हाल ही में, एक मामले में उत्तराखंड हाई कोर्ट ने फैसला सुनाया है कि गर्भावस्था के आधार पर महिलाओं को रोजगार से वंचित नहीं किया जा सकता है। अदालत ने भारत के राजपत्र (असाधारण) नियमों’ पर गहरी नाराजगी व्यक्त की, जिसमें 12 सप्ताह से अधिक गर्भावस्था वाली महिलाओं को ‘अस्थायी रूप से अयोग्य’ के रूप में लेबल किया गया है और कहा कि ‘मातृत्व प्रकृति द्वारा दिए गए एक महिला के लिए सबसे महान आशीर्वादों में से एक है’।
अदालत का यह फैसला मीशा उपाध्याय द्वारा दायर याचिका के जवाब में आया, जिन्हें गर्भावस्था के कारण नैनीताल के बीडी पांडे अस्पताल में नर्सिंग अधिकारी के पद से वंचित कर दिया गया था। चिकित्सा स्वास्थ्य और परिवार कल्याण महानिदेशक द्वारा उन्हें नियुक्ति पत्र जारी किए जाने के बावजूद, अस्पताल ने फिटनेस प्रमाणपत्र का हवाला देते हुए उन्हें शामिल होने की अनुमति देने से इनकार कर दिया, जिसने उन्हें ‘अस्थायी’ रूप से शामिल होने के लिए ‘अयोग्य’ घोषित कर दिया था। प्रमाणपत्र में गर्भावस्था के अलावा कोई अन्य स्वास्थ्य समस्या नहीं बताई गई। चिकित्सा अधिकारी ने भारत के निम्न राजपत्र के अनुसार याचिकाकर्ता को ‘अस्थायी रूप’ से अनफिट घोषित किया।
क्या गर्भावस्था का मतलब अयोग्य होना है
यदि जांच परिणाम स्वरूप कोई महिला उम्मीदवार 12 सप्ताह या उससे अधिक समय की गभर्वती पायी जाती है, तो उसको अस्थाई रूप से तबतक अस्वस्थ्य घोषित किया चाहिए जबतक कि उसका प्रसव न हो जाए। किसी पंजीकृत मेडिकल पैक्टिशनर से आरोग्यता का प्रमाणपत्र प्रस्तुत करने पर प्रसूति की तारीख के 6 सप्ताह बाद आरोग्य प्रमाणपत्र के लिए उसकी फिर से स्वास्थ्य परीक्षण किया जाना चाहिए।
उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार के इस नियम को अमान्य कर दिया, जिसमें 12 सप्ताह या उससे अधिक की गर्भवती महिलाओं को रोजगार के लिए ‘अस्थायी रूप से अयोग्य’ माना गया था। नियम के अनुसार प्रसव के छह सप्ताह बाद फिटनेस प्रमाणपत्र के साथ मेडिकल जांच अनिवार्य है। अदालत ने सरकार के इस नियम पर गहरी नाराजगी व्यक्त की और नियम को ‘असंवैधानिक’ करार दिया।
आखिर सरकार के ऐसे नियम क्यों
जस्टिस पंकज पुरोहित की एकलपीठ ने अस्पताल को निर्देश दिया कि तुरंत सुनिश्चित किया जाए कि याचिकाकर्ता, जो 13 सप्ताह की गर्भवती है, नर्सिंग अधिकारी के पद पर शामिल हो जाएं। पिछले कई वर्षों में देश में लैंगिक समानता को प्राप्त करने के लिए के भरसक प्रयत्न किए जा रहे हैं। सरकार देश में लैंगिक समानता के लिए नए-नए नियम ला रही है या फिर पुराने नियमों में कुछ बदलाव कर रही है। न्यायालय भी लैंगिक समानता के क्षेत्र में अपना योगदान दे रहे हैं। अलग-अलग उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालयों ने गर्भावस्था में नौकरी को ले कर या मातृत्व अवकाश को लेकर कई गतिशील फैसले दिए हैं। यह फैसला लैंगिक समानता के प्रति अदालत की प्रतिबद्धता पर जोर देता है और कार्यस्थल में गर्भवती महिलाओं के खिलाफ भेदभावपूर्ण प्रथाओं को चुनौती देता है। एक महिला का नौकरी मिलने के बाद गर्भधारण करना या नौकरी में भर्ती के समय गर्भावस्था में होना कोई बाधा का कारण नहीं होना चाहिए।
