नारी साहित्य महिलाओं का रचा वह साहित्य है, जो उनके अनुभवों को समाज के समक्ष रखने में मदद करती है। महिलाओं द्वारा अपनी आपबीती को समाज के समक्ष खुद की ही रचनाओं के माध्यम से रखना, उन्हें हाशिये से बाहर लाने और असल समस्याओं को समझने का एक बेहतर उपाय है। हिंदी साहित्य में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। जितनी सहजता और सरलता से उन्होंने वास्तविक जीवन को अपनी लेखनी से दर्शाया है, वो वाकई सराहनीय है। हिंदी साहित्य की कई सारी महिला लेखिकाओं ने अपनी रचनाओं से समाज के यथार्थ को पाठकों के समक्ष रखा है।
हालांकि महिला साहित्य समय के साथ जोरदार तरीके से बढ़ा है और सामने आया है। लेकिन एक समय में हिंदी साहित्य और सिद्धांत से महिलाओं को जिस व्यवस्थित बहिष्कार का सामना करना पड़ा, उसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता। यदि आज, महिला साहित्य को आखिरकार वह सम्मान और सराहना मिल रही है जिसकी वह हकदार है, तो हजारों महिलाओं को दशकों पहले इसके जद्दोजहद करनी पड़ी थी। हमें उन महिलाओं के योगदान को नहीं भूलना चाहिए जिन्होंने इसके लिए नींव रखी थी। ऐसी ही एक हिंदी साहित्य की नारीवादी विचारधारा की लेखिका हैं होमवती देवी। होमवती देवी ने महिलाओं के साथ-साथ उन सभी वर्गों की कहानी अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज के सामने रखीं जो अपने समय में हर स्तर पर संघर्ष करते रहें।
होमवती देवी का जन्म और शुरुआती काम
हेमवती देवी का जन्म 20 नवम्बर 1902 में मेरठ में हुआ था। होमवती की शादी बहुत कम उम्र में ही हो गई। केवल 48 वर्ष की उम्र में ही पति का निधन भी हो गया। इसके बाद होमवती पूर्ण रूप से साहित्य सृजन में लग गईं। उन्हें लेखक कृष्ण चंद्र शर्मा ने साहित्य रचना के लिए प्रोत्साहित किया। प्रारंभ में वे स्फुट रचनाएं लिखती थीं, और उन रचनाओं का मूल स्वर करूणा था। कल्पना से मुक्त उनकी रचनाएं अपने परिवेश और यथार्थ को पूर्ण रूप से अपने पाठकों के समक्ष उपस्थित करती रहीं हैं।अपनी शादी के दौरान, होमवती ने कथित आदर्श भारतीय घरों के भीतर तनाव से संबंधित कई लघु कहानियां लिखी। हालांकि इनमें से कोई भी प्रकाशित नहीं हुई।
होमवती हिन्दी की लघुकथा लेखिका और कवयित्री थीं। होमवती जी ने स्वतंत्र रूप से चार लघु कहानी संग्रह लिखे जिनका नाम ‘धरोहर’, ‘स्वप्नभंग’, ‘अपना घर’ और ‘गोटे की टोपी’ है। उनकी रचनाओं के महत्वपूर्ण विषयों में घर में होने वाले लड़ाई-झगड़ों में किस प्रकार महिलाओं को विवश जीवन जीना पड़ता है, यह बार बार नज़र आता है। 1929 तक उनका वर्ण विषय घर-परिवार रहा। इसके बाद उन्होंने समाज में होने वाले विभिन्न कर्मकांडो, धर्म आडंबरों, जातिवाद, कुरीतियों, अंधविश्वासों जैसे सभी महत्वपूर्ण विषयों को अपनी रचनाओं में सम्मिलित किया है। इन पर सीधे तौर पर चर्चा नहीं की गई; बल्कि होमवती ने अपने पाठकों के भीतर सहानुभूति जगाने और यथास्थिति के खिलाफ निंदा करने के लिए ऐसी घटनाओं से प्रभावित लोगों के जीवन को चित्रित करना चुना। इसके साथ ही भारत में विधवाओं के कष्टदायक जीवन से जुड़े मुद्दों से लेकर जातियों, वर्गों और सामाजिक विषयों पर लिखने के लिए असंख्य मुद्दों को उठाया। होमवती ने राजनीतिक मुद्दों को भी खूब महत्व दी है।
विधवा जीवन की सच्चाई बयान करती कहानियां
