FII Inside News 2021 के 21 बेहतरीन नारीवादी लेख, जिन्हें आपने सबसे ज़्यादा पसंद किया

2021 के 21 बेहतरीन नारीवादी लेख, जिन्हें आपने सबसे ज़्यादा पसंद किया

साल 2021 बस खत्म होने को है। हर साल की तरह इस साल भी हम आपके लिए लेकर आए हैं उन लेखों की सूची जिन्हें आपने सबसे ज्यादा पसंद किया और पढ़ा।

1. एक आदिवासी लड़की का बस्तर से बड़े शहर आकर पढ़ाई करने का संघर्ष – ज्योति

मेरी प्राथमिक स्तर तक की शिक्षा एक जनजाति आश्रम में हुई हैं। एक बार दीवाली की छुट्टी में जब हॉस्टल जाना हुआ तब हॉस्टल में बाकी बच्चों के नहीं आने के कारण हमें अपने हॉस्टल के चौकीदार के यहां रुकना पड़ा। उनकी पत्नी को जब पता चला कि मैं एक आदिवासी लड़की हूं उन्होंने ना सिर्फ अपने पति से लड़ाई की बल्कि मुझे भद्दी गालियां दीं। अलग थाली में खाना देकर मुझसे धुलवाया, मुझे ज़मीन पर सुलाया गया। यह मेरा पहला अनुभव था जहां आदिवासी होने पर मुझे हीन महसूस करवाया गया था। जब हम मां के साथ शहर आए तो हमें अच्छी शिक्षा के लिए संघ के स्कूल में भेजा गया। यहां पर हमने सबसे अधिक मानसिक तनाव झेला। हमारी टीचर से लेकर क्लासमेट तक हमसे दूरी बनाकर रखते। कुछ समझने में दिक्कत होती तो हमें कहा जाता, “आदिवासी कबसे सीखने समझने लगें।” कभी-कभी हमारे क्लासमेट्स हमसे नक्सलियों के बारे में पूछते,”क्या तुम उन्हीं के बीच से आए हो और क्या वे तुम्हारी तरह दिखते हैं?”

2. जब मेरे पैदा होने पर झूठ बोला गया था, “लड़का हुआ है” – शिखा सर्वेश

“लड़का हुआ है।” यही झूठ बोला गया था मेरी दादी से मेरे पैदा होते ही। ऐसा इसलिए क्योंकि एक और लड़की के पैदा होने से मेरे पापा की पूरी कमाई लुट जाती और समाज में वह मुंह दिखाने लायक नहीं रहते। पापा, यही सोचती थी न दादी? इसी डर से तुमने उन्हें नहीं बताया न कि लड़का पैदा हुई है या लड़की? जब उन्हें नर्स ने बताया लड़का नहीं लड़की हुई है तो उन्होंने जो छाती पीट-पीट कर वहां बवाल किया था वह आपको अच्छे से याद होगा। यह कुछ सालों बाद आपने ही मुझे बताया था जब मैंने आपसे पूछा था, “दादी मुझसे इतना चिढ़ती क्यों हैं।” मेरे पैदा होते ही मेरी दादी रो पड़ी और तीन दिनों तक उन्होंने खाना नहीं खाया था। पापा तीन भाइयों और एक बहनों में सबसे छोटे थे। उनके सभी भाई-बहनों को सिर्फ लड़के ही थे लेकिन मेरे पापा पर दो बेटियां बड़ा बोझ हो गई थी। दीदी के होने तक तो फिर भी ठीक था लेकिन मेरे होते ही जैसे पापा का जैसे सब कुछ लूट लिया गया हो। मेरे बाद जब दादी को पोता मिल गया तब जाकर उन्हें मेरी मां से कुछ शिकायतें कम हुईं पर पिता जी का दो बेटियों की वजह से सब लुट जाने का ताना कभी खत्म नहीं हुआ।

3. जल-जंगल-ज़मीन के मुद्दे को ताक पर रखता आदिवासी इलाकों में ‘इको-टूरिज़्म’ – ज्योति

