साल 2016 में आई बॉलीवुड फिल्म ‘सनम तेरी कसम’ की मुख्य किरदार सरस्वती यानी सुरू बहुत साधारण सी लड़की है। उसकी लंबी चोटी है और आंखों पर बड़ा सा चश्मा। अपने इसी पहनावे के कारण फिल्म में उसकी शादी के लिए लड़का मिलने में दिक्कत होती है। फिर कहानी में एक टिवस्ट आता है- ‘मेकओवर ट्रोप।’ इसके बाद सीधी-सादी सरस्वती ‘मॉर्डन और अट्रैक्टिव’ बन जाती है। इसके बाद उसे आईआईटी से पासआउट लड़का और हीरो का प्यार सब मिलता है। ठीक इसी तरह की कई फिल्मों की कहानियां आपके दिमाग में ताज़ा हो गई होंगी। होंगी भी क्यों न क्योंकि ये बॉलीवुड की फिल्मों का बरसों पुराना घिसा-पिटा प्लॉट है जो आज भी हिट है। इसके तहत समाज में स्त्रीद्वेष की जड़ों को सींचा जा रहा है।
आज भले ही महिला प्रधान फिल्में बन रही हो लेकिन महिलाओं के प्रति रूढ़िवादी सोच को बढ़ावा देने में बॉलीवुड की फिल्में कभी पीछे नहीं रही हैं। खुद को प्रगतिशील बतानेवाली इंडस्ट्री फिल्मों में स्क्रीन पर महिलाओं को ऑब्जेक्टिफाई करने में हमेशा आगे रही है। महिला किरदारों के लिए हमेशा ही स्टीरियोटाइप फ्रेम का इस्तेमाल करती है। महिलाओं की सुंदरता, रंग, आकर्षण, रिश्ते और प्यार में कई तरह के प्रॉब्लमैटिक पहलूओं का इस्तेमाल किया जाता है। ‘लड़की की चुप्पी में हां है, सुंदरता ही लड़कियाें का गहना है, लड़कियों के लिए सजना और संवरना बहुत जरूरी है और ‘सुंदर’ लड़कियां ही प्यार और रिश्ते के काबिल होती हैं।’ भारतीय सिनेमा जिस सोच को बढ़ावा देती दिखती है असल ज़िंदगी में भी पितृसत्तात्मक समाज में ‘साधारण’ मानी जानेवाली महिलाओं के लिए एक बहुत बड़ी समस्या है।
भारतीय सिनेमा जगत में ऐसी कहानियों की एक लंबी फेहरिस्त है जहां हीरोइनों को शुरुआत में नफरत, तिरस्कार और कमतर इसलिए माना जाता है क्योंकि वे दिखने में वैसी नहीं होती, जैसी पुरुषों के बनाए मापदंड हैं। अगर उसे हीरो का प्यार और एक्सेप्टेंस चाहिए है तो उसे खुद को बदलना ही पड़ता है।
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क्या है मेकओवर ट्रोप?
इंटरनेट पर मेकओवर ट्रोप क्या है सर्च करते हुए जो निकला है उसका सार यह है कि ‘बदसूरती को सुंदरता’ में बदलना। सीधे शब्दों में कहे तो अगर कोई बाज़ार और पितृसत्ता के सुंदरता के पैमानों पर खरा नहीं उतरता है तो वह दिखने में ‘सुंदर’ नहीं है। उसी ‘बदसूरती’ को बदलने के लिए मेकओवर ट्रोप का सहारा लिया जाता है। मेकओवर ट्रोप आपके व्यक्तित्व में स्थायी परिवर्तन लाता है। फिल्मों में इस बात को प्रचारित करने के लिए कहानियों में मेकओवर के अच्छे परिणाम भी दिखते हैं। जैसे ही हीरोइन का मेकओवर होता है तो हीरोइन की जिंदगी प्यार से भर जाती है।
हीरो की एक्सेप्टेंस के लिए मेकओवर
फिल्मों में काली, सांवली, साधारण लुक और साधारण कपड़ो वाली लड़कियों का मज़ाक बनता हमेशा से दिखाया जाता रहा है। उनके प्रति हीरो की नफरत दिखाई जाती है। अगर हीरोइन दिखने में ‘सुंदर’ नहीं है, आकर्षक नहीं है तो हीरो का प्यार मिलना ‘नामुमकिन’ माना जाता है। इसके बाद हीरोइन का मेकओवर होता है, जिसके बाद उसका बदला रूप हीरो को भाता है, वह उससे प्यार करता है। महज रंग-रूप में बदलाव के कारण फिल्मों में हीरोइन को प्यार मिल जाता है। बॉलीवुड की फिल्मों में यह प्लॉट लंबे समय से चलता आ रहा है।
