1990 के दशक में बिहार में दलितों की हत्याएं, उत्पीड़न, महिलाओं के साथ ख़ासकर दलित महिलाओं के साथ हिंसा, जातिगत भेदभाव, बंधुआ मज़दूरी आदि चरम सीमा पर थी। समाज के इन्हीं हालात को बिहारी लेखक शैवाल ने अपनी कहानी ‘कालसूत्र’ में बयान किया। इस कहानी से प्रभावित होकर निर्देशक प्रकाश झा ने एक फ़िल्म बनाई ‘दामुल।’ कोई भी संपन्न रचना अपने कालखंड की दस्तावेज़ होती है जिसे पीढ़ियों तक कला के इतिहास के रूप में इसीलिए पहुंचाया जाना जरूरी है ताकि वे वर्तमान समय की समस्याओं का, समाधानों का मूल्यांकन कर सके और अगर समाज ग़लत दिशा में बढ़ रहा है तो उसे सही दिशा की ओर मोड़ा जा सके।
दामुल को अपने समय का विजुअल दस्तावेज कहा जा सकता है। हालांकि, जिन समस्याओं को इस फिल्म में उजागर किया गया है वे अभी भी समाज में मौजूद हैं। लेकिन इससे फिल्म की आवश्यकता कम नहीं हो जाती है और किन्हीं बिंदुओं पर उसकी आलोचना भी खत्म नहीं हो जाती है। फ़िल्म की सिनेमेटोग्राफी, निर्देशन, म्यूज़िक आदि चीजें तो इस क्षेत्र के विशेषज्ञ ही बता पाएंगे लेकिन फिल्म के सामाजिक, राजनीतिक पहलुओं का विश्लेषण हम ज़रूर कर सकते हैं। बताते चलें कि यह फिल्म यूट्यूब पर उपलब्ध है।
फ़िल्म की शुरुआत जेल में बंद कैदियों की कोर्ट में पेशी के लिए दरोगा द्वारा नाम लेने से होती है। इन कैदियों के सरनेम साफ बता रहे थे कि जेल में किस समुदाय के कैदियों की संख्या ज्यादा है। फ़िल्म के इसी सीन को वर्तमान से जोड़कर देखने पर इसकी स्पष्टता हो जाएगी 10 फरवरी 2021 को संसद में जारी की गई एनसीआरबी की रिपोर्ट में यह बताया गया कि भारतीय जेलों में 65.90% कैदी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग से हैं।
फ़िल्म की शुरुआत जेल में बंद कैदियों की कोर्ट में पेशी के लिए दरोगा द्वारा नाम लेने से होती है। इन कैदियों के सरनेम साफ बता रहे थे कि जेल में किस समुदाय के कैदियों की संख्या ज्यादा है। फ़िल्म के इसी सीन को वर्तमान से जोड़कर देखने पर इसकी स्पष्टता हो जाएगी 10 फरवरी 2021 को संसद में जारी की गई एनसीआरबी की रिपोर्ट में यह बताया गया कि भारतीय जेलों में 65.90% कैदी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग से हैं।
फिल्म बिहार के गांव चैनपुर पर आधारित है जहां राजनीति के केंद्र में बाकी समस्याएं इर्द-गिर्द चल रही हैं। गांव में सवर्णों के दो गुट हैं, एक ब्राह्मण और दूसरा राजपूत। वहीं, दलितों की पूरी एक बस्ती है जिसमें दो-तीन जातियां एकसाथ रह रही हैं। सवर्णों के गुट ने इस बस्ती को ‘हरिजन टोला’ नाम दिया हुआ है। गांव में मुखिया के चुनाव होने हैं, वर्तमान में एक ब्राह्मण, माधव पंडित (मनोहर सिंह) पिछले बारह सालों से मुखिया है। इससे राजपूत गुट का बच्चा सिंह (प्यारे मोहन सहाय) जलता है इसीलिए वह दलितों में से गोकुल चमार को चुनाव लड़ाने के लिए खड़ा कर देता है, वह खुद को दलितों का हितैषी दिखाता है।
