प्रकार के भेदभाव का सामना करना पड़ता है। उन्हें हमेशा ही कमतर आंका जाता है।
न तो कभी भी उन्हें उनके जीवन में आगे बढ़ने या प्रेम को लेकर प्रोत्साहित किया जाता है और न ही उनके किसी के साथ होने पर उस बात को आसानी से स्वीकार किया जाता है। समाज के रूढ़िवादी रवैये के कारण लोगों की सोच बनी हुई है कि विकलांगता का मतलब जीवन का खत्म होना है। उन्हें हमेशा यह एहसास दिलाया जाता है कि उनका जीवन किसी काम का नहीं है। लेकिन इसके बावजूद भी कई लोग हैं जो समाज के रूढ़िवादी विचारधारा और चुनौतियों के आगे जीवन को न सिर्फ स्वीकार करते हैं बल्कि आत्मनिर्भर बनने का सपना देखते हैं, बनते भी हैं और सामान्य जीवन जीते हैं। हालांकि, कुछ ऐसे विकलांग लोग भी हैं जो आस-पास के समाज और परिवार का समर्थन न मिलने के कारण हताश हो चुके हैं। प्रेम, समाज में मौजूद कई मिथकों को खत्म करने में अपनी भूमिका निभाता है।
आंखों में रोशनी न होने के कारण मैं जिससे प्रेम करता हूँ, उनसे कोऑर्डिनेट करने में, उनसे अपनी भावना व्यक्त करने में काफी परेशानी होती है क्योंकि मुझे डर होता है कि सामने वाला का कैसा व्यवहार होगा। हम चाहते हैं कि वो हमसे प्रेम करे, सहानुभूति न दिखाए।”
आज के समय में कुछ तथाकथित लोग के द्वारा प्रेम को बाहरी सुंदरता और पूंजीवाद का विषय समझा जाता है। यह एक प्रकार का कड़वा सच है। आज के समय में ज्यादातर लोग बाहरी सौंदर्य जैसे रंग-रूप और शारीरिक ढांचा को देखकर प्रेम करते हैं। समाज में सुंदरता के बहुत कठोर परिभाषा है जिसमें हजारों-लाखों लोग फिर नहीं बैठते। जैसे अगर कोई पतला, लम्बा, गोरा है, तो उसे ‘सुंदर’ के श्रेणी में रखा जाएगा। इसके अलावा अगर कोई थोड़ा-बहुत भी इस परिभाषा से अलग है, तो उसे ‘सुंदर’ के श्रेणी में नहीं रखा जाता है।
सुंदरता और विकलांगता का क्या संबंध
सदियों से समाज में यह सुनते आ रहे हैं कि ‘फलाना कितना सुंदर, कितनी सुंदर है। सब कुछ तो ठीक है लेकिन विकलांग है।’ क्यों हमारे समाज में विकलांगता के साथ बदसूरती, कमजोर और असहाय होने को जोड़ते? क्या विकलांग लोगों के लिए सुंदरता की कोई अन्य परिभाषा है? समाज में विकलांगता को दया की निगाह से देखा जाता है। उनके लिए सहानुभूति रखी जाती है। जबकि समाज को विकलांगता के प्रति सहानुभूति नहीं संवेदनशील होने की ज़रूरत है। ताकि विकलांग लोगों को अलगाव न महसूस हो। यह एक जरूरी विषय है। इसपर खुल के बात होनी चाहिए। विकलांगता के प्रति पूर्वाग्रह के कारण उनके प्रेम, शादी और रोमांटिक रिश्तों को नकारा जाता है। विकलांगता और प्रेम को एक अजूब की तरह देखा जाता है।
“प्रेम पाना मेरे लिए आसान तो नहीं है। कई सारी बातों का डर होता है। किसी से कुछ कहने भर से झिझक होती है। पता नहीं सामने वाला कैसा बर्ताव करे। इसलिए थोड़ा मुश्किल है।”
प्रेम के बजाए सहानुभूति क्यों
दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्र दीपक पर्सन विद विजुअल इम्पेर्मेंट हैं। दीपक कहते हैं, “जब मैं छोटा था, तब मेरे आंखों में कोई दिक्कत नहीं थी। बढ़ती उम्र के बाद आँख में दिक्कत आई जिसके बाद मैं जब सर्जरी करवाया तो आँख की नस दब गई। इसके बाद से मैं खुली आँख से दुनिया देखने के सपने खो दिया हूँ।” प्रेम को लेकर वो कहते हैं, “प्रेम पाना मेरे लिए आसान तो नहीं है। कई सारी बातों का डर होता है। किसी से कुछ कहने भर से झिझक होती है। पता नहीं सामने वाला कैसा बर्ताव करे। इसलिए थोड़ा मुश्किल है।”
आगे वो कहते हैं, “आपने देखा होगा, हमारी एक अलग दुनिया होती है। जो लोग विकलांग नहीं हैं हमसे सिर्फ तब ही बात करते हैं जब हमें कुछ मदद चाहिए होती है। हालांकि अभी मैं किसी के साथ प्रेम संबंध में हूँ। वो आँखों से देख सकती हैं और मैं देख नहीं पाता। आँखों में रोशनी न होने के कारण मैं जिससे प्रेम करता हूँ, उनसे कोऑर्डिनेट करने में, उनसे अपनी भावना व्यक्त करने में काफी परेशानी होती है क्योंकि मुझे डर होता है कि सामने वाला का कैसा व्यवहार होगा। हम चाहते हैं कि वो हमसे प्रेम करे, सहानुभूति न दिखाए।”
प्रेम’ शब्द सुनकर वह हंसती है। समाज में प्रेम को लेकर वह बताती हैं, “मेरे लिए प्रेम तो दुख और तकलीफ के अलावा कुछ भी नहीं है। अब अंदर बहुत से झुंझलाहट होती है। जल्दी कोई अपनाना नहीं चाहता है। कई बार मज़ाक का सामना करना पड़ा है। इसलिए मैंने प्रेम ही करना छोड़ दिया है।
प्रेम के नैरेटिव गढ़ता बॉलीवुड
प्रेम को समझने और महसूस करने के हमारे तरीके और विचारधारा अक्सर बॉलीवुड और मनोरंजन की दुनिया से प्रभावित होती हैं। उदाहरण के तौर पर हम बॉलीवुड की ‘हमको तुमसे प्यार है’ या ‘कोई मिल गया’ जैसी किसी फ़िल्म को देखते हैं तो अक्सर यह दिखाया जाता है कि विकलांग लोगों के साथ सहानुभूतिपूर्वक पेश आना चाहिए। वहीं कई सिनेमा में विकलांगता को मज़ाक के रूप में पेश किया है। जैसे हम ‘हाउसफुल थ्री’ को देखते हैं। जहां पर एक संवेदनशील विषय को हस्यात्मक रूप में दिखाया गया है। ऐसे में समाज और सिनेमा एक-दूसरे से कितना जुदा है? प्रेम को लेकर समाज इतना रूढ़िवाद है कि परिवार को हमेशा यह डर सताता है कि उनके लड़का-लड़की किसी के साथ प्रेम में न पड़ जाए। खासकर ग्रामीण इलाकों में देखे तो अगर परिवार को पता चलता है कि बच्चें खासकर लड़कियां किसी के साथ प्रेम में है, तो उसकी शादी जल्दी से जल्दी कहीं करवा देते हैं। इस तरह हम देखते हैं लड़कियों का चयन किसी भी समाज को जल्दी बर्दाश्त नहीं होता है।
“समाज में मेरे जैसे लोगों के लिए प्रेम पाना बहुत मुश्किल है। उसके बाद मैं एक लड़की भी हूं। लड़कियों का प्रेम करना तो समाज के लिए जैसे कोई गुनाह है। मेरी फैमिली यह चाहती है कि मैं आंखों से देख नहीं पाती तो पढ़-लिखकर कुछ बन जाऊं और घरवालों को पैसे कमा के दूं।”