साल 1986 में रिलीज हुई ‘नसीब अपना अपना’ की हीरोइन की ढेड़ी चोटी तो आपको याद ही होगी। यह सिर्फ पुराने दौर की बात नहीं है। आज भी यह सिलसिला चल रहा है। ‘कल हो ना हो’ की प्रीती जिंटा का किरदार नैना की कहानी भी ऐसी ही है। ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं है कंगना रनौत की सुपरहिट फिल्म ‘क्वीन’ भी तो इसी बात को दोहराती है। जैसे ही कंगना बनी रानी का पहनावा, स्टाइल बदलता है उसके मंगेतर को उससे प्यार हो जाता है, जिसने पहले उससे शादी तोड़ दी थी।
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भारतीय सिनेमा जगत में ऐसी कहानियों की एक लंबी फेहरिस्त है जहां हीरोइनों को शुरुआत में नफरत, तिरस्कार और कमतर इसलिए माना जाता है क्योंकि वे दिखने में वैसी नहीं होती, जैसी पुरुषों के बनाए मापदंड हैं। अगर उसे हीरो का प्यार और एक्सेप्टेंस चाहिए है तो उसे खुद को बदलना ही पड़ता है। रातों-रात कपड़े बदलकर, मेकअप लगाकर प्यार पाने के इस फॉर्मूला में किसी भी तरह की कोई विश्वसनीयता नहीं है। मगर फिल्में इस बात का सुझाव देती नजर आती हैं कि यदि लड़कियों को शादी करनी है, जीवन में प्यार चाहिए तो उन्हें अपना वार्डरोब अपने कपड़े पहनने के तरीके में बदलाव करने की बहुत ज़रूरत है।
फिल्मों में मेकओवर ट्रोप के जरिये पितृसत्ता, बाज़ारवाद के ब्यूटी स्टैंडर्ड्स को बढ़ावा सबसे ज्यादा दिया जाता है। मेकओवर से पहले लड़की को स्वीकारने में हिचकिचाहट न केवल सुंदरता के दोहरे मांपदंड को बढ़ावा देती है बल्कि महिलाओं की स्वायत्ता को खत्म करने के विचार को भी बढ़ाती है। फिल्मों में कहानी को कहने के लिए इस्तेमाल मेकओवर ट्रोप यह भी कहता है कि लड़कियों को हमेशा लड़के उसके परिवारवालों की पसंद के मुताबिक चलना है। फिल्मों की कहानियों में ये सब दिखाना उनके प्रेम जीवन में नियंत्रण का भी संदेश देता है। कपड़ों के साथ उनकी सहजता, पसंद कोई मायने नहीं रखती है। इस बात के अलावा उनके चुनाव के विकल्पों को भी नियंत्रित करती है। मेकओवर से पहले लड़की को कबूल नहीं करना इन्हीं बातों का सार है।
स्टीरियोटाइप सोच को बढ़ावा देती फिल्में
फिल्में बड़ी आसानी से ऐसी बातें लोगों के मन में बैठाने में कामयाब होती है। महिलाओं को पुरुषों के लिए आकर्षण दिखना जरूरी है। मगर फिल्मों का यह तरीका सीधे तौर पर समाज में महिलाओं के प्रति टॉक्सिक विचारों को फैलाने का काम करता है। इस तरह के विचार एक साथी की गलत अपेक्षाओं को बढ़ावा देते हैं। मानव शरीर की विभिन्नता रंग, रूप और नस्ल को दबाने का काम करते है। रूढ़िवादी सुंदरता के पैमानों को बढ़ावा देते हैं। भारतीय सिनेमा ने समाज में बेहद गलत ब्यूटी स्टैंडर्ड्स को सेट करने का काम किया है।
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फिल्मों में काली, सांवली, साधारण लुक और साधारण कपड़ो वाली लड़कियों का मज़ाक बनता हमेशा से दिखाया जाता रहा है। उनके प्रति हीरो की नफरत दिखाई जाती है। अगर हीरोइन दिखने में ‘सुंदर’ नहीं है, आकर्षक नहीं है तो हीरो का प्यार मिलना ‘नामुमकिन’ माना जाता है। इसके बाद हीरोइन का मेकओवर होता है, जिसके बाद उसका बदला रूप हीरो को भाता है, वह उससे प्यार करता है।
