साल 2023 बस खत्म होने को है। हर साल की तरह इस साल भी फेमिनिज़म इन इंडिया आपके लिए लेकर आया है उन बेहतरीन 23 लेखों की सूची जिन्हें आपने सबसे ज्यादा पसंद किया और पढ़ा।
1. लाख की चूड़ियां बनाकर राजस्थान की कलात्मक विरासत को सहेजती ये मुस्लिम महिलाएं – शेफाली मार्टिन
अन्य प्राचीन शिल्पों की तरह यह कला भी स्थिरता और प्राकृतिक रंगों से परिपूर्ण है। लाख कीड़ों द्वारा स्वाभाविक रूप से उत्पादित एक प्राकृतिक रालयुक्त पदार्थ है। झारखंड जैसे राज्यों में बड़े पैमाने पर इसका उत्पादन पेड़ों में होता है। सलमा का परिवार इस राल को गांठ के रूप में प्राप्त करते हैं। मूल यौगिक बनाने के लिए वे इसे दो अन्य प्राकृतिक अवयवों के साथ पिघलाते हैं। फिर अन्य प्रक्रियाओं को पूरा करते हुए चूड़ी तैयार की जाती है। सलमा कहती हैं, “हम चूड़ियों को अलग-अलग रंग देने के लिए रंगीन लाह के पेस्ट का उपयोग करते हैं।” आगे वह बताती हैं कि आज कल एक पतली धातु की चूड़ी का सांचे के रूप में उपयोग किया जाता है, लेकिन केवल लाख की चूड़ियों में लकड़ी के सांचे का इस्तेमाल सही आकार देने के लिए किया जाता है।
2. ‘महिला घरेलू कामगार संगठन’ की नींव रख ‘चिंता दीदी’ कैसे बनीं हज़ारों महिला कामगारों की आवाज़ – सबा खान
चिंता तिलवारी वह नाम जिन्होंने तमाम संघर्षों के बीच मध्यप्रदेश के भोपाल ज़िले में ‘महिला घरेलू कामगार संगठन’ की नींव रखी। आज हम चिंता तिलवारी के नज़रिए से समझेंगे कि इस संगठन को उन्होंने किस तरह खड़ा किया और आज वह कैसे खुद को और दूसरी घरेलू कामगार महिलाओं को देखती हैं। 36 वर्षीय चिंता तिलवारी नेहरू नगर के मोची मोहल्ले की निवासी हैं। उन्होंने कक्षा चार तक पढ़ाई की है। वह बैतूल ज़िले के एक छोटे गाँव से पलायन कर रोज़गार की तलाश में 20 साल पहले भोपाल आई थीं अपने पति के साथ। आज मध्यप्रदेश महिला घरेलू कामगार संगठन में लगभग 1000 से भी अधिक महिलाएं शामिल हैं। शहर की लगभग 12 बस्तियों में उनकी समितियां हैं। चिंता दीदी घरेलू कामगार महिलाओं को एक मंच देने के लिए प्रदेश भर में अपने संगठन का विस्तार करना चाहती हैं।
3. मेनोपॉज़ क्या औरतों में सेक्स की इच्छा को खत्म कर देता है? – नूतन सिंह
हमारे समाज में माना जाता है कि मर्दों की ‘जवानी’ ताड़ के वृक्ष जैसी लंबी होती है। वहीं, औरतों के लिए यह कहा जाता है कि औरतें 40 के बाद ‘अनडिज़ायरेबल’ हो जाती हैं। इसके पीछे वजह यह है कि 40-45 की उम्र के बाद महिलाओं में मेनोपॉज़ होना शुरू हो जाता है। एक उम्र के बाद महिलाओं की ओवरी में फॉलिकल प्रोडक्शन खत्म हो जाता है। इसकी वजह से पीरियड्स आना बंद हो जाते हैं। यह कोई बीमारी नहीं है बल्कि यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। 40-45 की उम्र के बाद पीरियड्स आना एकदम से बंद नहीं हो जाता, धीरे-धीरे ऐसा होता है। इस दौरान कभी पीरियड्स में ब्लड फ्लो ज्यादा होता है तो कभी कम। कभी 10 दिन के अंतर में ही पीरियड्स आ जाते हैं तो कभी 2-3 महीने तक नहीं आते। धीरे-धीरे कुछ महीनों बाद पीरियड्स आना पूरी तरह से समाप्त हो जाता है।