आदिवासियों के नाम पर उनके आर्थिक विकास के लिए अनेक योजनाएं लाई जाती हैं लेकिन उनके संचालन का जिम्मा इन्हें नहीं दिया जाता। आदिवासी बस पर्यटकों के मनोरंजन के पात्र होते हैं। इनके लिए अपनी नृत्य कला प्रस्तुत करेंगे और आख़िर में उनके फैलाए कचरे को समेटेंगे। छत्तीसगढ़ के सभी आदिवासी बहुल इलाकों में ऐसे कई एथनिक रिजॉर्ट बनाए गए हैं जिसमें आदिवासियों के हिस्से वहां चौकीदारी तो दूर की बात, सिर्फ साफ़-सफ़ाई ही उनके हिस्से आती है। उन्हें स्वामित्व का अधिकार कभी नहीं दिया जाता। कई ऐसे रिजॉर्ट हैं जहां ओनर से लेकर गार्ड तक किसी बाहरी को ही बनाया गया है।

4. आईआईटी खड़गपुर की प्रोफेसर सीमा सिंह के बहाने बात अकादमिक दुनिया में मौजूद जातिवाद पर – ऐश्वर्य अमृत विजय राज

ये देश के बड़े शिक्षण संस्थानों और अकादमिक जगत में सवर्णों द्वारा अक़्सर दिखाया गया खतरनाक दोहरा व्यवहार ही है कि सीमा सिंह ने जातिगत भेदभाव पर एक रिसर्च पेपर पब्लिश किया है। अपने पेपर में बताती हैं कि कैसे क्लासरूम को समावेशी होने की जरूरत है क्योंकि समाज में जातिगत, आर्थिक, नस्लीय और लैंगिक भेदभाव मौजूद है। अपने पेपर में वह लिखती हैं कि शिक्षा हासिल करने की क्रिया में आलोचनात्मक होना ज़रूरी है, और ये पूछना कि आसपास या अकेडमिया में जो भी हो रहा है वह किसके हित में हो रहा है। सोशल मीडिया पर सक्रिय कई दलित, बहुजन समुदाय से जुड़े अकाउंट्स ने सीमा सिंह के इस मामले को एक पैटर्न बताया है। उन्होंने लिखा है कि इस तरह के रिसर्च पेपर लिखने वाली एक सवर्ण स्त्री कैसे भूल जाती है कि क्लासरूम एक कम्यूनिटी है, प्रोफेशनल और अकादमिक जगत में एक विशेष स्थान पर पहुंच कर, एक विशेष तरह की बुद्धिजीवी भाषा सीखकर उच्च जाति के लोग जाति आधारित शोषण पर लिखते हैं और नाम, कमाते हैं लेकिन अपने निज़ी जीवन में वे प्रगतिशील नहीं होते, निज़ी जीवन में उनका यह ढोंग खंडित हो जाता है। ठीक ऐसा ही कुछ हमें सीमा सिंह के केस में देखने मिलता है।

5. कर्णन : दलितों के संघर्ष पर उनके नज़रिये से बनी एक शानदार फिल्म – आशिका शिवांगी सिंह

आर्टिकल 15, मैडम चीफ़ मिनिस्टर, इन फिल्मों से आप परिचित होंगे। जाति के मुद्दों पर बनी ये दोनों हिंदी फिल्में इसी जाति व्यवस्था द्वारा शीर्ष पर बिठाए गए लोगों की नज़र से थीं। एक सवर्ण दलितों के मुद्दों को कैसे देख रहा है? ये फिल्में बस उतना ही विचार समेटे हुए थीं लेकिन मैं आज बात करना चाहती हूं कर्णन फ़िल्म को लेकर। कर्णन मारी सेल्वाराज द्वारा निर्देशित तमिल फिल्म है जिसे फिलहाल इंग्लिश सबटाइटल्स के साथ देखना ही मुमकिन है। हालांकि फिल्म देखते हुए भाषा की ज़रूरत भी महसूस होना बंद हो जाती है क्योंकि सभी कलाकारों का अभिनय ख़ुद भाषा का निर्माण कर रहा है। धनुष ने कर्णन का मुख्य किरदार निभाया है। फिल्म तमिलनाडु के थूठुकुदी ज़िला के कोडियांकुलम गांव में 1995 में हुई जातीय हिंसा से प्रेरित लगती है।

