बात जब हिंसा की होती है, तो सबसे पहले हमारे मन में ख्याल आता है महिलाओं के खिलाफ हिंसा, चोरी, खून और बलात्कार जैसे अपराधों का। समाज में हमारे आस-पास हो रहे अपराध जितना हमारे आँखों के सामने है, शायद उतना ही आंखों से अदृश्य भी। महिलाओं के खिलाफ हिंसा गंभीर अपराध होते हुए भी सार्वजनिक तौर पर इसकी समझ बहुत सीमित नजर आती है। अक्सर मेनस्ट्रीम मीडिया की खबरों में हम महिलाओं के खिलाफ हिंसा को महज एक या दो लाइनों में पढ़ते हैं, जहां घटना और सीधा उसका निष्कर्ष बता दिया जाता है। साथ ही, ध्यान दें तो समझ आता है कि कैसे यह शारीरिक हिंसा तक सीमित दिखाई पड़ती है।
ये सोचने वाली बात है कि आम तौर पर समाज और लोग क्यों महिलाओं के खिलाफ हिंसा का मतलब मूल रूप से शारीरिक हिंसा ही समझते हैं। इस नैरेटिव को गढ़ने में जहां हमारी पितृसत्तात्मक व्यवस्था की भूमिका है, वहीं मनोरंजन की दुनिया की भी भूमिका है। बॉलीवुड ने हमारे विचारों को बनाने और उन्हें आकार देने में बहुत अहम भूमिका निभाई है। इसलिए, जब हम हिंसा की बात सोचते हैं, तो आस-पास हजारों घटना होने के बावजूद भी हमें किसी घटना की तह तक जाने की मानसिकता समझ नहीं आती। न ही हम अमूमन शारीरिक हिंसा के अलावा, हिंसा के विभिन्न रूपों को समझना चाहते हैं। आए दिन हम हिंसा की खबरों को असंवेदनशील रूप में पढ़ते और समझते हैं। हिंसा विशेषकर महिलाओं की हिंसा में नारीवादी नजरिए का होना जरूरी है। यह हमें हिंसा के उन पहलुओं को समझने में मदद करती है जिनपर आम तौर पर कोई बातचीत नहीं होती।
क्या बॉलीवुड हमारी मानसिकता को प्रभावित करती है
जब भी सिनेमा या धारावाहिक महिलाओं के खिलाफ हिंसा की बात करती है, तो बात मूल रूप से अपराध, आरोपी, सर्वाइवर और इंसाफ तक घूमती रहती है। हालांकि ये समझना जरूरी है कि हिंसा के कई पहलूएं होती हैं जिनपर बात नहीं होती। महिलाओं के खिलाफ हिंसा में कमर्शियल कारणों से अक्सर रेप या शारीरिक हिंसा दिखाई जाती है, जिसे विशुअल तौर पर दिखाना से संभव है कि दर्शक ज्यादा आकर्षित होंगे। लेकिन, महिलाओं के खिलाफ हिंसा को समझने के लिए हमें शारीरिक हिंसा से दूर जाकर सोचने और समझने की जरूरत है। रेप जैसे गंभीर अपराध के अलावा भी हिंसा के कई भयानक रूप हैं, जिनपर बात तक नहीं होती।
महिलाओं के खिलाफ हिंसा सिनेमा के दुनिया के लिए कोई नया विचार नहीं है। लेकिन आम तौर पर फिल्मों में हिंसा के बाद बदला या बदले के रूप में ‘इंसाफ’ एक महत्वपूर्ण बात के तौर पर दिखाई जाती है, जो आम जीवन में शायद होती ही नहीं है। उदाहरण के लिए, 1980 में बीआर चोपड़ा की निर्देशित ‘इंसाफ का तराजू’ देखें। कहानी में अभिनेत्री के बालात्कार को दिखाया जाता है। कोर्ट रूम में सर्वाइवर पर सवाल खड़े किए जाते हैं। सर्वाइवर की विक्टिम बलेमिंग की जाती है और आरोपी बरी हो जाता है। हालांकि ये सभी आज के ज़माने में भी प्रासंगिक लग सकता है। लेकिन इसके बाद, नायिका आरोपी का खून कर देती है और बदला पूरा होता है। रेप जैसे अपराध के लिए जब लोग फाँसी की सजा का प्रावधान मांगते हैं, तो यह समझ आता है कि ऐसी विचारधारा किस हद तक रील की दुनिया से प्रभावित हैं। इसी तरह ‘तेरी मेहरबानियाँ’, ‘ज़ख्मी औरत’ जैसी कई फिल्में इसी विचार से प्रेरित है जहां आखिरकार बदला लिया जाता है।
हिंसा का मतलब केवल बलात्कार नहीं
मनोरंजन की दुनिया महिलाओं के खिलाफ हिंसा विशेषकर बलात्कार को हमेशा से दिखाता आया है। साथ ही, अच्छे और बुरे इंसान की पहचान के लिए भी इसी कारक को तय किया गया, जो बेहद समस्याजनक हैं। हालांकि पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता को ‘संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध’ बनाने के लिए कानून साल 1983 में भारतीय दंड संहिता में धारा 498ए को शामिल किया गया था। लेकिन एनर्टैन्मन्ट की दुनिया महिलाओं के खिलाफ हिंसा में आज भी एक निश्चित मानसिकता से बाहर नहीं निकल पाई है। उदाहरण के लिए, हाल की सबसे चर्चित फिल्म ‘थप्पड़’ को लीजिए। फिल्म में बात तब गंभीर होती है जब अभिनेत्री तापसी पन्नू को गुस्से में उसका पति सबके सामने थप्पड़ मारता है। हालांकि फिल्म घरेलू हिंसा की गंभीरता को दिखाने की दिशा में सराहनीय प्रयास करती है। लेकिन घरेलू हिंसा सिर्फ तब माना जाता है जब बात थप्पड़ तक पहुंचती है।