इस विषय पर अंजू बताती है, “समाज में मेरे जैसे लोगों के लिए प्रेम पाना बहुत मुश्किल है। उसके बाद मैं एक लड़की भी हूं। लड़कियों का प्रेम करना तो समाज के लिए जैसे कोई गुनाह है। मेरी फैमिली यह चाहती है कि मैं आंखों से देख नहीं पाती तो पढ़-लिखकर कुछ बन जाऊं और घरवालों को पैसे कमा के दूं।” अंजू दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा है और बचपन से ही देख नहीं पाती हैं और इलाज भी संभव नहीं है। लेकिन इस चीज़ को अंजू अपने भविष्य में रुकावट नहीं बनने देना चाहती है। वो शिक्षक बनना चाहती हैं। किसी के लिए बोझ नहीं बल्कि आत्मनिर्भर बनना चाहती हैं। प्रेम में सहजता को लेकर को वो आगे कहती हैं, “घरवालों को यह लगता है कि इसका तो कोई भविष्य नहीं है। इसे कौन ही अपनाएगा। ऐसे में प्रेम और शादी तो दूर की बात है। समाज प्रेम को लेकर सहज हो सकता है, अपनी सोच विकसित कर सकता है। लेकिन ऐसा हो नहीं हो रहा है।”
जीवन की खुशी के साथ विकलांगता का क्या संबंध
प्रेम तो खुद ही क्रांतिकारी प्रक्रिया है। यह कई धारणाओं को खत्म करता है। लेकिन समाज इसे सहज बनाने में बहुत बड़ा योगदान कर सकता है। सविता परास्नातक की छात्रा है। जब वह उन्नीस साल की थी तब उनकी आँखों में कुछ दिक्कत आई और सर्जरी के बाद से आँख की रोशनी चली गई। अभी उनकी उम्र छत्तीस साल है। ‘प्रेम’ शब्द सुनकर वह हंसती है। समाज में प्रेम को लेकर वह बताती हैं, “मेरे लिए प्रेम तो दुख और तकलीफ के अलावा कुछ भी नहीं है। अब अंदर बहुत से झुंझलाहट होती है। जल्दी कोई अपनाना नहीं चाहता है। कई बार मज़ाक का सामना करना पड़ा है। इसलिए मैंने प्रेम ही करना छोड़ दिया है। अब जब भी कोई अच्छा लड़का मिलेगा तो शादी ही करूंगी। हालांकि एक बार सगाई भी हुई थी। लेकिन किन्हीं कारणों से वह टूट गई थी।” आगे वो बताती हैं, “मेरी माँ चाहती है कि मैं कभी शादी न करूं क्योंकि उनका मानना है कि जिनके पास आँखों की रोशनी है, वो तो खुश रह नहीं पाते हैं। फिर मैं तो आँखों से देख नहीं पाती हूँ तो खुश कैसे रहूँगी।”
रूढ़िवाद, सिनेमा और मनोरंजन से गढ़े गए नैरेटिव के अनुसार भारतीय समाज में सहज प्रेम पाना और करना बहुत मुश्किल है। इसलिए सबसे पहले हमें यह सोचने की ज़रूरत है कि विकलांगता कोई समस्या नहीं है। इस विषय पर दया की भावना से हटकर सोचने की जरूरत है। विकलांग लोगों के मन में प्रेम को लेकर अगर कोई डर है, तो उसे खत्म करने की जरूरत है ताकि वो समाज में सहज प्रेम कर पाए। विकलांग और विकलांगता से रूढ़िवादी सोच सदियों से समाज में पनप रही है, जो विकलांग लोगों को असमर्थ समझती है। गैर विकलांग लोगों की तरह ही विकलांग लोग भी प्रेम, रिश्तों में समानता और सम्मान से जीने का अधिकार रखते हैं। विकलांगता के कारण उनकी यौनिकता को नियंत्रण करना उनके अधिकारों का उल्लघंन है। इसलिए हमें एक ऐसे समावेशी समाज का निर्माण करना होगा जहां विकलांग और गैर विकलांग, हर व्यक्ति के प्रेम को स्वीकार किया जाए।