6. शादी पर मलाला के एक बयान से क्यों तिलमिला गया पितृसत्तात्मक समाज – पूजा राठी

मलाला युसुफज़ई वोग मैगजीन के जुलाई अंक के कवर पेज पर हैं जिसमें सीरीन काले ने उनका इंटरव्यू लिया है। दुनिया, राजनीति, शिक्षा, निजी जिंदगी और भविष्य पर उन्होंने ने अपनी राय जाहिर की है। इसी इंटरव्यू में उन्होंने शादी को लेकर अपने मन की एक बात कही जो लोगों को नागवार गुज़री। पाकिस्तान समेत जहां दुनिया भर में वोग के कवर पेज की सराहना हो रही है। वहीं, इस पर पितृसत्तात्मक रूढ़िवादी सोच के लोगों ने हंगामा मचा दिया है। मलाला का कहना है, “मुझे यह समझ नहीं आता कि लोग शादी क्यों करते हैं। अगर आप जीवनसाथी चाहते हैं, तो आपको शादी के कागजों पर हस्ताक्षर क्यों करने है?” एक पित्तृसत्तात्मक समाज में लड़की जब-जब अपनी पसंद जाहिर करती है और सामाजिक ढ़ाचों पर सवाल करती है तब पुरुष सत्ता उस पर ऐसे ही वार करती है।

7. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की दुनिया भी महिलाओं को उसी पितृसत्तात्मक नज़रिये से देखती है – मालविका धर

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की दुनिया में भी पुरुषों के बोलबाले के कारण जिन कामों में सौहार्द, धैर्य, कोमलता या शिष्टाचार की उम्मीद की जाती है, उन्हें महिलाओं से जोड़ लेने में सहूलियत होती है। महिलाओं के प्रति यह पूर्वाग्रह और AI की दुनिया में महिलाओं का अस्वाभाविक रूप से कम संख्या में नेतृत्व करना आने वाले दिनों में खतरनाक साबित हो सकता है। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (UNESCO) के मुताबिक एआई सिस्टम के डिज़ाइन, विकास और परिनियोजन में महिलाओं का भाग लेना और नेतृत्व करना आज बेहद ज़रूरी हो गया है। UNESCO के अनुसार साक्ष्यों से पता चलता है कि साल 2022 तक, महिलाओं के प्रति इस पूर्वाग्रह के वजह से एआई परियोजनाएं 85 फीसद तक गलत परिणाम दे सकती हैं।

8. सेम सेक्स विवाह की राजनीति को समझना ज़रूरी है – धर्मेश

हाल ही में केंद्र ने दिल्ली हाई कोर्ट में कहा है कि समलैंगिक विवाह यानि सेम सेक्स विवाह को इसलिए मान्यता नहीं दी जा सकती क्योंकि यह भारतीय समाज की परिवार की समझ और पहचान के ख़िलाफ़ है। केंद्र सरकार के वकील सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने यह भी कहा कि विवाह एक ‘बायोलॉजिकल’ मेल और ‘बायोलॉजिकल’ फ़ीमेल के बीच होने वाला संबंध है। यहां बायोलॉजी के नाम पर ट्रांसजेंडर विरोधी हिंसा को सामान्य करने पर ध्यान दिए जाना ज़रूरी है। ये बातें स्पेशल मैरिज एक्ट और हिन्दू मैरिज एक्ट में संशोधन को लेकर दाखिल किए गए पेटिशन के जवाब में कही गईं थीं। एक तरह से देखे तो सॉलिसिटर जनरल की बात बिल्कुल सही है। हिन्दू धर्म में शादी ना केवल स्त्री पुरुष के बीच बच्चे पैदा करने के लिए होती है बल्कि जाति की पुनरावृत्ति के लिए भी होता है। साथ ही अगर हम इसे पूंजीवादी संस्था में देखे तो इसका एक उद्देश्य पूंजी की व्यवस्था की पुनरावृत्ति भी है। इन बातों को ध्यान रखते हुए हमें यह भी सोचने की ज़रूरत है कि क्या क्वीयर समुदाय को विवाह का अधिकार देना ही लोकतंत्र और समानता की अगली सीढ़ी है?

9. बात विश्वविद्यालयों में होनेवाली डिबेट में मौजूद पितृसत्ता और प्रिविलेज की – गायत्री यादव