साल 1937 में इनकी पहली कहानी संग्रह ‘गोटे की टोपी’ चांद पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। यह एक विधवा महिला के जीवन को दर्शाती है। यह कहानी इतनी ज्यादा प्रभावशाली साबित हुई कि हिंदी फिल्म निर्देशक किशोर साहू ने उनकी प्रसिद्ध कहानी ‘सिंदूर’ पर एक अनधिकृत फिल्म बनाने की कोशिश की। लेकिन उन्होंने उन्हें ऐसा करने की अनुमति नहीं दी और कॉपीराइट के उल्लंघन के लिए उन पर मुकदमा दायर किया। इसके बाद 1939 में पहली बार होमवती जी ने मेरठ के नौचंदी मेले में सार्वजनिक रूप से इस कहानी का पठन किया, और स्रोताओं द्वार सराहना भी की गई। हर घटनाओं पर चाहे वो छोटी से छोटी ही घटना क्यों न हो उस पर अपनी कहानियों का सृजन किया है। वीणा, ब्राह्मण, विश्वामित्र जैसी उस समय की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं प्रकाशित होती रहीं।
व्यापक सामाजिक मुद्दों पर लिखती रहीं होमवती देवी
‘सदा सुहागन’ कहानी में होमवती ने पति-पत्नी के दाम्पत्य जीवन को दर्शाया है कि कैसे पति-पत्नी को एक- दूसरे की जरूरतों को न केवल समझना चाहिए, बल्कि जो कुछ वो चाहते हैं, उनके प्रति अपनी भागीदारी को भी पूर्ण रूप से निभाना चाहिए। महंगाई की समस्याओं पर लिखी उनकी कहानी ‘नोटिस’ में दर्शाया गया है कि पूंजीपति और राजनेताओं की ही ज़िंदगी सुखद है और गरीब तथा मध्यवर्गीय परिवार की ज़रूरतें तक भी पूरी नहीं होती। साथ ही अपनी व्यंग्नात्मक कहानियों में इन्होंने नेताओं, राजनेताओं, पूंजीपतियों और शोषकों पर तीखा व्यंग्य किया है।
साहित्य में महिलाओं की चुनौतियों और साथ की बात
उस समय परिवार और समाज के अन्दर महिलाओं को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता था। पर्दा प्रथा का प्रचलन था। परिवार और समाज को महिलाओं के शिक्षित होने का भी अधिकार नहीं था। अपने अधिकारों के प्रति सचेत महिलाओं की उम्मीद नहीं की जाती थी। दाम्पत्य जीवन में किस प्रकार महिला को ही हर तरह के समझौते करने के लिए मजबूर किया जाता था। विधवाओं की समस्या उस समय के समाज में बहुत अधिक थी। उन्हें पति के निधन के बाद दोबारा शादी करने की अनुमति नहीं थी। अगर किसी प्रकार विधवा महिलाएं शादी करने में सफल हो भी गईं, तो उनकी स्थिति पहले से भी ज्यादा संघर्षपूर्ण हो जाती थी।
महिलाओं से जुड़े इन्हीं सभी मुद्दों को अपनी लेखनी में शामिल कर होमवती देवी ने इसे नारी साहित्य का नाम दिया। उनकी रचनाओं में पारिवारिक जीवन में विभिन्न प्रकार के दुर्व्यहवारों को सहती महिलाओं का चित्रण रहा। लेकिन उन महिलाओं के साथ उनकी सास, ननद, जेठानी उनका साथ देती रहीं और उन्हें सही मार्ग चुनने के लिए निरंतर प्रेरित करती रहीं। इसके साथ ही अपनी रचनाओं के माध्यम से वर्षों से बोले जाने वाले कहवात कि ‘औरत ही औरत की दुश्मन होती है’ को भी होमवती ने नकारा। होमवती देवी किसी उपमा की मोहताज नहीं है। सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने बसंत के अग्रदूत लेख में लिखा है कि सन 1940 के आसपास हिंदी साहित्य परिषद की अध्यक्ष थीं होमवती देवी। मेरठ में आयोजित साहित्य सम्मेलन में महाकवि सूर्यकात त्रिपाठी निराला ने उनका आतिथ्य स्वीकार किया था।
लेख में निराला का होमवती के प्रति आदर भाव का भी जिक्र है। होमवती ने न केवल एक प्रतिभाशाली लेखिका के रूप में, बल्कि कला के एक सच्चे प्रशंसक के रूप में भी अपनी प्रतिष्ठा हासिल की। होमवती देवी का साहित्यिक व्यक्तित्व ऐसा था कि उन्हें किसी उपमा की जरूरत नहीं है। होमवती देवी हिंदी साहित्यिक परिदृश्य में कदम रखने वाली पहली महिला लेखिकाओं में से एक हैं, जिन्होंने हिंदी महिला साहित्य के विशाल समूह के लिए मार्ग प्रशस्त किया। यह सच है कि उनके लेखन और कृतियों में तत्कालीन समाज के कई नियम और मानदंडों को चुनौती दी। उनकी रचनाओं ने पुरुष वर्चस्व के खिलाफ आवाज उठाने का काम किया जिसे हर कीमत पर ख़त्म किया जाना चाहिए। हालांकि वह समय बीत चुका है पर उनके काम आधुनिक समाज में आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं। होमवती देवी का निधन साल 1951 में हुआ।
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