मातृत्व अवकाश लेकर नौकरी जारी रखने का अधिकार
इस मामले में न्यायाधीश पंकज पुरोहित ने सवाल किया कि यदि एक महिला सेवा में शामिल हो रही है और उसके बाद गर्भवती हो जाती है तो वह मातृत्व अवकाश की हकदार है, तो एक गर्भवती महिला नई नियुक्ति पर अपनी ड्यूटी में शामिल क्यों नहीं हो सकती है? एक महिला जो नौकरी करते हुए गर्भधारण करती है, उसको मातृत्व लाभ अधिनियम के तहत अवकाश पाने का अधिकार है। वहीं दूसरी ओर, एक महिला जो नौकरी की भर्ती के समय गर्भावस्था में होती है तो उसे आयोग्य मानते हुए नौकरी न देना उसके संवैधानिक अधिकारों को छीनना है।
नौकरी के विज्ञापन/नोटिस निकलने से लेकर फाइनल भर्ती होने तक का बीच का समय काफी लम्बा होता है। कुछ संस्थानों में तो यह समय तीन साल या उससे अधिक तक खिंच सकता है। नौकरी के विज्ञापन के समय भी नौकरी देने वाला संस्थान पेपर की तारीख या इंटरव्यू की तारीख का खुलासा नहीं करते हैं। ऐसे में महिलाओं का इतने लम्बे समय तक गर्भधारण न करना हमेशा संभव नहीं होता। उन्हें नौकरी या बच्चे में से एक चुनने विकल्प देना उनके मातृत्व अधिकारों और सामाजिक अधिकारों को प्राप्त करने में बाधा होता है।
शारीरिक स्थिति के कारण पीछे न रहे महिलाएं
कुछ वर्ष पहले पटना उच्च न्यायालय के जस्टिस ज्योति सरन ने अपने एक फैसले में कहा था कि गर्भावस्था समान नौकरी के अवसर के अधिकार में कोई बाधा नहीं है। जस्टिस सरन ने कहा था कि एक महिला की गर्भावस्था के कारण शारीरिक मूल्यांकन परीक्षण में उपस्थित होने में असमर्थता, रोजगार में समान अवसर के उसके अधिकार से समझौता नहीं होना चाहिए। जस्टिस सरन ने राज्य प्राधिकारियों से चयन प्रक्रिया के दौरान गर्भवती महिलाओं के लिए दिशानिर्देश तैयार करने का भी निर्देश दिया था ताकि वे केवल भर्ती के समय अपनी शारीरिक स्थिति के कारण शारीरिक परीक्षण में शामिल होने से वंचित न रह जाएं।
नौकरी में सभी सुविधाओं के लिए महिलाएं हकदार हैं
मातृत्व सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने का एक कदम है और समाज महिलाओं की इस शानदार भूमिका के लिए ऋणी है। यह संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) के तहत मान्यता प्राप्त अधिकार है। एक बार जब एक महिला उम्मीदवार एक विज्ञापन के जवाब में आवेदन करने से लेकर चयन प्रक्रिया में शामिल हुई, तो वह सुरक्षित मातृत्व के लिए, गर्भावस्था से पहले और बाद में भी सभी लाभों की हकदार है। इसी तरह का एक नियम देश के सबसे बड़े ऋणदाता भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) द्वारा लगभग दो वर्ष पूर्व लाया गया था, जिसमें यह कहा गया था कि नौकरी में भर्ती के समय तीन महीने से अधिक की गर्भावस्था वाली महिला उम्मीदवार को ‘अस्थायी रूप से अयोग्य’ माना जाएगा और वह प्रसव के बाद चार महीने के भीतर बैंक में शामिल हो सकती है।