दरअसल, विश्वविद्यालय किसी भी समाज की वैचारिकी-निर्माण प्रक्रिया के प्रमुख संस्थान होते हैं। मशहूर लिटरेरी क्रिटिक टेरी ईगलटन कहते हैं कि विश्वविद्यालय की भूमिका न्याय, परंपरा, मानव कल्याण, स्वतंत्र चिंतन और भविष्य को लेकर एक वैकल्पिक दृष्टि खोजने की होनी चाहिए, यथास्थितिवाद को संरक्षित करना उनका उद्देश्य नहीं होना चाहिए। इस प्रकार विश्वविद्यालय में होने वाली बहसों और टीवी पर होने वाली बहसों में एक बड़ा और महत्वपूर्ण अंतर होता है। विश्वविद्यालयों की बहसों में समाज की अलग-अलग परतों के अध्ययन और अनुभवों का आलोचनात्मक चिंतन किया जाता है और एक बेहतर निष्कर्ष की ओर जाना निहित मूल्य होता है। यह संस्कृति असल में इस संभावना को बचाकर रखती है कि समाज में एक वृहद बदलाव लाया जा सकता है।

10. आर्थिक हिंसा : पुरुष द्वारा महिलाओं पर वर्चस्व स्थापित करने का एक और तरीका – मासूम क़मर

महिलाओं के साथ किया जाने वाला दुर्व्यवहार शारीरिक, यौन, मानसिक, आर्थिक किसी भी प्रकार का हो सकता है। आज के समय में शारीरिक के साथ- साथ आर्थिक हिंसा भी महिलाओं के जीवन को भयावह बनाए हुए है। यह सच है कि पैसा मनुष्य को पूरी तरीके से खुश नहीं करता है लेकिन यह भी सच है कि पैसे के बिना कुछ भी संभव नहीं है। इसलिए, आर्थिक शोषण नियंत्रण का सबसे बड़ा रूप है। दुर्व्यवहार करने वाले व्यक्ति द्वारा औरतों के पैसे और अन्य संसाधनों, जैसे भोजन, कपड़े, परिवहन और रहने की जगह तक पहुंच को प्रतिबंधित करना और उसका शोषण करना आर्थिक शोषण कहलाता है। यह वास्तव में किसी की स्वतंत्रता को सीमित करके उसे अपने ऊपर निर्भर बनाना होता है। 

11. डोम समाज की महिलाएं जो ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक मीडिया के लिए आज भी हैं ‘अछूत’ – मीना कोटवाल

दलित-आदिवासियों की तथाकथित आवाज़ कहने वाले कई मीडिया संस्थान में भी इनके मुद्दों को नहीं उठाया जाता। इस वाक्ये पर हैरान होने से ज्यादा चिंता होनी चाहिए कि क्यों इस समाज को मीडिया ने अछूत बनाकर रखा, जिनका दर्द उन्हें दिखाई नहीं दिया। इनके मुद्दों से ना मीडिया को मतलब रहा ना, ना समाज को और ना ही सरकार को। कवरेज के दौरान डोम जाति की एक महिला से बातचीत में उन्होंने बताया था, “हम सड़क किनारे ही रहते हैं। इसी सड़क से कई रैलियां निकलती हैं। इसी सड़क पर कई वादे करते हुए नेता आते-जाते हैं, जोर-जोर से नारे लगते हैं लेकिन सड़क किनारे रह रहे हम उन्हें दिखाई नहीं देते। ना वे यहां वोट मांगने आते हैं और ना हम से हमारी समस्या पूछने। किसी को हमसे कोई मतलब ही नहीं होता। यहां तक कि हमारा पहचान पत्र (वोटर आईकार्ड) भी नहीं बना है। कोरोना में सबको राशन बंटा लेकिन हम तक तो राशन भी नहीं पहुंचा।”

12. नारी गुंजन सरगम बैंड : पितृसत्ता को चुनौती देता बिहार की दलित महिलाओं का यह बैंड – प्रगति

शादी और दूसरे समाराहों में आपने अक्सर पुरुषों के समूह को बैंड बजाते हुए देखा होगा लेकिन इसे चुनौती दी है नारी गुंजन सरगम बैंड की औरतों ने। नारी गुंजन सरगम बैंड कुल दस औरतों का समूह है और ये सारी औरतें दलित समुदाय से आती हैं। इसमें लालती देवी, मालती देवी, डोमनी देवी, सोना देवी, वीजान्ती देवी, अनीता देवी, सावित्री देवी, पंचम देवी, सविता देवी और छठिया देवी शामिल हैं। ये औरतें ना केवल शानदार सरगम बजाती हैं बल्कि अनेक कार्यक्रमों में अपनी कला का बखूबी प्रदर्शन करके बिहार को भी गौरवान्वित कर रही हैं। बड़े शहरों की औरतों के लिए इस समाज में अपना अस्तित्व ढूंढना फिर भी थोड़ा आसान होता है। लेकिन एक छोटे से गांव के छोटे से तबके के दलित समुदाय की औरतों के लिए ये कितना कठिन होगा, शायद इसका हम अंदाजा भी नहीं लगा सकते।