4. एक ‘लोकतंत्र’ में पत्रकार रूपेश सिंह की गिरफ्तारी और उनके परिवार का संघर्ष – आसिफ असरार
झारखंड के स्वतंत्र पत्रकार रूपेश कुमार सिंह को पिछले साल 17 जुलाई को रामगढ़ स्थित उनके घर से गिरफ्तार किया गया था। रूपेश पर झारखंड की सरायकेला खरसावां ज़िले की पुलिस ने नक्सलियों से संपर्क रखने का आरोप लगाया है। पत्रकार रूपेश कुमार को गिरफ्तार हुए करीब आठ महीने हो चले हैं। उनका बेटा अग्रिम अविरल अपने छठे जन्मदिन के इंतज़ार में है। इंतज़ार में इसलिए क्योंकि अग्रिम जब अपने पिता रूपेश से मिलने जेल गया तब उसने अपने पिता से सवाल किया था कि वह घर कब आएंगे, तब रूपेश ने जवाब दिया था, “आपके जन्मदिन पर।” अग्रिम का जन्मदिन 31 जुलाई को है। रूपेश की पत्नी ईप्सा सताक्षी बताती हैं, “जेल में हुई उस मुलाकात के बाद से अविरल अकसर मुझसे पूछा करता है, मेरा बर्थडे कब आएगा।”
5.जॉयलैंड: लैंगिक असमानता, पितृसत्ता, सेक्सुअलिटी की सच्चाई को सामने रखती एक उम्दा कहानी – आशिका शिवांगी सिंह
फिल्म जॉयलैंड 95 वे अकादमी पुरस्कार के लिए पाकिस्तान से भेजी गई थी। यह पाकिस्तान की पहली फिल्म बनी है जो ‘कान्स फिल्म फेस्टिवल‘ में दिखाई गई है। फिल्म की कहानी हैदर (अली जुनेजो) के बारे में है जो एक शादीशुदा और बेरोज़गार मर्द है। हैदर की पत्नी मुमताज़ (रस्ती फारुक़) एक सैलून में काम करती है। हैदर का बड़ा भाई सलीम (सोहेल समीर) नौकरीपेशा है जिसकी पत्नी नुच्ची (सरवत गिलानी) गर्भवती है। सलीम की तीन बेटियां हैं लेकिन उन्हें बेटे की उम्मीद है और जांच के अनुसार अब बेटा ही होगा। फिल्म को कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले हैं लेकिन पाकिस्तान में इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।
6. हर दिन की थकान के बीच आराम खोजती औरतों का जीवन – कनिका
घर की औरतें जब कहती हैं, “सिर में दर्द है, पैरों में जान नहीं है, चक्कर से आ रहे हैं, हिम्मत टूट रही है” तो इन पर ध्यान देने की कभी नौबत परिवार के बाकी सदस्यों के लिए नहीं आई। ऐसा इसलिए क्योंकि हमने कभी इससे औरतों के काम पर कोई असर पड़ता नहीं देखते। हम नहीं देख पाए कि घर की औरतें एक नहीं कई जीवन जीती हैं। अपने पति का, बच्चों का, परिवारवालों का और उन सब में से सबसे कम जी पाती हैं खुद का जीवन। थकान समझने के लिए कोई नयी चीज़ नहीं है। ख़ासकर आज के पूंजीवादी दौर में जहां जीवन एक दौड़ है और जीवनयापन एक संघर्ष, हम सब थकान के शिकार हैं। लेकिन फिर भी हम इसे गंभीरता से क्यों नहीं लेते?
