इंटरनेट ने लोगों के लिए अपने देश द्वारा बनाए जा रहे मनोरंजक फिल्में, ड्रामा के साथ-साथ अन्य देशों, संस्कृतियों, मनोरंजन उद्योगों द्वारा बनाए जा रहे फिल्मों और ड्रामा के रास्ते खोले हैं। नेटफ्लिक्स, अमेजन प्राइम, यूट्यूब इस काम के लिए चुने जाने वाले चुनिंदा प्रसिद्ध प्लेटफॉर्म हैं। इसी कड़ी में हाल ही के दिनों में एक पाकिस्तानी ड्रामा ‘रज़िया’ शामिल हुआ है जिसे यूटयूब पर एक्सप्रेस एंटरटेनमेंट के चैनल पर देखा जा सकता है। यूं तो कितने ही ड्रामा हमारे बीच आते रहते हैं लेकिन विरले ही ऐसे कार्यक्रम होते हैं जिनके बारे में बात करना अति आवश्यक होता है। रज़िया उन्हीं चुनिंदा कार्यक्रमों में से एक है। भारतीय टीवी सीरियल पंद्रह-पंद्रह साल चलते हैं। उसमें भी एक महिला को लेकर रूढ़िवाद को सिर्फ बढ़ावा ही दिया जाता रहता है।
इसके उलट, रज़िया मात्र छह एपिसोड का ड्रामा है और हर एपिसोड आधे घंटे से ज़्यादा का नहीं है। इसका निर्देशन और लेखन, दोनों ही मोहसिन अली ने किया है। मोहसिन अली द्वारा ऐसा काम आना इस पूर्वाग्रह को भी तोड़ता है कि एक पुरुष, महिला के जीवन संघर्ष के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं जान सकता। मोहसिन ने हर एपिसोड में यह दर्शाया है कि उन्होंने अपनी आस-पास की महिलाओं के जीवन को गौर से देखा और महसूस किया है। ड्रामा की मुख्य कलाकार हैं प्रसिद्ध पाकिस्तानी अभिनेत्री माहिरा खान जो बॉलीवुड में अभिनेता शाहरुख खान के साथ फिल्म रईस में मुख्य महिला किरदार थीं।
क्या है रज़िया की कहानी
क्या है रज़िया की कहानी? ड्रामा की शुरुआत करने में मोहसिन अली ने कुछ नया तरीका अपनाया है जो बाकी ड्रामा से भिन्न है। मेले में एक महिला कहानीकार (माहिरा खान) सभी लोगों को रज़िया की कहानी सुनाती हैं। लोग बहुत गौर से ये कहानी सुनते हैं। खासकर वहां मौजूद महिलाएं रज़िया से जुड़ाव महसूस करती हैं क्योंकि अंत तक उसकी कहानी सभी महिलाओं की कहानी है। रज़िया पाकिस्तानी समाज के एक ऐसे परिवार में जन्म ली हैं जहां सभी को एक लड़का चाहिए था। यहां तक कि उसकी मां खुद भी एक लड़का चाहती थी।
लेखक सआदत हसन मंटो ने लड़कियों के जन्म के संदर्भ में कहा था कि लड़कियों के जन्म पर खुश ना होकर हम उनका पहला हक़ खा जाते हैं। रज़िया के सारे हक़ यूं ही खा लिए जाते हैं। जब उसके जन्म के कुछ साल बाद घर में एक बेटे का जन्म होता है, तब तो जैसे रज़िया का अस्तित्व कहीं गुम ही हो जाता है। बडी होती रज़िया हर चीज़ से रोकी जाती है बावजूद इसके कि वह दसवीं, बारहवीं में जिला टॉप करती है। उसका भाई अली जबकि एक बदतमीज़ व्यक्ति से ज्यादा कुछ नहीं बन पाता है क्योंकि उसकी हर गलती माफ़ की जाती रही है।
रज़िया के जीवन की लड़ाई
रज़िया के जीवन में सबसे अधिक तूफ़ान तो तब आता है जब उसके भाई द्वारा की गई गलती की भरपाई करती है। उसका पिता, उसकी शादी उस इंसान से करा देता है जिसकी बहन को रज़िया का भाई लेकर भाग जाता है। शादी के बाद रज़िया को रोज़ शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ता है। लेकिन घर की कोई औरत उसके साथ खड़ी नहीं होती। उसके साथ मैरिटल रेप होता है। इसके चलते रज़िया एक लड़की को जन्म देती है जबकि रज़िया के ससुराल को बच्चे के रूप में तो सिर्फ लड़का ही चाहिए था। रज़िया को उसका पति तलाक दे देता है। वो वापस अपने घर लौटती है। बच्चों को पढ़ाना शुरू करती है। खुद पढ़ती है और अपनी बच्ची को हर वो हक़, आजादी, सुरक्षा देती है जो उसे उसकी मां, उसका बाप नहीं दे सके थे। कहानी विद्रोह और पितृसत्तात्मक सौदेबाजी की मेले में सुनती हर महिला, माहिरा खान (युवा रज़िया) की कहानी से बंध जाती हैं क्योंकि वे रज़िया की मां जैसी थीं।
हमारी बेटियां और पितृसत्तात्मक सौदेबाजी