13. महिलाओं के प्रति रूढ़िवादी मानसिकता और यौन हिंसा को बढ़ावा देते प्रैंक वीडियो – मुसकान

यूट्यूब और फेसबुक पर प्रैंक खासकर ‘गोल्ड डिगर प्रैंक’ के नाम से कई सारे वीडियो की भरमार है। ये वीडियो स्क्रिपटेड और अनस्क्रिपटेड दोनों होते हैं। ज्यादातर गोल्ड डिगर प्रैंक स्क्रिपटेड होते हैं लेकिन यह ज़रूरी नहींं कि वीडियो देखनेवाले को यह पता चगे। गोल्ड डिगर प्रैंक में अक्सर यही दिखाया जाता है कि लड़की अच्छी गाड़ी और आइफोन या महंगी चीज़ें देखकर कुछ भी करने को तैयार हो जाती है लेकिन बाद में लड़के उन्हें गोल्ड डिगर या उल्टा-सीधा बोलकर दुतकारते हुए चले जाते हैं। वहीं, दूसरी ओर अनस्क्रिपटेड प्रैंक वीडियो में किसी भी लड़की को कहीं भी कुछ भी बोल देना, हाथ लगा देना और बाद में कैमरा दिखा देना। सिर्फ इतना ही नहींं, इन वीडियोज़ में कई बार बात हैरेसमेंट तक पहुंच जाती है। इस तरह के प्रैंक वीडियो यूट्यूब पर हजारों की संख्या में हैं जिसे देखनेवालों की संख्या में कोई कमी नहींं है। इन वीडियोज़ को बकायदा लाखों-लाख लोग देखते हैं। इन वीडियोज़ का कॉन्टेंट ऐसा होता है जिसे देखकर आपको गुस्सा आना चाहिए आपको आपत्ति होनी चाहिए। लेकिन एक हंसी वाले म्यूजिक के ज़रिए उस बात को आसानी से प्रैंक के नाम पर टाल दिया जाता है।

14. कोविड-19 लॉकडाउन : पिंजरे में बंद है प्राइड मंथ और क्वीयर समुदाय की आज़ादी – ऋत्विक

वैश्विक जन-आंदोलनों के इतिहास में प्राइड मंथ एक विशेष महत्व रखता है। ग्रीनविच के स्टोनवॉल में पुलिस द्वारा क्वीयर समुदाय के ऊपर की गई हिंसा के विरुद्ध एलजीबीटी+ समुदाय ने संघर्ष किया। सबने अपने आत्मसम्मान और स्वाभिमान की कीमत को समझा और इस तरह प्राइड मंथ का चलन शुरू हुआ। एक क्वीयर व्यक्ति और अवध क्वीयर प्राइड कमिटी जो कि लखनऊ में प्राइड मंथ का आयोजन करवाती है, के सदस्य होने के कारण अपने निजी अनुभव के साथ भी हम ये कह सकते हैं कि प्राइड सिर्फ एक आनंद समारोह ही नहीं होता। उस सतरंगी झंडे के रंगों में हमारी संवेदनाएं, हमारा दर्द, हमारे सपने, हमारी उम्मीदें लहराती हैं। बजते हुए ढोल की आवाज़ में हम भुला देना चाहते सालभर के ताने जो गूंजते हैं हमारे अंदर। हम घरों से निकलकर आते हैं ताकि हमारी उड़ान देख कोई घायल पक्षी भी कोशिश करेगा हमारी तरह एक ऊंची उड़ान भरने की।

15. हमारा जातिवादी समाज किस हक से महिला खिलाड़ियों को ‘बेटी’ कहकर पुकारता है? – कीर्ति रावत

वंदना कटारिया, जो कि भारतीय महिला हॉकी टीम की खिलाड़ी हैं और जिन्होंने ओलंपिक में अपने हुनर का जलवा दिखाया है। इस पितृसत्तात्मक जातिवादी समाज में तमाम संघर्षों का सामना करते हुए उनकी उपलब्धियों के बाद सम्मान तो दूर, उनके परिवार को जातिवादी गालियों का सामना करना पड़ा। बीते बुधवार को टोक्यो ओलंपिक में भारतीय महिला हॉकी टीम के सेमीफाइनल में अर्जेंटीना से हारने के कुछ घंटों बाद ही, कथित रूप से उच्च जाति के दो पुरुषों ने हरिद्वार के रोशनाबाद गांव में वंदना कटारिया के घर के चक्कर लगाने शुरू कर दिए। 