7. भारत के एक छोटे शहर में अंतरधार्मिक शादी करने की कोशिश का अनुभव – कनिका
मुझे लगता है कि विदाई से ज़्यादा महत्वपूर्ण इस समाज में कुछ नहीं है। लगभग हर धर्म में यह प्रथा व्याप्त है। सोच कर बड़ा हास्यास्पद सा लगता है कि सब रोते हैं, फिर भी रस्म अदा करते हैं। यही विदाई एक बड़ा कारण है लैंगिक भेदभाव का, कन्या भ्रूण हत्या का, बचपन में असमान व्यवहार का, संपत्ति के अधिकार न मिलने का आदि। यदि लड़कियों को किसी और घर का हिस्सा मानने जैसी सोच को ही नहीं बदलेंगे तो उस पर आधारित बातें कैसे बदलेंगी? बड़े-बड़े कलाकार, खिलाड़ी जिनका निजी जीवन इस प्रथा से प्रभावित भी नहीं होता, वो भी अपने समारोह में विदाई की प्रथा को तो निभाते ही हैं। सामाजिक स्तर पर इसे चुनौती देने की ज़रूरत है।
8. क्या आपने ‘एल्डेस्ट डॉटर सिंड्रोम’ के बारे में सुना है? – सृष्टि
“तुम सबसे बड़ी हो, सबका ख्याल रखा करो, जाने दो तुम्हारे छोटे भाई-बहन हैं…..” अगर आप अपने घर की सबसे बड़ी बेटी हैं तो आपने यह सब जरूर सुना होगा। ये सब सुनकर गुस्सा भी आता होगा कि आखिर ये सारी ज़िम्मेदारियां सबसे बड़ी बेटी की ही क्यों है? परिवार की सबसे बड़ी बेटी होना एक ट्रेनिंग की तरह है जो हमारे परिवार के सदस्य हमें बचपन से ही देना शुरू कर देते हैं। छोटी उम्र से ही हमारे अंदर यह भावना जागने लगती है कि हमें हमारे छोटे भाई-बहन का ध्यान रखना है। किसी बड़े की गैर-मौजूदगी में घर का ‘कमांडर’ बन जाना है। परिवार की सबसे बड़ी बेटी ज्यादातर यह अनुभव करती हैं कि उनके साथ माता-पिता सख्त व्यवहार करते हैं, घर का ज्यादातर काम उन्हें सौंप दिया जाता है।
9. यौन हिंसा सर्वाइवर के मानसिक स्वास्थ्य पर भी बात करनी है ज़रूरी – मासूम क़मर
एक इंसान चाहे वो पुरुष हो या महिला जो यौन उत्पीड़न का सर्वाइवर रह चुका है उसकी मेंटल हेल्थ का अंदाज़ा कोई नहीं लगा सकता। वह किस ट्रामा से गुज़र चुका है या गुज़र रहा है उसे कोई नहीं समझ सकता। ऐसे यौन उत्पीड़न जो ‘मज़ाक’ के नाम पर किये गए हैं या जिनमें सिर्फ ‘बाहरी टच’ किया गया था, के सर्वाइवर को अक्सर कहा जाता है कि वे ‘अनुचित’ या ‘बहुत संवेदनशील’ हो रहे हैं, या वे ‘मजाक नहीं ले सकते। लेकिन, हमें यह समझने की आवश्यकता है कि यौन उत्पीडन कभी भी मजाकिया नहीं होता और न ही होना चाहिए। क्योंकि मज़ाक के नाम पर आरोपी बहुत कुछ कर जाते हैं। यह अक्सर सर्वाइवर को परेशान, डरा हुआ, अपमानित या असुरक्षित महसूस करवाता है। प्रत्येक सर्वाइवर यौन हिंसा पर अलग तरीके से प्रतिक्रिया करता है।
10. लैंगिक हिंसा के सर्वाइवर्स के लिए ‘सुरक्षित शेल्टर’ की सुविधा होना क्यों है ज़रूरी – रितिका
एक ऐसे समाज में जहां लैंगिक हिंसा के मामले में विक्टिम ब्लेमिंग एक अहम भूमिका निभाता है। जहां सर्वाइवर्स सबसे अधिक इसी सवाल से जूझते हैं कि अगर उन्होंने घर छोड़ दिया तो उनके सामने क्या विकल्प होगा और इसी जद्दोजहद में वे हिंसा का सामना सालों-साल करते रहते हैं। कई रिसर्च और रिपोर्ट्स भी इस बात का हवाला देती हैं कि घर महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित स्थानों में से एक हैं। लैंगिक हिंसा सबसे अधिक परिचित और परिवारवालों द्वारा ही की जाती है। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि लैंगिक/घरेलू हिंसा के सर्वाइवर्स सबसे अधिक अपने घरों में ही रहने को मजबूर होते हैं। वहां शेल्टर्स की भूमिका और अहम हो जाती है।
