इंटरसेक्शनलजेंडर रसोई की बदलती तस्वीर पर औरतों के आज भी वही हैं हालात!

रसोई की बदलती तस्वीर पर औरतों के आज भी वही हैं हालात!

औद्योगिकीकरण ने महिलाओं का रसोई में मशीनों द्वारा काम आसान किया है। लेकिन इसके साथ ही उन्हें रसोई से अधिक बांधने का काम विज्ञापनों द्वारा बाज़ार ने किया है। मिक्सी से लेकर फ्रिज तक के विज्ञापन में महिलाओं को जल्दी से काम करके परिवार के साथ वक्त बिताना यह संदेश देता है कि वे आज भी रसोई से ही घर में अच्छी जगह पाती हैं।

नारीवादी लेखिका वर्जीनिया वुल्फ अपने प्रसिद्ध निबंध ‘अ रूम ऑफ़ वन्स ओन में’ औरतों के परिप्रेक्ष्य में लिखती हैं कि अगर किसी महिला को लिखना है, तो उसके पास पैसा और अपना एक कमरा होना चाहिए। वर्जीनिया वुल्फ की बात सही है। लेखन के लिए एकांत भरा एक कमरा होना ही चाहिए। लेकिन भारतीय समाज में महिलाओं को कोई अलग जगह देना, जहां सिर्फ उनका वर्चस्व हो, बहुत दुर्लभ है। लेकिन यही समाज महिलाओं को एक चीज खुशी के साथ दी है। भारत की महिलाओं के हिस्से कमरा तो नहीं आ पाया लेकिन रसोई ज़रूर आई है। वे जितनी भी आगे बढ़ चुकी हो, उनकी जिम्मेदारियां, कामयाबी और काम में निपुणता आज भी इस लहज़े से आंकी जाती हैं कि वे अपनी रसोई को प्राथमिकता दे रही हैं या नहीं।

पितृसत्तात्मक समाज की विभिन्न विशेषताओं में से एक विशेषता है किसी महिला को रसोई तक सीमित कर देना। वैश्वीकरण, औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण ने महिलाओं को रसोई में आसानी से काम निपटाने वाले मशीनों के माध्यम से और गहराई से जोड़ने का काम किया है। रसोई में काम की जो उनकी भूमिका थी, उसे और कम जरूर किया है। पर इससे ‘कार्यबल’ में शामिल होने के रास्ते नहीं खुले हैं। रसोई की तंत्र व्यवस्थाएं महिलाएं जो आर्थिक रूप से सबल हुई हैं, उनके घर के रसोई को कोई अन्य आर्थिक रूप से कमज़ोर महिला संभाल रही है, इस नज़र से रसोई एक प्रोड्यूसिंग यूनिट के तौर पर भी सामने आई है। रसोई की बनावट वक्त के साथ काफ़ी बदली है और महिलाओं का जीवन भी।

“मशीनों के इस्तेमाल से काम बहुत आसान हो गया है। मैं फटाफट सारे काम करके ट्यूशन के बच्चों को समय से पढ़ा पाती हूं।” यह पूछे जाने पर कि क्या ये उपकरण उनके घर के पुरुष चला पाते हैं, तो जवाब में मीना कहती हैं, “इन्हें तो कोई भी व्यक्ति चला सकता है। लेकिन मेरे पति नहीं चलाते। वे रसोई में कदम नहीं रखते। उनका मानना है आदमी का रसोई में क्या काम।”

पितृसत्ता ने थोपी रसोई का भार

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महिलाएं पितृसत्ता द्वारा जन्म से थोपी गई इस रसोई को लेकर क्या कहती हैं? उनका इस रसोई से कैसा संबंध है? क्या रसोई ने उन्हें आजाद कर दिया है? इस विषय पर 72 साल की लाखिन से उनके मायके और फिर ससुराल में कैसी रसोई है और कैसे काम किया था, उससे जुड़े अनुभव पर फेमिनिज़म इन इंडिया ने बातचीत की। इसपर लाखिन बताती हैं, “मैं जब युवावस्था में थी तब उस ज़माने में संयुक्त परिवार अधिक होते थे। एक-एक परिवार में दस, बीस जन होते थे। इसीलिए, रसोई आजकल की तरह दो गाटर की नहीं होती थी। एक कमरा सा ही होता था जिसमें घर की सारी औरतें एक साथ खाना बनाती थीं। खाना चूल्हे पर बनता था। घंटों तक घुटनों पर बैठे, कमर झुकाए, धुएं में बैठे बहुत परेशान होते थे। लेकिन हम सब औरतें हर तरह की बातें भी खाना बनाते समय करती थीं। पति संग झगड़े से लेकर सास की बुराई तक। लेकिन उसी रसोई के चूल्हे की जलती लकड़ी से मैंने मार भी खाई है। खैर..” लाखिन ने अपने अनुभव की शुरुआत खिलखिलाकर की थी। लेकिन घरेलू हिंसा को याद करते ही वे ज़्यादा कुछ नहीं बोलीं।