मेकओवर फॉर्मूले की अन्य फिल्में
इन बातों को हमनें अलग-अलग समय की अलग-अलग फिल्मों में सही होते देखा है। 90 के दशक की सुपरहिट फिल्म ‘कुछ-कुछ होता है’ इसी फॉर्मूल पर बनी एक बेहद चर्चित फिल्म है। 1998 में रिलीज हुई ‘कुछ-कुछ होता है’ में मेकओवर ट्रोप जैसी प्रॉब्लमैटिक बात को बढ़ावा दिया गया है। दो दशक से चर्चित इस फिल्म में काजोल के किरदार को तब तक प्यार के काबिल नहीं माना गया जब तक उनके किरदार अंजलि के लंबे घने बालों को पर्दे पर लहराता नहीं दिखाया गया। एक और हिट फिल्म ‘मैं हूं ना’ ने भी इसी फॉर्मूले को दोहराया गया। फिल्मों में साफ-साफ यह संदेश दिया जाता आ रहा है कि वाडरोब बदलो, स्टाइलिश बनो और सपनों का राजकुमार आपको मिल जाएगा। फिल्मों में प्यार की भावनाओं को पाने के लिए व्यवहार का कोई महत्व नहीं है, कपड़े मायने रखते हैं। यह कहने की कोशिश लगातार बार-बार की जाती है।
साल 2004 में रिलीज हुई मैं हूं ना में संजना के किरदार में अमृता राव के मेकओवर के बाद ही दोस्ती को प्यार में बदलते देखा गया। अमृता राव के पारंपरिक पहनावे, लंबे बालों के बाद उन्हें फिल्म के हीरो से न केवल अंटेशन मिली बल्कि वह उससे प्यार भी करने लगा। कुछ-कुछ होता है और मैं हूं ना जैसी लोकप्रिय फिल्मों में कॉलेज में उन लड़कियों को ही सुंदर और प्यार के लिए एक्सपेटेबल बताया जो उन पैमानों पर खरा उतरती हो जो पुरुषों द्वारा बनाए गए हैं।
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इसी कड़ी में 2013 में रिलीज हुई ‘ये जवानी है दीवानी’ अगला नाम है। जहां फिल्म में अदिति और नैना के किरदारों को जब तक प्यार और लड़की के तौर पर एक्सपेटेंस नहीं दी गई जब तक वह टॉम ब्याय लुक में थी। अदिति के रोल में काल्कि को एक डॉयलाग में लड़की मानने तक इनकार सिर्फ इसलिए किया गया क्योंकि वह जींस, टीशर्ट और गले में हेडफोन डाले घूमती है। वहीं, नैना के किरदार में दीपिका पादुकोण के ट्रांसफॉरमेशन के बाद फिल्म के हीरो की नज़र में वह आती है। फिल्मों में रोमांस के आईडियो को हमेशा सुंदरता से जोड़ा गया है।
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चश्मा यानी मेकओवर की ज़रूरत
“चश्मा लगा है लड़की की शादी में परेशानी होगी,” यह बात समाज में जितनी आम है उतनी ही फिल्मों में भी आम है। भारतीय सिनेमा इस तरह की सोच को बार-बार दोहराता रहता है। ‘ये जवानी है दीवानी’ की नैना को कम आकर्षक दिखाने के लिए चश्मे को टारगेट किया गया। उसी तरह ‘कल हो ना हो’ में भी प्रीति जिंटा के किरदार के साथ भी यही बात दिखाई गई। यह कहा गया कि वह तभी सुंदर लगती है जब चश्मा नहीं लगाती है।
भारतीय सिनेमा में मेकओवर के बाद रोमांस के प्लॉट को लगातार दोहराना ऐसे विचारों को समाज में कायम रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। फिल्मों में इस तरह मेलगेज को बढ़ावा दिया जाता है। महिलाओं का सजना-संवरना भी सिर्फ पुरुषों के लिए ही होता है। फिल्मों में इस तरह की बातें युवाओं के मन में खासतौर पर गहरा प्रभाव डालती है। उनके मन में ऐसे भावनाओं को पैदा करने का काम करती है कि पुरुष व महिला का व्यवहार इस तरह के पैमानों में बंटा हुआ होना चाहिए।
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