11. अर्थशास्त्री के रूप में बाबा साहब भीमराव आंबेडकर – मोनिका
डॉ आंबेडकर अर्थशास्त्र में पीएचडी करने वाले पहले भारतीय थे। उन्होंने साल 1915 में अमेरिका की प्रसिद्ध कोलंबिया यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में एमए किया। साल 1917 में इसी संस्थान से पीएचडी की डिग्री हासिल की। साल 1921 में लंदन स्कूल ऑफ़ इकॉनमिक्स से अर्थशास्त्र में डॉ ऑफ सांइस की डिग्री प्राप्त की। आंबेडकर उस समय के दिग्गज अर्थशास्त्रियों सेलिगमेन, एड्विन कानन और जॉन डूयूई के संपर्क में आए और उनसे प्रभावित हुए। आंबेडकर ने अपने करियर की शुरुआत भी अर्थशास्त्र में की थी।
12. तस्वीरों में: बस्ती के कैंपस में बच्चों का एक दिन! – कनिका
यह एक बस्ती है जैसे देश में हज़ारों, लाखों दूसरी बस्तियां हैं। सारी बस्तियों को बस ‘बस्ती’ कहकर हम उन्हें कितना कम समझ पाते हैं। हम सबने इस बस्ती को देखा है लेकिन अधिकतर केवल सामने दिख रही सड़क से गुज़रते हुए, बहुत दूर से। बाहर से देखते हुए हमने कभी-कभी चिंता की कि कोई ऐसे कैसे रहता होगा तो कभी हमने कहा होगा, “ये लोग भी कोई ग़रीब हैं? देखो, इनके पास तो टीवी है, फ़ोन है, कइयों के पास तो ट्रैक्टर भी है। जानबूझ कर ग़रीबों की तरह रहते हैं ये।” हम जिस बस्ती की बात कर रहे हैं यह झुंझुनू के रिक्को क्षेत्र में मौजूद है। यहां मुख्य रूप से बंजारा और नट समुदाय के लोग हैं जो कोटा, पाली, कुछ पंजाब से भी पलायन करके दशकों से यहीं रह रहे हैं। बस्ती में करीब 50 परिवार रहते हैं जो पड़ोस की फैक्ट्रियों में या कंस्ट्रक्शन साइट पर काम करते हैं।
13. कैंपस में प्यार और सेक्सुअलिटी के मायने समझाती यश की कहानी – रिशू कुमारी
लोग अपनी भावना और पहचान दोनों को सामाजिक रूप से स्वीकार करने से झिझक खाते हैं। ख़ास तौर पर लड़कियां और एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोग। हमारे जीवन काल के बदलते परिवेश में भिन्न प्रकार की चुनौतियां विकसित होती है। इन्हीं में से कैंपस एक मुख्य जगह है जहां युवा पीढ़ी एक लंबा समय व्यतीत करते हैं। तो ऐसी जगह प्यार और सेक्सुअलिटी के क्या मायने हैं इसे समझना खुद में एक चुनौती है। इसे बेहतर समझने के लिए हमने यशस्विनी से बात की है। यशस्विनी बिहार की रहने वाली है और फ़िलहाल जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से राजनीतिक विज्ञान की पढ़ाई कर रही हैं।
14. औरतों के कपड़ों में जेब और लिपिस्टिक के लाल रंग पर रोक के पीछे पितृसत्ता की गहरी जड़ें – टीना
पितृसत्ता का इतिहास किस प्रकार नारी के जीवन को आज भी प्रभावित करता है। कैसे वह उसके जीवन की हर छोटी-छोटी ज़रूरत या पसंद को नियंत्रित करता है। पितृसत्ता का यह रूप एक गहरी जड़ बनकर हमारे जीवन में स्थापित हो चुका है जिस पर बिना कोई प्रश्नचिह्न उठाए आगे बढ़ा जा रहा है। यही सोच लिपिस्टिक के रंग और औरतों के कपड़ों में लगी जेब को गैर-ज़रूरी बताती है। लाल लिपस्टिक जिस तरह का आत्मविश्वास प्रदान करती है शायद कोई और चीज़ वह काम करती हो! लेकिन इसका इतिहास कुछ और ही कहता है। आज से 5000 वर्षों पूर्व मेसोपोटामिया में पहली लाल लिपिस्टिक पाई गई थी।