क्या रसोई सिर्फ महिलाओं के काम की जगह है

मैंने अपने ददसार गांव में ठीक-ठाक वक्त गुजारा है। मेरी दादी की रसोई भी एक कमरे जितनी बड़ी थी, जिसमें मर्तबान से लेकर हाथों से बनी टोकरियां रखी रहती थीं। गांवों में मुमकिन है आज भी इस तरह की रसोई मौजूद हों लेकिन शहरों, कस्बों में एक रसोई मिलना मुश्किल है। रसोई में मशीनों का इस्तेमाल क्या आजादी का प्रतीक हो सकता है? रसोई के ढांचे में आया बदलाव, मशीनों का परिचय महिलाओं के लिए राहत का सबब बना है। लेकिन यह महिलाओं को रसोई की जिम्मेदारी से आज़ाद नहीं कर पाया है।

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35 वर्षीय मीना से यह पूछने पर कि क्या उन्होंने अपनी सास के अनुभव सुने। या रसोई में जो उपकरण होते हैं जैसे मिक्सी, गैस आदि ने आपकी रसोई में क्या भूमिका निभाई है, वह कहती हैं, “मशीनों के इस्तेमाल से काम बहुत आसान हो गया है। मैं फटाफट सारे काम करके ट्यूशन के बच्चों को समय से पढ़ा पाती हूं।” यह पूछे जाने पर कि क्या ये उपकरण उनके घर के पुरुष चला पाते हैं, तो जवाब में मीना कहती हैं, “इन्हें तो कोई भी व्यक्ति चला सकता है। लेकिन मेरे पति नहीं चलाते। वे रसोई में कदम नहीं रखते। उनका मानना है आदमी का रसोई में क्या काम।”

घंटों तक घुटनों पर बैठे, कमर झुकाए, धुएं में बैठे बहुत परेशान होते थे। लेकिन हम सब औरतें हर तरह की बातें भी खाना बनाते समय करती थीं। पति संग झगड़े से लेकर सास की बुराई तक। लेकिन उसी रसोई के चूल्हे की जलती लकड़ी से मैंने मार भी खाई है।

क्या मशीनों के आने से महिलाएं रसोई से मुक्त हुई

औद्योगिकीकरण ने महिलाओं का रसोई में मशीनों द्वारा काम आसान किया है। लेकिन इसके साथ ही उन्हें रसोई से अधिक बांधने का काम विज्ञापनों द्वारा बाज़ार ने किया है। मिक्सी से लेकर फ्रिज तक के विज्ञापन में महिलाओं को जल्दी से काम करके परिवार के साथ वक्त बिताना यह संदेश देता है कि वे आज भी रसोई से ही घर में अच्छी जगह पाती हैं। समाज में पहले से महिलाओं के काम के प्रति रूढ़िवाद मौजूद है। इस तरह के विजुअल ने लैंगिक असमानता को अधिक बढ़ावा देते हुए रसोई को एक शर्त के रूप में महिलाओं के जीवन में गढ़ दिया है। लड़कियों को रसोई संभालनी आनी चाहिए। इसीलिए नहीं कि खाना बनाना जीने के लिए आवश्यक है बल्कि इसीलिए कि लोग क्या कहेंगे, घर के लोगों का ध्यान कौन रखेगा। ये विचारधारा ही समस्यात्मक है।

