पितृसत्तात्मक समाज में, महिलाएं हमेशा निम्न और हाशिए पर रही हैं जो कि उन्हें न केवल शिक्षा बल्कि उनके बुनियादी अधिकारों से भी उन्हें वंचित करता रहा है। उनके जीवन के तमाम आयामों जैसे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि क्षेत्रों में विकास की सभी संभावनाओं को कुचलने का लंबा इतिहास रहा है। इसका सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण कारण पुरुषप्रधान समाज का महिलाओं ख़ासकर के पिछड़े तबके की महिलाओं को शिक्षा से प्रतिबंधित करना है। हाशिए पर बने सभी तबके और महिलाओं के लिए शिक्षा केवल साक्षरता के मापदण्डों को हासिल करने का ही रास्ता नहीं है, बल्कि समाज में अपनी शोषित स्थिति को पहचानने और अपने अधिकारों के प्रति सजगता पैदा करने का भी एक सशक्त माध्यम है। महिलाओं की शैक्षिक स्थिति और इसमें ठहराव परंपरागत सामाजिक भूमिकाओं और रूढ़िवादी धारणा से जुड़ा हुआ है।
भारत में महिलाओं की शिक्षा की शुरुआत ऐतिहासिक चरणों (प्राचीन काल, मुगल काल और ब्रिटिश काल) में उनकी शोषित स्थिति को बयान करती है। महिलाओं की शिक्षा या उन्हें शिक्षित करने की प्रक्रिया औपचारिक रूप में ब्रिटिश काल यानी आधुनिक भारत में शुरू हुई। महिला शिक्षा की शुरुआत जिन परिस्थितियों में हुई उससे पहले उनके संबंध में शिक्षा सामान्य कतई नहीं थी। मुगलकालीन चरण की समाप्ति तक उनके लिए स्कूलों के दरवाजे बंद थे। पितृसत्ता और पूर्वाग्रही सोच इतनी मजबूत हो गई कि उनके लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन में भागीदारी की संभावना न के बराबर थी।
हालांकि कुलीन तबके की कुछ महिलाओं को छोड़कर जो कि यहां अपवाद हैं जैसे समृद्ध हिंदू और मुस्लिम पृष्ठभूमि की कुछ ही महिलाओं को घर पर रहकर बुनियादी स्कूली शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिलता था। समाज में स्थानीय लोगों को शिक्षा देने के लिए तब कई मकतब, मदरसा और पाठशालाएं मौजूद थी जिनमें मुख्य रूप से लड़के अधिक संख्या में पढ़ा करते थे और लड़कियों की संख्या नाममात्र थी। महिलाओं के लिए स्थानीय शिक्षा प्रणाली पूरी तरह से धार्मिक और नैतिक शिक्षा पर केंद्रित थी। शिक्षा के मामले में गरीब और वंचित समुदाय से आने वाली महिलाओं की स्थिति और भी गंभीर थी।
19वीं सदी और महिला शिक्षा
लड़कियों का शिक्षा से लंबे समय तक वंचित होने के परिणाम के तौर पर महिलाओं और पुरुषों के बीच साक्षरता का अंतर काफी गहरा हो गया। बाल विवाह लड़कियों की शिक्षा में एक सबसे बड़ी बाधा थी। 19वीं सदी में महिलाओं की शिक्षा का प्रश्न उठने लगे। महिलाओं से संबंधित सुधार आंदोलनों का विकास भी इसी दौर को जाता है। इस दिशा में अंग्रेजी शासन के दौर में महिलाओं की शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करने और इससे जुड़े कई कदम उठाए गए। यहां एक धारणा ये थी कि अंग्रेजी या पश्चिमी शिक्षा को हासिल कर ही महिलाओं की स्थिति में बदलाव आ सकेगा। यह विचार उनकी पारंपरिक संरचनाओं से उन्हें मुक्त कराने में असमर्थ दिखाई देता है।