15. LGBTQIA+ समुदाय के लिए कितना समावेशी है जेएनयू कैंपस! – यशस्विनी शर्मा
1969 में स्थापित हुआ यह विश्वविद्यालय हर उन मुद्दों के लिए लड़ता नज़र आया है जो जनहित में हो। चाहे वह फीस में बढ़ोतरी का मुद्दा हो या महिला सुरक्षा का, जेएनयू से हमेशा ही विरोध स्वर फूटा है। जेएनयू कैंपस शायद देश का सबसे समावेशी विश्वविद्यालय कैंपस हो, लेकिन जब बात क्वीयर विद्यार्थियों की आती है, तो खुद एक क्वीयर व्यक्ति होने के नाते मेरा और मेरे अन्य क्वीयर साथियों का अनुभव बताता है कि अभी कई ऐसी कमियां हैं जिनसे जेएनयू को उबरना होगा ताकि वह एक क्वीयर-फ्रेंडली और अधिक समावेशी कैम्पस बन सके।
16. दिल्ली विश्वविद्यालय में हाशिये के विद्यार्थियों के लिए संघर्ष, कैंपस ‘सवर्णों का स्वर्ग’ है – आयुष्मान
दिल्ली विश्वविद्यालय अपनी बुनियाद में पूरा एलीट है। गाँव से आने वाले पिछड़े, दलित-आदिवासी विद्यार्थी यहाँ सहज नहीं महसूस कर पाते हैं। उन्हें लगता है कि ये अलग ‘दुनिया’ है। दिल्ली विश्वविद्यालय इन विद्यार्थियों को सहज महसूस कराने का कोई प्रयास भी नहीं करता है। विद्यार्थियों के मन में एक किस्म का हीनताबोध पहले ही भर जाता है। उन्हें लगता है कि इस पूरे ढाँचे में वे ‘मिसफिट’ हैं। अगर आपके पास किसी भी तरह का प्रिविलेज नहीं है तब आप यहाँ नहीं पढ़ सकते हैं। कहने के लिए सबके पास शिक्षा का अधिकार है लेकिन शिक्षा तक पहुँचने के उपकरण इतने कठिन हैं कि हर कोई वहाँ नहीं पहुँच सकता है।
17. कैसे पितृसत्ता तय करती है नाच का पेशा किनके लिए है ‘सम्मानजनक – श्रृंखला
समाज में सबका नाचना इतना बुरा और घातक नहीं माना जाता है, जितना कि ‘नचनियों’ का। जैसे, अगर आपका नाच धार्मिक-सांस्कृतिक-देशभक्ति की जड़ों से उपजे तो उसकी गिनती अचानक ‘कला’ की श्रेणी में होने लग जाती है। लोग उसे कामुकता की ठीक विपरीत निगाहों से देखने लग जाते हैं। वह ‘नाच’ ‘नृत्य’ में बदल जाता है। ठीक वैसे ही, अगर आप नृत्यकला में ‘गुरु’ का स्थान हासिल कर लें या आपकी कला पितृसत्तात्मक परिभाषा के अनुसार सम्मानजनक आर्थिक प्रतिफल लाने में कामयाब हो जाए, तो फिर उसकी गणना ‘कामयाबी’ में होने लगती है।
18. दिल्ली में हर रोज़ किन चुनौतियों का सामना करती हैं मुफ्त बस सेवा का इस्तेमाल करती महिलाएं! – श्वेता
दिल्ली सरकार की फ्री बस सेवा की वजह से महिला यात्रियों को आए दिन ज़लील होना पड़ रहा है। पुरुष सहयात्रियों के साथ-साथ बस के ड्राइवर, कंडक्टर और मार्शल भी महिलाओं को हर रोज़ यह याद दिला रहे हैं कि वे मुफ्त में यात्रा कर रही हैं। इसलिए उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होगा। कई बार बस में होनेवाले यौन उत्पीड़न के खिलाफ़ आवाज़ उठाने वाली महिलाओं से यहां तक कह दिया जाता है, “फ्री में चलना है और नखरे भी दिखाना है। भीड़ है तो हाथ लगेगा ही। दिक्कत है तो पैसे देकर ऑटो से जाया करो।”
19. जाति और लिंग: दलित इतिहास में स्त्री और स्त्री इतिहास में दलित को अंकित करती एक ज़रूरी किताब -अशोक कुमार