खाना बनाकर ही मिलेगी छुट्टी

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19 वर्षीय कल्पना कॉलेज जाने वाली छात्रा हैं। उनसे जानने की कोशिश की कि क्या उन्हें खाना बनाने के लिए कहा जाता है? कल्पना बताती हैं, “मैं कॉलेज खाना बनाकर ही जाती हूं। ऐसा लगता है जैसे किचन का काम हो जाने से मेरे कॉलेज जाने के रास्ते खुल जाते हैं। इसीलिए, कोशिश करती हूं कि वहां का सारा काम खत्म कर दूं ताकि मैं आराम से पूरा दिन कॉलेज और फिर अपनी निजी कामों में बिता सकूं।” रसोई की सामूहिक जिम्मेदारी की चर्चा क्यों है, इससे बाहर सिमोन द बोउआर  ने ‘द सेकेंड सेक्स’ में लिखा है कि हालांकि खाना पकाना दमनकारी हो सकता है, यह ‘रहस्योद्घाटन और सृजन’ का एक रूप भी हो सकता है। एक महिला को एक सफल केक या परतदार पेस्ट्री में विशेष संतुष्टि मिल सकती है, क्योंकि हर कोई ऐसा नहीं कर सकता। किसी के पास उपहार होना ही चाहिए। हालांकि भारतीय परिप्रेक्ष्य में पाक कला और उससे संबंधित ढांचे ने महिलाओं के दमन में अधिक भूमिका निभाई है।

“मैं कॉलेज खाना बनाकर ही जाती हूं। ऐसा लगता है जैसे किचन का काम हो जाने से मेरे कॉलेज जाने के रास्ते खुल जाते हैं। इसीलिए, कोशिश करती हूं कि वहां का सारा काम खत्म कर दूं ताकि मैं आराम से पूरा दिन कॉलेज और फिर अपनी निजी कामों में बिता सकूं।”

क्या खाना बनाना सिर्फ महिलाओं का काम है

भारत में हर साल तकरीबन आठ हज़ार ब्राइड बर्निंग के केस आते हैं। लाखिन, मीना, कल्पना ने अलग-अलग समय जीया है, जिस समय में रसोई ने अपना रूप बदला है। लेकिन रसोई के माध्यम से घर के प्रति जिम्मेदारी में कोई बदलाव नहीं है। रसोई शोषण का मुख्य कारक रही है। रसोई के पूरे परिपेक्ष्य में एक बात विशेष रूप से गौर करने योग्य है कि जब रसोई से आर्थिक उपलब्धि हासिल करने की बात आई, तो पुरुषों ने इसे घर से बाहर लाकर स्थापित कर दिया। मसलन शादियों में खाना बनाने वाले अधिकांश पुरुष होते हैं, मिठाई का पूरा व्यापार पुरुष हलवाई संभालते हैं। इसका एक नजरिया यह भी हो सकता है कि महिलाएं घर के बाहर न निकल सकें। इसीलिए, दहलीज के बाहर की रसोई पुरुष संभालें। रसोई की सामूहिक ज़िम्मेदारी अभी भी समाज में स्थापित नहीं हो सकी है। खाना बनाना एक आम और बुनियादी सर्वाइवल के लिए जरूरी काम होना चाहिए।

लेकिन रसोई महिलाओं के लिए मूल रूप से फैमिली सर्विस के रूप में सामने आई जिसे अच्छी मां, अच्छी पत्नी की धारणा से जोड़ दिया गया। पाक कला एक ‘कला’ के रूप में भी सामने आ सकती है। महिलाओं के लिए आर्थिक आज़ादी का प्रतीक भी बन सकती है। जैसे शेफ निशा मधुलिका, शेफ पंकज भदौरिया या गरिमा अरोड़ा के मामलों में है। लेकिन क्या इस मुकाम पर पहुंचने के पर्याप्त श्रोत आम महिलाओं के पास मौजूद हैं? महिलाओं के पास भावनात्मक सहारा मौजूद है? घर में महिला द्वारा बनाए खाने को इस तरह की तरजीह ही नहीं जाती कि वह एक कला हो सकती है। रसोई को विकासशील विचारधाराओं द्वारा मुक्ति का रास्ता कहा जाता है। लेकिन जिस प्रकार भारत में दशकों से महिलाएं रसोई, खाने के नाम पर प्रताड़ित की जाती रही हैं, यह विचार मुश्किल ही एक महिला की ‘इच्छा’ बनकर उभरेगा। वे इससे दूर ही जाना चाहेंगी।

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