हालांकि ब्रिटिश शासन का उद्देश्य महिलाओं की स्थिति और संकीर्ण सामाजिक व्यवस्था में सुधार लाना कभी नहीं रहा था। यह केवल आर्थिक और वाणिज्य स्वार्थ को पूरा करने के लिए था। जिस अंग्रेजी शिक्षा को भारतवासियों से परिचित कराया गया उसका उद्देश्य मूल निवासियों की जरूरतों और तमाम तरह की सामाजिक बुराईयों से उलझना नहीं बल्कि यहां के स्थानीय लोगों को प्रभावी रूप से शासन और प्रशासन में मदद करने में सक्षम बनाना था। ऐसे में पुरुषों पर ध्यान केंद्रित किया गया क्योंकि महिलाएं घरों की चार दीवारी तक ही सीमित थीं और ब्रिटिश प्रशासन के साथ उतनी जुड़ी नहीं थीं।
न केवल भारतीय समाज बल्कि ब्रिटिश शासन भी यहां महिलाओं के संबंध में पूर्वाग्रहों और पक्षपात की भावना से ग्रस्त दिखाई देता है। इस विचार से महिलाओं की स्थिति पर प्रश्न और उनकी शिक्षा की वकालत करने के संबंध ब्रिटिश शासन पर भरोसा करने की एकलौती उम्मीद नहीं थी। पर महिला शिक्षा की शुरूआत का बीड़ा उठाना उनके लिए किसी चुनौती से कम भी नहीं था क्योंकि बात घर की लड़कियों और महिलाओं को शिक्षा देने की थी जो कि पुरुषवादी मानसिकता को नागवार थी।
आधुनिक शिक्षा प्रणाली की शुरुआत और लाभ
भारत में 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश शासन द्वारा लाई गई आधुनिक शिक्षा के प्रभाव से महिला शिक्षा का उद्भव हुआ। आधुनिक शिक्षा प्रणाली से सबसे पहले जिसे लाभ पहुंचा, वह कुलीन वर्ग था। यूरोपीय संस्थानों में पढ़ाए जाने वाले विचारों जैसे न्याय, समानता, स्वतंत्रता से प्रभावित हुए। इनमें से कुछ बुद्धिजीवियों ने भारतीय समाज में लिंग-आधारित विभाजन और पारंपरिक असमान जातीय हायरार्की जैसे संकीर्ण मानदंडों को खारिज किया क्योंकि उनका मानना था कि ऐसा समाज आधुनिक और प्रगतिशील समाज के लिए ठीक नहीं है। इन्होंने महिलाओं की शिक्षा को समर्थन देते हुए उनको शिक्षित करने की जरूरत की वकालत की। तमाम तरह की सामाजिक बुराइयां जैसे बाल विवाह, सती प्रथा, चुनौती देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
ब्रिटिश सरकार के काल में महिलाओं की शिक्षा
1813 में ब्रिटिश संसद ने ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में अंग्रेजी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए एक बड़ी राशि दी। शुरुआत में भारतीयों को अंग्रेजी शिक्षा बाइबिल के माध्यम से दी जाने लगी। महिला शिक्षा के विकास की दिशा में पहला कदम ईसाई मिशनरियों ने उठाया। तब स्कूलों में बड़ी संख्या में ईसाई धर्म प्रचारक या मिशनरी धर्मांतरण करने और ईसाई शिक्षा देने के लिए पहुंचे। महिला मिशनरियों ने लड़कियों के लिए प्राथमिक कक्षाएं शुरू कीं। इनके प्रयासों से देश के विभिन्न हिस्सों में स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना की गई। न केवल ईसाई मिशनरियों द्वारा बल्कि भारतीय समाज सुधारकों ने भी महिलाओं की शिक्षा पर ज़ोर दिया। जैसे राजा राम मोहन रॉय जिन्होंने महिलाओं की शिक्षा, विधवा पुनर्विवाह, संपत्ति में उनके अधिकार के लिए आवाज़ उठाई। सबसे महत्वपूर्ण क़दमों में, सती प्रथा की समाप्ति, विधवा विवाह की शुरुआत और देश में कई प्रमुख शिक्षण संस्थानों को स्थापित करने का श्रेय राजा राम मोहन रॉय को ही जाता है। इसी दिशा में ईश्वर चंद्र विद्यासागर भी महिलाओं की शिक्षा के एक सशक्त पक्षधर थे।
महिलाओं के शिक्षा में समाज सुधारकों की भूमिका