इस पूरी परिस्थिति में दरअसल दो सवर्ण अपनी-अपनी सत्ता को स्थापित करना चाहते हैं। ब्राह्मण गुट दलितों का सामने से उत्पीड़न करके डर के ज़ोर पर सत्ता हथियाता है और राजपूत गुट का बच्चा सिंह दलितों का हितैषी बनकर सत्ता हथियाना चाहता है। दोनों का इरादा एक है सत्ता पाना, दलितों का उत्पीड़न जारी रखना। दोनों की लड़ाई में पिसते हैं हरिजन टोला के लोग, चुनाव के वक्त बच्चा सिंह के विरोधी दलितों को वोट देने नहीं जाने देते और हथियारों के दम पर बस्ती को घेर लेते हैं।
गोकुल को प्रत्याशी बनाने के बावजूद वह इस सत्ता की दौड़ में नहीं था। ये सब देखते, समझते वक्त क्या आज की स्थिति साफ़ हो रही है? केंद्र में एनडीए का राज, विपक्ष में यूपीए लेकिन दलितों को सत्ता में लाने का किसी की ओर से कोई प्रयास नहीं किया जा रहा। ये बात ठहरी बड़े स्तर की। पंचायत चुनाव के इर्द-गिर्द बुनी गई इस फ़िल्म में बच्चा सिंह, गोकुल को मुखिया बनाने की सोचता है लेकिन दरअसल ऐसा करके सत्ता वह खुद चलाता क्योंकि संसाधन, सिस्टम उसके लोगों से लैस है।
इस पूरी परिस्थिति में दरअसल दो सवर्ण अपनी-अपनी सत्ता को स्थापित करना चाहते हैं। ब्राह्मण गुट दलितों का सामने से उत्पीड़न करके डर के ज़ोर पर सत्ता हथियाता है और राजपूत गुट का बच्चा सिंह दलितों का हितैषी बनकर सत्ता हथियाना चाहता है। दोनों का इरादा एक है सत्ता पाना, दलितों का उत्पीड़न जारी रखना।
हालात आज भी वही हैं। सामाजिक संवाद से मालूम हुए प्रत्यक्ष साक्ष ये सबूत देते हैं उत्तर प्रदेश के ज़िला मथुरा के एक गांव में मई 2021 में हुए चुनावों में पंचायती चुनावों में मुखिया की सीट एससी रिजर्व आई थी। जाट और पंडित बहुल्य गांव में जाटों ने अपनी ओर से एससी प्रत्याशी को समर्थन दिया और पंडितों द्वारा खड़ा किया गया एससी प्रत्याशी हार गया। वर्तमान में मुखिया जाटों द्वारा खड़ा किया गया एससी व्यक्ति है लेकिन असल में पंचायत चला जाट रहे हैं। दोनों गुटों की ओर से दो एससी प्रत्याशी ‘खड़े’ हुए, जीता कोई भी लेकिन पंचायती चला एक दबंग गुट ही रहा है। यह घटना या ऐसी तमाम घटनाएं घटती जरूर हैं लेकिन मीडिया में नहीं आती, मशीनरी कोई कार्रवाई नहीं करती क्योंकि इसे ‘आम’ बना दिया गया है जिससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।
फ़िल्म दलित मज़दूरों के पलायन को भी दिखाती है कि कैसे नब्बे के दशक में जब मजदूरों को इतनी मज़दूरी भी नहीं दी जाती थी कि वे अपने परिवारों को पाल सकें, उल्टा उनके पुरखों पर बकाया कर्ज़ जो दरअसल सफेद कागज़ पर अंगूठा लगाकर, कुछ भी राशि कर्ज के तौर पर लिखी हुई थी, उसे चुकाने के लिए वे मजबूर थे। तब मजदूर पंजाब जैसे कृषि संपन्न राज्यों में मज़दूरी के लिए पलायन कर रहे थे। आज भी पंजाब, हरियाणा जगहों पर मजदूरी दलित कर रहे हैं जो या तो पंजाब से ही हैं या बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड जैसे राज्यों से पलायन करके आए हैं और यहां भी उत्पीड़न का सामना कर रहे हैं।। फ़िल्म में एक महात्माइन हैं (दीप्ति नवल) जो विधवा हैं, हरिजन टोला में रहती हैं, इससे स्पष्ट है कि वह भी दलित हैं।