एक ऐसा समाज जो कि सहत्राब्दियों से पितृसत्ता और जाति व्यवस्था की दोहरी दमनकारी जंजीरों से जकड़ा हुआ था, वहां एक दलित महिला का, देश के सबसे बड़े सूबे का मुख्यमंत्री बन जाना क्रांतिकारी घटना तो है ही। यह तो समाज का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि जब भी रंगभेद के मसले पर विमर्श शुरू होता है तब बहस का दायरा सिमट कर सिर्फ ब्लैक‘पुरुषों’ तक सीमित हो जाता है। ऐसे ही, भारत में महिलाओं के उत्थान का मतलब है सवर्ण महिलाओं का उत्थान बनकर रह जाता है।
20. कैसे औरतों को करती है प्रभावित ‘पितृसत्तात्मक सौदेबाजी’ – आशिका शिवांगी सिंह
डेनिज कंदीयोती ने 1988 में अपने लिखे लेख ‘बार्गेनिंग विद पेट्रियार्की’ में पेट्रियार्कल बारगेन शब्द को इस्तेमाल किया था। यह शब्द किसी महिला के कुछ लाभ प्राप्त करने के लिए पितृसत्ता की मांगों के अनुरूप होने के निर्णय को संदर्भित करता है, चाहे वह वित्तीय, मनोवैज्ञानिक/भावनात्मक या सामाजिक हो। आसान शब्दों में समझना चाहें तो इसे ऐसे समझ सकते हैं कि महिलाएं पितृसत्तात्मक तरीके से पेश आती हैं, वह हर काम करती हैं जिससे पितृसत्ता कायम रहे और फैले ताकि पुरुष का संरक्षण उन्हें मिलता रहे। अगर ऐसा नहीं होता है तो वे बहिष्कृत की जा सकती हैं। उदाहरण के रूप में किसी घर में बहू द्वारा बेटा जनने के लिए उनकी सास अधिक ज़ोर लगाती हैं क्योंकि ऐसा वे अगर नहीं करेंगी तो उनके पति उनके साथ कैसा बर्ताव करेंगे ये उन्हें पता है।
21. अंतर्जातीय प्रेम संबंधों में जातिवाद से गुज़रती दलित युवतियों के अनुभव – वर्षा प्रकाश
अंतर्जातीय प्रेम संबंधों के भीतर जाति, वर्ग, नस्ल आदि रुझान के साथ जेंडर के अंतर्संबंध को संबोधित करने वाले विषय आज भी शोध की दृष्टि से बाहर हैं। हमे इस बात को समझना होगा कि जब दो अलग-अलग जाति के लोग प्रेम की ओर बढ़ते हैं तो उनके बीच केवल भावनात्मक और शारीरिक अंतरंगता ही नहीं बल्कि सामाजिक अंतरंगता भी शामिल होती है। इस लेख में हमने ऐसा ही एक प्रयास किया है। यहां हमने दिल्ली शहर में रह रही दलित महिलाओं से बातचीत की है।
22. भारतीय ग्रामीण समाज और स्त्रियों की दमित यौन इच्छाएं – रूपम मिश्र
ग्रामीण समाज की संरचना देखी जाए तो सबसे कठिन है यहां स्त्री की यौन इच्छा पर बात करना। खु़द स्त्रियां भी अपनी यौन इच्छा पर कतई बात नहीं कर सकतीं। भले वे उसी दमित इच्छाओं को केंद्र बनाते हुए यौन संबंधों से जुड़े अश्लील मज़ाक करें, गीत गाएं लेकिन खुद के मन में यौन क्रिया की इच्छाएं उठती हैं उस पर यहां कोई भी स्त्री बात करने को तैयार नहीं। स्त्री की यौन इच्छाओं के स्वरूप भी बहुत अलग-अलग होते हैं जरूरी नहीं कि हर स्त्री में यौन इच्छा का आवेग एक जैसा हो।
23. खुद की पसंद से साथी चुनने पर भावनात्मक हिंसा का सामना करती महिलाएं! -पूजा राठी
भारतीय संविधान के अनुसार देश के प्रत्येक नागरिक को खुद की पसंद से जीवनसाथी चुनने का अधिकार है। कानून के तहत 18 साल की उम्र के बाद दो बालिग व्यक्ति अपनी पसंद के साथ किसी से भी विवाह कर सकता है लेकिन भारतीय पितृसत्तात्मक जातिवादी समाज में संविधान के द्वारा दी गई व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी को सबसे पहले नष्ट किया जाता है। पुरुषवादी समाज में जब एक लड़की अपनी एजेंसी का इस्तेमाल करते हुए खुद की पसंद से जीवनसाथी चुनने का फैसला करती है तो उसे हिंसा का सामना करना पड़ता है।