जब बात महिलाओं की शिक्षा की आती है, तो महान समाज सुधारकों में से एक सावित्रीबाई फुले के प्रयासों का जिक्र करना सबसे ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है। उन्होंने ज्योतिबा फूले के साथ मिलकर साल 1848 में पुणे में लड़कियों और हाशिए के समुदायों के लिए भारत का पहला स्कूल शुरू किया और बाद में इसे बढ़ाया गया। इस काम में फातिमा शेख भी जुड़ गईं, जिन्होंने साथ मिलकर पितृसत्तात्मक समाज में कई चुनौतियों का सामना करते हुए लड़कियों को पढ़ाने के लिए अपने जीवन को समर्पित कर दिया।
साल 1849 में, जे.ई.बेथ्यून ने 21 लड़कियों के साथ हिंदू महिला स्कूल की स्थापना की। स्कूल ने महिला शिक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1879 में, यह बेथ्यून कॉलेज बन गया, जो भारत का पहला महिला कॉलेज कहलाया। साल 1854 में ब्रिटिश सरकार का वुड्स डिस्पैच लाया गया जिसनें भारत में भारतीय के बीच शिक्षा की नींव रखी। दस्तावेज ने महिला शिक्षा पर का सर्मथन करते हुए ब्रिटिश सरकार से वित्तीय सहायता देने की बात रखी। पर कुछ दशकों तक महिला शिक्षा को प्रोत्साहन देने के लिए वुड्स डिस्पैच के सुझावों को लेकर कोई कदम नहीं उठाया गया।
वुड्स डिस्पैच के बाद महिलाओं के शिक्षा के स्थिति में बदलाव
ब्रिटिश महिला समाज सुधारक मैरी कारपेंटर ने 1865-1870 के दौरान भारत का दौरा किया। वह अपनी इस यात्रा के दौरान वह कलकत्ता, मद्रास और बंबई गईं। उन्होंने इन क्षेत्रों में महिलाओं की दयनीय स्थिति को परखा और महिलाओं को शिक्षित करने पर ज़ोर दिया। साल 1975 में उन्होंने पूरे भारत में नेशनल इंडिया एसोसिएशन की शाखाएं खोलीं। यह एसोसिएशन एक ऐसा पहला संगठन था जिसने खासकर महिलाओं से जुड़े सामाजिक मुद्दों और समस्याओं से संबंधित मुद्दों को बहस के रूप में सामने रखा।
पुरुषों के समान शर्तों पर कॉलेजों में प्रवेश
बॉम्बे विश्वविद्यालय ने 1883 में महिलाओं को कला, चिकित्सा, सिविल इंजीनियरिंग और कानून में पुरुषों के समान शर्तों पर प्रवेश देने का निर्णय लिया। 1888 में बॉम्बे यूनिवर्सिटी से स्नातक करने वाली पहली महिला कॉर्नेलिया सोराबजी थीं। इस समय स्नातक से अधिक पढ़ाई करने वाली महिलाओं में शामिल पंडिता रमाबाई सरस्वती, काशीबाई कानिटकर और शारदा मेहता का नाम शामिल था। पंडिता रमाबाई ने 11 मार्च 1889 को शारदा सदन भी खोला। शिक्षा प्रदान करने के साथ-साथ रमाबाई ने खासकर विधवाओं को कुछ पेशेवर प्रशिक्षण भी प्रदान किया।
महिलाओं के लिए शैक्षिक संस्थानों की संख्या
1901-1902 की अवधि के दौरान यह देखा गया कि महिलाओं की कॉलेज शिक्षा विशिष्ट समूहों तक ही सीमित थी। महिलाओं के लिए घर से बाहर कामकाज के अवसर पैदा करना इस अवधि का एक महत्वपूर्ण विकास था। गंभीर सरकारी प्रयासों के बावजूद, साल 1921-1922 में महिलाओं के लिए केवल 19 कॉलेज, 675 माध्यमिक विद्यालय और लड़कियों के लिए 21,956 प्राथमिक विद्यालय थे। धीरे- धीरे महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार लाने और उनकी शिक्षा को बढ़ाने के लिए कई संगठन अस्तित्व में आए। 1930 में दिल्ली का लेडी इरविन होम साइंस कॉलेज स्थापित किया गया। 1946-1947 के दौरान देश में महिला शैक्षणिक संस्थानों की कुल संख्या 28,196 थी। हालांकि महिला शिक्षा में हमने एक लंबा दूरी तय कर चुके हैं पर आज भी एक लंबा रास्ता तय किया जाना बाकी है।