फिल्म को सराहा गया और आलोचनाएं भी हुईं। उन्हीं में से एक अहम आलोचना यह है कि इसे एक सवर्ण ने बनाया है। यह फिल्म एक सवर्ण के नज़रिए से बनी है इसीलिए दलितों को दबा-कुचला दिखाया गया है। वहीं, समाज के सवर्ण तबके से आलोचना आना कि यह फिल्म उनके खिलाफ है तो यह आलोचना मायने नहीं रखती है क्योंकि सच्चाई तो यही है।
माधव पंडित और उसके चेले जो किसी दलित से छू भी जाएं तो गंगाजल से स्नान करते हैं, वही माधव पंडित हर रात महात्माइन का बलात्कार करता है। अगर वे इस बीच गर्भवती हो जाएं तो काशी भेज देता है अबॉर्शन के लिए। महात्माइन की ज़मीन भी उसने हड़पी हुई है। दलित महिलाओं का सवर्ण रेप करते हैं इसके पक्ष में तो तमाम रिपोर्ट और केस हमारे समक्ष मौजूद हैं। हाथरस गैंगरेप, भंवरी देवी गैंगरेप, खैरलांजी हत्याकांड आदि किसी से छिपे नहीं हैं। हरिजन टोला का संजीवन जब माधव पंडित के खिलाफ़ खड़ा होने की कोशिश करता है तब उसे महात्माइन के हत्या करने के झूठे केस में फंसाकर जेल भिजवा दिया जाता है, जो आखिरकार फांसी के फंदे पर चढ़ा दिया जाता है।
फिल्म को सराहा गया और आलोचनाएं भी हुईं। उन्हीं में से एक अहम आलोचना यह है कि इसे एक सवर्ण ने बनाया है। यह फिल्म एक सवर्ण के नज़रिए से बनी है इसीलिए दलितों को दबा-कुचला दिखाया गया है। वहीं, समाज के सवर्ण तबके से आलोचना आना कि यह फिल्म उनके खिलाफ है तो यह आलोचना मायने नहीं रखती है क्योंकि सच्चाई तो यही है। फ़िल्म देखने पर पता चलता है कि बेशक इसे एक सवर्ण ने बनाया है लेकिन फिल्म में दिखाया हर सीन चीखकर वही कह रहा है जो असलियत में दलितों के साथ घट रहा है। उस समय में जब कोई निर्देशक, कथाकार इन स्थितियों को दिखाने की सोच भी नहीं रहा था तब प्रकाश झा ने यह कर दिखाया है, इस बात से कतई मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है।
बेशक हालिया दौर में मुखर होकर दलित सामने आए हैं लेकिन बड़ी संख्या में माधव पंडित, बच्चा सिंह अभी भी राज कर रहे हैं, महात्माइन आज भी हिंसा झेल रही है, ‘हरिजन टोले’ में आज भी आग लगा दी जाती है। कई संजीवन झूठे मुकदमों में जेल में बंद हैं जिनके परिवार उन्हें रिहा देखना चाहते हैं, पत्नियां इंतजार कर रही हैं। बस उनकी पत्नियां वह नहीं कर रही हैं जो फिल्म में संजीवन की पत्नी करती है। वह हर जुल्म से तंग आकर माधव पंडित की गर्दन पर धारदार चाकू से वार कर देती है। जिन संजीवन की पत्नियां ये नहीं कर रही हैं वे अभी भी कानून में, संविधान में विश्वास बनाए हुए हैं।