इस के बाद इंडियन बैंक ने भी इसी प्रकार का एक नियम बनाया। लेकिन बाद में इन नियमों के खिलाफ बहुत से सामाजिक कार्यकर्ताओं और संस्थानों ने विरोध किया। परिणामस्वरूप बैंकों को अपने ये नियम वापस लेने पड़े। किसी महिला पर बच्चे को जन्म देने और रोजगार के बीच चयन करने के लिए दबाव नहीं डाला जा सकता क्योंकि यह उसके प्रजनन अधिकारों और रोजगार के अधिकार दोनों में हस्तक्षेप करता है। इस तरह की कार्रवाई के लिए वर्तमान आधुनिक युग में कोई जगह नहीं हो सकती है। गर्भावस्था को महिलाओं के खिलाफ बीमारी/विकलांगता मानकर इस तरह के नियम महिलाओं के खिलाफ भेदभाव करते हैं।
गर्भावस्था के दौरान महिलाओं के रोजगार अधिकार
उत्तराखंड उच्च न्यायालय का यह फैसला यह सुनिश्चित करता है कि गर्भावस्था अब सरकारी भूमिकाओं में महिलाओं के रोजगार में बाधा नहीं है, जो लैंगिक समानता के दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। टाइम्स ऑफ़ इंडिया के एक लेख अनुसार आलेख फाउंडेशन की संस्थापक डॉ. रेनी जॉय लैंगिक समानता और मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के प्रतीक के रूप में उच्च न्यायालय के फैसले की प्रशंसा करती हैं। लेख के अनुसार वह इस बात पर जोर देती हैं कि यह आदेश सतत विकास लक्ष्यों, विशेष रूप से लैंगिक समानता पर एसडीजी-5 जैसे वैश्विक पहलों के अनुरूप है। यह फैसला इस सिद्धांत को कायम रखता है कि महिलाओं के प्रजनन विकल्पों को उनकी पेशेवर आकांक्षाओं में बाधा नहीं डालनी चाहिए, जिससे एक अधिक समावेशी समाज को बढ़ावा मिल सके।
समावेशी समाज सुनिश्चित करने की जरूरत
ऐसी दुनिया में जहां लिंग और गर्भावस्था के आधार पर भेदभाव अभी भी जारी है, यह फैसला सिर्फ एक कानूनी जीत नहीं है बल्कि एक नैतिक जीत भी है। यह इस सिद्धांत की पुष्टि करता है कि किसी भी व्यक्ति को उसकी शारीरिक स्थिति के कारण रोजगार के अवसरों से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। यह प्रणालीगत बाधाओं को दूर करने और सभी के लिए एक समावेशी और न्यायसंगत समाज को बढ़ावा देने की दिशा में एक कदम है। कार्यस्थल में निष्पक्षता और समान अवसर सुनिश्चित करने की दिशा में उत्तराखंड अदालत का यह निर्णय सही दिशा में एक कदम है, जो भावी पीढ़ियों के लिए एक सकारात्मक उदाहरण स्थापित करता है।
महिलाओं के अंदर कई जिम्मेदारियों को संतुलित करने की क्षमता होती है। महिलाएं अपने गर्भावस्था में भी अपने सभी कार्य बखूबी कर सकती हैं। गर्भावस्था में नौकरी से परहेज महिलाएं सिर्फ तभी करती हैं जब इस कारण से महिला बीमार हैं या डॉक्टर ने पूरी तरह आराम करने का सलाह दिया है। समाज को भी बिना किसी भेदभाव के महिलाओं के इस योगदान को स्वीकार करना चाहिए और महिलाओं का समर्थन करना चाहिए। सरकारी और निजी संस्थानों में आज भी इस बात पर भेदभाव कायम है। क्या यह फैसला उन सभी महिलाओं के लिए एक रोशनी होगा जो गर्भावस्था में नौकरी के लिए संस्थानों का रुख करती हैं?