संस्कृतिसिनेमा कमियों के बीच ज़रूरी मुद्दा उठाती फिल्म ‘रश्मि रॉकेट’

कमियों के बीच ज़रूरी मुद्दा उठाती फिल्म ‘रश्मि रॉकेट’

कहानी रश्मि नाम की एक लड़की की है जो गुजरात के कच्छ में रहती है और बहुत तेज दौड़ती है। लड़का हो या लड़की, गलत बात पर हर किसी से भिड़ जाती है। रश्मि के शौक कथित रूप से लड़कों वाले हैं। अब सवाल यह है कि ऐसे कौन से शौक हैं जिस पर लड़कों ने कॉपीराइट ले रखा है।

फिल्म खत्म होती है और स्याह होते स्क्रीन पर सफेद रंग में अक्षरों का समूह उभरता है। अक्षरों का यह समूह बनाता है एक वाक्य जो ‘असली आज़ादी’ की एक परिभाषा देने की कोशिश करता है। इस वाक्य में लिखा है, ‘समाज के अनुसार खुद को न बदलने की आज़ादी ही असली आज़ादी है।’ अब यहां मैं असली आज़ादी का अपना एक वर्जन पेश करते हुए बात शुरू करना चाहूंगी। मेरे लिए अपनी कहानी खुद कहने की आज़ादी ही असली आज़ादी है। हम अपनी कहानी खुद कहें, किसी दूसरे की न सुनें, इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता।

कुछ अपवादों को छोड़कर जिस बॉलीवुड से जाति, जेंडर, यौनिकता जैसे मुद्दों पर संवेदनशील काम की उम्मीद नहीं रहती, वहां से आकर्ष खुराना निर्देशित ‘रश्मि रॉकेट’ जैसी फिल्म का निकलना एक उम्मीद तो देता है लेकिन फिल्म के खत्म होने के साथ-साथ उम्मीद का भी अंत हो जाता है। अब इसका मतलब यह नहीं है कि दिक्कत फिल्म के क्लाइमेक्स में है। दरअसल फिल्म में दिक्कत छोटे-छोटे टुकड़े में मौजूद है, जो फिल्म के अलग-अलग हिस्सों में नज़र आती है।  
  



स्पोर्ट्स ड्रामा कैटेगरी की यह फिल्म महिला खिलाड़ियों को लेकर समाज में व्याप्त पूर्वाग्रहों और साजिशों को बयान करने की कोशिश करती है। साथ ही जेंडर टेस्ट जैसे नाज़ुक मुद्दे को भी उठाती है। जेंडर टेस्ट वह मुद्दा है जिस पर अब तक किसी भी हिन्दी फिल्म में बात नहीं हुई है। न ही इस मुद्दे पर भारतीय खेल प्रशंसकों ने भी कभी अपने खिलाड़ियों का साथ दिया है। ऐसे में रश्मि रॉकेट एक बहुत ज़रूरी फिल्म बन जाती है।

कहानी रश्मि नाम की एक लड़की की है जो गुजरात के कच्छ में रहती है और बहुत तेज दौड़ती है। लड़का हो या लड़की, गलत बात पर हर किसी से भिड़ जाती है। रश्मि के शौक कथित रूप से लड़कों वाले हैं। अब सवाल यह है कि ऐसे कौन से शौक हैं जिस पर लड़कों ने कॉपीराइट ले रखा है। क्या पैंट और टी-शर्ट पर लड़कों का कॉपीराइट है? बुलेट बाइक चलाने पर उनका कॉपीराइट है? तेज़ दौड़ने पर कॉपीराइट है या गुस्से पर काबू न रख पाने पर कॉपीराइट है? ख़ैर, फिल्म को साफ़ तौर पर तीन भागों में बांटा जा सकता है। पहला हिस्सा कच्छ में रश्मि की परवरिश। दूसरा हिस्सा प्रेम और दौड़ प्रतियोगिता और तीसरा हिस्सा जेंडर टेस्ट और उसके खिलाफ़ रश्मि की कानूनी लड़ाई।

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कहानी रश्मि नाम की एक लड़की की है जो गुजरात के कच्छ में रहती है और बहुत तेज दौड़ती है। लड़का हो या लड़की, गलत बात पर हर किसी से भिड़ जाती है। रश्मि के शौक कथित रूप से लड़कों वाले हैं। अब सवाल यह है कि ऐसे कौन से शौक हैं जिस पर लड़कों ने कॉपीराइट ले रखा है।