भावनात्मक और आर्थिक हिंसा
फिल्म ‘थप्पड़’ में हाउस्वाइफ तापसी कहती है कि हाउस्वाइफ बनना उसकी चॉइस है। पर फिल्म में शुरुआत से ही उसके अवैतनिक कामों, समय और निष्ठा की कोई कद्र नहीं की गई। फिल्म में मौखिक बदसलूकी को पति-पत्नी के बीच की सामान्य बातचीत दिखाई जाती है। फिल्म ने इसे साधारण शादीशुदा जीवन का हिस्सा दिखाया, जहां पत्नी को ताने मारना या उसका अवैतनिक कामों में दिनभर अकेले उलझा रहना सामान्य है। इसी तरह, चर्चित धारावाहिक अनुपमा में कहानी ने शुरुआती दौर में अच्छी पहल की और भारतीय अबला नारी के नैरेटिव को तोड़ने की पुरजोर कोशिश की। लेकिन पूरे धारावाहिक में उसकी सास के मौखिक और मानसिक शोषण को संस्कार और संस्कृति के नाम पर नजरंदाज किया गया।
साल 2022 में महाराष्ट्र के ठाणे में एक व्यक्ति ने अपने बहु को सुबह के नाश्ते में देरी होने के कारण पिस्तौल से गोली मार कर हत्या कर दी। महाराष्ट्र के ही एक और घटना में एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी को महज खाने में नमक ज्यादा होने के कारण हत्या कर दी। वहीं राजस्थान में एक ही घर में ब्याही गई तीन बहनों की अपने दो बच्चों के साथ दहेज के लिए प्रताड़ित किए जाने से आत्महत्या से मौत हो गई। हम आए दिन इस तरह की कई घरेलू हिंसा की घटनाएं सुनते रहते हैं। लेकिन शायद ही कभी हम मानसिक, भावनात्मक हिंसा की बात करते या सुनते हैं।
तर्कहीन कारणों से घरवालों का किसी भी प्रकार से प्रताड़ित किया जाना कभी सामान्य नहीं कहा जा सकता। जैसे फिल्म क्वीन को लीजिए, जिसे प्रगतिशील फिल्म का खिताब दिया गया है। जहां एक ओर फिल्म कंगना रनौत के आज़ादी और औटोनोमी को दिखाती है, वहीं उसके मंगेतर द्वारा उसको नौकरी करने से माना करने को ‘आर्थिक हिंसा’ नहीं, पुरुषों के ‘टाक्सिक ट्रैट’ के तरह दिखाया गया है जिसपर नायिका की कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। यह जरूरी है कि हम समझें कि अपने साथी या परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा यौन, आर्थिक, मानसिक, मौखिक, शारीरिक या भावनात्मक हिंसा भी घरेलू हिंसा के अंतर्गत आता है।
हिंसा और बात पावर डाइनैमिक्स की
अक्सर बॉलीवुड में लैंगिक हिंसा को दिखाने के लिए बलात्कार के अलावा घरेलू हिंसा दिखाया जाता है। कोई भी ऐसी फिल्म लीजिए जहां घरेलू हिंसा दिखाई गई हो। आम तौर पर घरेलू हिंसा को दिखाने के लिए महिलाओं को शारीरिक तौर पर पीड़ित होते दिखाया जाता है। न तो यहां हिंसा के विभिन्न रूपों की बात होती है, न ही पावर डाइनैमिक्स की और न ही हमारी सोशल कन्डिशनिंग की। हालांकि बॉलीवुड आज मैरिटल रेप, बाल विवाह जैसे मुद्दों को दिखाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन की बार ऐसी फिल्में कमर्शियल नहीं बन पाती। महिलाएं और लड़कियां आमतौर पर लैंगिक हिंसा की ज्यादा शिकार होती हैं। पर यह पुरुषों और महिलाओं के बीच सत्ता के शक्ति के असंतुलन की वजह से भी है।
दुनिया भर में ज्यादातर संस्कृति पितृसत्तात्मक मानदंडों से चलती है जहां महिलाओं के खिलाफ हिंसा में नारीवादी और संवेदनशील नजरिए की कमी दिखाई पड़ती है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा लैंगिक उत्पीड़न की संरचनाओं को बनाए रखती है; चाहे वह निजी तौर पर व्यक्तियों द्वारा की जाए या सार्वजनिक क्षेत्र में संस्थागत ताकतों द्वारा किया जाए। चूंकि हमारी सामाजिक व्यवस्था में महिलाएं सबसे आखिर में खड़ी हैं, इसलिए सामाजिक तौर पर उनका हिंसा के खिलाफ बोलना और उसे समझना भी कठिन हो जाता है। महिलाएं कानून की मदद जरूर ले सकती हैं, पर उसके लिए यह समझना होगा कि शोषण और हिंसा सिर्फ थप्पड़ या मैरिटल रेप तक सीमित नहीं और न ही ये सामने वाले की संख्या पर निर्भर है।