अपनी बेटियों को कम बोलने देना, गलत को सहते जाना, दस पंद्रह वर्ष की उम्र के बाद पढ़ाई बंद करा देना, घर में मौजूद लड़के भाइयों से चाहे छोटे हों या बड़े डर के रहना सिखाना और बेटी को यह याद दिलाते रहना कि उसे भी सहने की आदत डाल लेनी चाहिए वरना उसका ससुराल में बुरा हाल होगा चाहे वो पढ़ी लिखी बेशक हो उसकी पढ़ाई काम नहीं आएगी। लेकिन रज़िया की मां ने ऐसा क्यों किया? हमारी माएं ऐसा क्यों करती हैं? वे जो करती हैं उसे पितृसत्तात्मक सौदेबाजी कहते हैं। डेनिज कंदीयोती ने 1988 में अपने लिखे लेख बार्गेनिंग विद पैट्रियार्की में पैट्रियार्कल बारगेन शब्द को इस्तेमाल किया था। यह शब्द किसी महिला के कुछ लाभ प्राप्त करने के लिए पितृसत्ता की मांगों के अनुरूप होने के निर्णय को संदर्भित करता है, चाहे वह वित्तीय, मनोवैज्ञानिक/भावनात्मक या सामाजिक हो।
रज़िया और उसके माँ का जीवन
अधिक आसान शब्दों में समझना चाहें तो ऐसे समझ सकते हैं कि महिलाएं पितृसत्तात्मक तरीके से पेश आती हैं, वो हर काम करती हैं जिससे पितृसत्ता कायम रहे और फैले ताकि पुरुष का संरक्षण उन्हें मिलता रहे। अगर ऐसा नहीं होता है तो वे बहिष्कृत की जा सकती हैं। जैसे रज़िया की मां अगर रज़िया का सहारा बनती और अपने लड़के को महत्व ना देती तो रज़िया का पिता उसकी मां को घर से बाहर निकाल सकता था, उसे तलाक दे सकता था या उसका कत्ल भी कर सकता था जैसाकि वह उससे जिक्र करता ही रहा है। रज़िया की मां ने पितृसत्तात्मक सौदेबाजी की जगह विद्रोह चुना होता तो मुमकिन है कि रज़िया शारीरिक, मानसिक, यौन हिंसा से ना गुजरती और रज़िया के दिल में उसके लिए प्यार बढ़ता। रज़िया की मां की बेटी (रज़िया) हुई तो उसने बेटी के जन्म लेने के डर से पितृसत्तात्मक सौदेबाजी को चुना। लेकिन जब रज़िया को बेटी हुई, तो वह उसके लिए विद्रोह की नई चिंगारी बनी और यह फ़र्क आया था रज़िया के शिक्षा से।
पितृसत्ता से बाहर निकलने में कैसे मददगार हुआ शिक्षा
दसवीं में पढ़ाई छुड़वाने के बाद भी उसने चोरी से एक दोस्त (मनु) की मदद से बारहवीं की। पढ़ पाई थी इसीलिए आगे चलकर अपनी बेटी और अपना ख्याल रख सकी। दक्षिण एशियाई महिलाओं का जीवन ड्रामा बेशक पाकिस्तानी समाज के परिपेक्ष्य में बना है लेकिन ऐसी हर रज़िया और उसकी मां दक्षिण एशियाई घरों में मौजूद है। वर्ल्ड बैंक के अनुसार दक्षिण एशिया में पुरुषों की तुलना में महिलाओं में वयस्क साक्षरता कम है। पुरुषों की साक्षरता दर 80.9 प्रतिशत वहीं महिलाओं में यह दर 65.2 प्रतिशत है। दक्षिण एशिया के सभी देशों में, जिनके आंकड़े मौजूद हैं, महिलाएं अवैतनिक घरेलू और देखभाल कार्यों पर पुरुषों की तुलना में अधिक समय बिताती हैं। महिलाओं को शिक्षा लेने से रोकना, उन्हें घर के कामों में लगाए रखना, महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित रख, पुरुषों के अधीन बनाने का यंत्र एक किस्म की आधुनिक गुलामी है। भारतीय टीवी के लिए रज़िया ड्रामा एक नज़ीर है।
भारतीय टीवी में बलदाव की जरूरत
भारतीय टीवी नागिन, भूत और सास-बहू के समस्याजनक वर्णन से आगे अभी तक नहीं बढ़ पाया है। भारतीय समाज में सारी व्यवस्थाएं दुरुस्त तो नहीं हुई हैं जिसके प्रमाण स्वरूप विभिन्न ऑक्सफैम जैसे रिपोर्ट सच्चाई का खुलासा करती रहती है। टीवी में कल्पनाओं की जगह बेशक हो सकती है। लेकिन हर टीवी सीरियल में जब एक भारतीय परिवार दिखाया ही जा रहा है तब उस समाज की असलियत क्यों नहीं दिखाई जाती। ना असलियत और ना विद्रोह, दिखता है सिर्फ़ रूढ़िवाद और अंधविश्वास। ऐसे में रज़िया जैसा ड्रामा जो महज़ 14 सितंबर 2023 से लेकर 19 अक्टूबर 2023 तक प्रसारित हुआ लेकिन अपनी बात, उद्देश्य एकदम स्पष्ट किया है। भारतीय टीवी को सच में अपना कंटेंट बदलने की आवश्यकता है। इसका बहाना सिर्फ यह नहीं लगाया जा सकता है कि दर्शक यही देखना चाहता है बल्कि जो दिखाया जाता है दर्शक वही देखता है। लोग चाहते हैं समाज उन्नति करे। लेकिन उनके दिमागों में यही भरा जा रहा है कि अच्छी बहू कैसे बनें, अच्छी बेटी कैसे बनें। अब इसके लिए चाहे खुद का जीवन समाप्त ही क्यों न करना पड़े (भारतीय टीवी का यह पसंदीदा सीन है)। रज़िया जैसे ड्रामा अचानक किसी समाज की सोच और सूरत नहीं बदल सकते हैं। लेकिन समस्या को बताते हुए बदलाव की एक शुरुआत जरूर कर सकते हैं।