16. कैसे फास्ट फैशन के लिए आपकी दीवानगी हमारी प्रकृति के लिए एक खतरा है – पारुल शर्मा

आपने कभी इस पर गौर फरमाया है कि जो कपड़े सेलिब्रिटीज पहनते हैं, वे इतनी जल्दी किफायती दामों में सबके लिए कैसे उपलब्ध हो जाते हैं। बता दें कि इस सिस्टम को फास्ट फैशन कहते हैं जो शुरू तो हुआ था पश्चिम में, लेकिन अब पूरी दुनिया में इसने अपनी जड़ें जमा ली हैं। इसमें लेटेस्ट लुक्स और सेलिब्रिटीज स्टाइल्स की नकल करके कम उत्पादन लागत पर बहुत तेज़ी से कपड़े बनाए जाते हैं यानी कि हर मौसम, हर सप्ताह, नया कलेक्शन। फास्ट फैशन शब्द का सबसे पहले उपयोग 1990 के दशक की शुरुआत में हुआ था। उस वक्त गारमेंट कंपनी ज़ारा नई-नई न्यूयॉर्क में आई ही थी जिसका मिशन गारमेंट को उत्पादन के 15 दिन के अंदर स्टोर में बेचे जाने के लिए उपलब्ध कराना था। इसे न्यूयॉर्क टाइम्स ने फास्ट फैशन नाम दिया था।

17. इज्ज़त घर : वे शौचालय महिला अधिकार की ज़रा भी इज़्ज़त नहीं कर पा रहे – रेणु गुप्ता

हमलोगों के परिवार में हमेशा से ही लड़कियों और महिलाओं को शर्म करना और मर्यादा में रहना सिखाया जाता है। यही वजह है कि हमारी मीडिया में भी महिलाओं को सुंदरता की मूरत जैसा दिखाया जाता है। महिलाओं को कभी मां तो कभी पत्नी जैसी अलग-अलग भूमिकाओं से उनके कर्तव्यों की भी खूब चर्चा और महिमामंडन किया जाता है लेकिन एक इंसान के तौर पर महिलाओं की ज़रूरतों को पूरा करने और उन्हें बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध करवाने से हमेशा हमारा समाज मुंह चुराता है। इन्हीं ज़रूरतों में से एक बुनियादी ज़रूरत है शौचालय। मौजूदा सरकार ने घर-घर शौचालय के लिए काफ़ी बड़ी योजना शुरू की। ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ घरों में इसकी वजह से शौचालय का निर्माण भी हुआ। सभी तो नहीं पर कुछ परिवारों ने इसका इस्तेमाल भी करना शुरू किया लेकिन इसके बावजूद ज़्यादातर परिवारों में महिलाओं की स्वच्छता का सवाल अभी भी जैसा का तैसा ही है।

18. पैटरनिटी लीव : जानें, क्या कहता है भारत का कानून – सोनाली खत्री

बच्चे का जन्म लेना हमारे भारतीय परिवारों में किसी त्योंहार से कम नहीं होता। शादी-ब्याह, बच्चे ये कुछ ऐसे मौके होते हैं जिनका हमारा समाज बहुत ज़ोर-शोर से स्वागत करता है। यह सब स्वाभाविक है और समझ आता है मगर समस्या शुरू होती है बच्चे के जन्म के बाद। आमतौर पर, हमारे देश में बच्चे के जन्म लेते ही पति और पत्नी के बीच काम का बंटवारा हो जाता है। जहां मां को बच्चे को पालने के काम में मशगूल करवा दिया जाता है, वहीं पिता को उस बच्चे और परिवार के लिए पैसा कमाने के लिए। इस पूरी व्यवस्था को हमारा समाज बिना ऊंगली उठाए काफी सदियों से निभा रहा है। मगर सवाल ये है कि क्या यह व्यवस्था ठीक है? जब बच्चा मां और बाप दोनों का है, तो फिर उसे पालने की, उसका ध्यान रखने की, उसे बड़ा करने की सारी ज़िम्मेदारी सिर्फ मां की क्यों है? बच्चे की देखरेख में पिता की ज़िम्मेदारी सिर्फ उसके लिए धन जोड़ने तक सीमित क्यों है और यहां पर ये बात गौर करने लायक है कि कामकाजी महिलाएं भी बच्चे पालती हैं। अगर वे ऐसा कर सकती हैं तो कामकाजी पुरुष ऐसा क्यों नहीं?