पहला हिस्सा रश्मि के किरदार को स्थापित करने में खर्च हो जाता है। दूसरे हिस्से में रश्मि को एक फौजी से प्यार होता है। वह रश्मि को देश के लिए दौड़ने को प्रेरित करता है। रश्मि पहले राज्य, फिर राष्ट्रीय स्तर पर अभूतपूर्व सफलता पाती है। इसके बाद एक साजिश रची जाती है। रश्मि को बिना बताए बहुत ही अपमानजनक तरीके से उसका एक जेंडर टेस्ट किया जाता है। रश्मि टेस्ट में ‘फेल’ हो जाती है यानि स्पोर्ट्स फेडरेशन उन्हें ‘फीमेल’ मानने से इनकार कर देता है। अब अंतरराष्ट्रीय कानून के मुताबिक रश्मि को खेल से प्रतिबंधित कर दिया जाता है। भारतीय मीडिया अपने पितृसत्तामक स्वभाव के अनुसार रिपोर्टिंग करता है।   

लेकिन फिल्म रश्मि के ट्रॉमा को दिखाने में असफल साबित होती है। फिल्म न तो ढंग से रश्मि की बेबसी को दिखा पाती है, न ही समाज की क्रूरता को। स्क्रीन पर चल तो सब कुछ रहा होता है लेकिन उसमें वह अपील नहीं है जो रश्मि के ट्रॉमा को दर्शकों तक पहुंचा सके। कुल मिलाकर बात यह है कि फिल्म से भावनात्मक जुड़ाव स्थापित नहीं हो पाता है।

फिल्म अपने रुख़ को लेकर स्पष्ट है। बिना किसी डर फिल्म अपने मुद्दे के साथ खड़ी नज़र आती है। जेंडर टेस्ट गलत है, तो गलत है। यह कहने में फिल्म ज़रा भी नहीं हिचकती।

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अब यहां ठहरकर जरा जान लेते हैं कि यह जेंडर टेस्ट क्या है? हालांकि अब यह नियम बदल चुका है। लेकिन पहले यह नियम था कि जिस महिला धावक में मेल सेक्स हार्मोन टेस्टोरोन की मात्रा ज़्यादा पाई जाती थी तो उसे बैन कर दिया जाता था। स्पोर्ट्स फेडरेशन का तर्क होता था कि टेस्टोरोन की मात्रा अधिक होने से बेहतर धावक होने की क्षमता बढ़ जाती है। फिल्म अपने रुख़ को लेकर स्पष्ट है। बिना किसी डर फिल्म अपने मुद्दे के साथ खड़ी नज़र आती है। जेंडर टेस्ट गलत है, तो गलत है। यह कहने में फिल्म ज़रा भी नहीं हिचकती। दूसरी अच्छी बात है रश्मि के पति का किरदार। वह अपनी पत्नी का संरक्षक नहीं बनता, बस साथ देता। सुनता है और ज्ञान कम देता है।   

जेंडर टेस्ट के बाद शुरू होनेवाली कानूनी लड़ाई, खासकर कोर्टरूम के सीन बहुत यकीनी नहीं लगते। उस दौरान ह्यूमर तो मिलता है लेकिन सब कुछ बहुत आदर्शवादी नज़र आता है। अपनी आदत से मजबूर बॉलीवुड ने इस फिल्म में भी ‘तड़कता-भड़कता’ गाना डाल ही दिया है, जो बनते मूड को बर्बाद करता है, फ्लो टूट जाता है। ट्रेनिंग के दृश्य न मिल्खा सिंह टाईप फिल्मी हैं न पूरी तरह रीयल। मामला कहीं बीच में फंस गया है।    

सबसे ज्यादा दुख देता तापसी पन्नू का मेकअप। जिस तरह मेकअप के दम पर उनके रंग को गहरा दिखाया गया है वह महा-बनावटी लगता है। अगर कहानी की मांग गहरे रंग की अभिनेत्री है, तो ऐसी अभीनेत्री का चुनाव क्यों नहीं किया जाता जिसका रंग प्राकृतिक तौर पर गहरा है। गोरी त्वचा वाली अभिनेत्रियों को मेकअप पोतकर गहरा रंग का दिखाने कि क्या मजबूरी है?

कुल मिलाकर बात यह है कि फिल्म में कुछ कमियां हैं लेकिन फिल्म का मुद्दा ज़रूरी है। फिल्म में रश्मि के पिता का किरदार एक डायलॉग है, “हार-जीत तो परिणाम है, कोशिश करते रहना अपना काम है।” रश्मि रॉकेट के लिए भी ठीक यही कहा जा सकता है। फिल्म में कुछ कमियां होने के बावजूद जेंडर, सेक्सुएलिटी और समानता की समझ के लिए ऐसे मुद्दों पर फिल्मों का बनते रहना ज़रूरी है।

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तस्वीर साभार : FilmiBeat

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