19. क्या किचन सिर्फ महिलाओं के लिए है – सुचेता चौरसिया

जनवरी 2021 में रिलीज़ हुई मलयाली फ़िल्म- ‘द ग्रेट इंडियन किचन’। देखने में जितनी सुंदर फ़िल्म है, उतनी ही झकझोर देने वाली भी। डायरेक्टर जीओ बेबी बताते हैं कि फिल्म के टाइटल में व्यंग्य है कि कैसे घर की इतनी मुख्य जगह भी महिलाओं के लिए जेल बन सकती है। फ़िल्म की मुख्य पात्र अपने पति और ससुर के लिए सुबह से शाम स्वादिष्ट खाना बनाती हैं। घर का हर काम करती हैं, वह भी अकेले। उसके ससुर उसे घर के लिए ‘शुभ’ बताते हैं। जब मुख्य पात्र से ये सब और सहन नहीं किया जाता, वह बस अपने पति का घर छोड़कर चली जाती है, कभी वापस न आने के लिए।

20. घरेलू हिंसा को रोकने के लिए पहले उसकी पहचान ज़रूरी है – नेहा

आठ साल का सोनू अपनी मां को अक्सर गाली देता है, जब उसकी मां उसे डांटती या मारती है तो वह ये कहता है, “पापा तो मारते हैं तब उनको नहीं कुछ कहती, हम तो सिर्फ़ गाली दिए।” यह पितृसत्तात्मक हिंसा ही है जो हमारे घर के लड़कों को बुरे मर्द और लड़कियों को सब कुछ सहने और चुप रहने वाली औरत के रूप में बड़ा करती है। जब एक घर में बच्चे अपने मां, बुआ, दीदी या किसी भी महिला के साथ हिंसा को देखते हुए बड़े होते हैं तो उनको ये सब सामान्य लगने लगता है। लड़के ये सोचने लगते हैं कि महिलाओं पर हिंसा करना उनका हक़ है, जिससे वे असली मर्द कहलाते हैं।

21. द ग्रेट इंडियन किचन : घर के चूल्हे में झोंक दी गई औरतों की कहानी – गायत्री

इस साल रीलीज़ हुई मलयालम फ़िल्म ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ में समाज द्वारा पुरुषों की इसी साज़िश के अंश दिखाए गए हैं। यह फ़िल्म आम भारतीय घरों की औरतों के रोज़मर्रा के जीवन की असलियत के महीन परतों को उधेड़कर सामने रखती है। यह दिखाती है कि उनका कोई सामाजिक परिवेश नहीं होता, घरों की चारदीवारी के भीतर ही उन्हें अपनी दुनिया बनानी होती है और उनका ‘सेल्फ’ हमेशा पुरुषों के बाद आता है। इस मुद्दे के सभी पहलुओं को इतनी सशक्तता से दिखाने वाली निश्चित तौर पर यह पहली भारतीय फ़िल्म होगी। फिल्म में किचन से लेकर बिस्तर और आंगन तक घटने वाली घटनाओं में पुरुषों की ‘हिपोक्रेसी’ और क्रूरता को इतने साफ तौर पर दिखाया गया है कि महसूस होता है, मानो फ़िल्म नहीं, कोई भारतीय घर ही है, जहां ये सब कुछ हमारी आंखों के सामने घट रहा है। इस फ़िल्म का टाइटल अपने आप में बहुत प्रभावी है― ‘द ग्रेट इंडियन किचन’, यह व्यंग्य है, महान भारत की कथित महान परंपराओं पर, जिनके अनुसार औरतें देवी का रूप हैं, पूज्य हैं, लेकिन उनकी महानता चूल्हों पर पतीली रखने और खाने की मेज़ पर पुरुषों द्वारा गिराया जूठन उठाने में है। यही उनका कर्तव्य है, यही धर्म है। अगर वे कुछ बोलने या अपने कर्तव्य से विमुख होने का ‘दुस्साहस’ करती हैं तो उनके जलाए चूल्हे की लपटें उन्हें खा जाएंगी और इस तरह इस महान देश की औरत आग में जलकर अंततः ‘पवित्र’ हो जाएगी।

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