FII Inside News FII के 19 बेहतरीन नारीवादी हिंदी लेख : साल 2019 में जिन्हें आपने सबसे ज़्यादा पसंद किया

FII के 19 बेहतरीन नारीवादी हिंदी लेख : साल 2019 में जिन्हें आपने सबसे ज़्यादा पसंद किया

पेश है, साल 2019 में 'फेमिनिज्म इन इंडिया-हिंदी' में प्रकाशित उन समावेशी नारीवादी हिंदी लेखों की फेहरिस्त, जिन्हें आपने सबसे ज्यादा पसंद किया और पढ़ा|

साल 2019 के आख़िर में हम आपके लिए लाए हैं बीते सालभर में ‘फेमिनिज्म इन इंडिया-हिंदी’ में प्रकाशित उन समावेशी नारीवादी हिंदी लेखों की फेहरिस्त, जिन्हें आपने सबसे ज्यादा पसंद किया और पढ़ा| आइये हमलोग साथ मिलकर देखतें हैं इन लेखों की झलकियाँ !

  1. सिर्फ़ पति के ना होने पर औरत सिंगल? ऐसा भला क्यों? – कमला भसीन

औरत के लिए सिंगल शब्द सिर्फ़ एक विवरण नहीं हैl यह एक मूल्याँकन हैl सिंगल है तो गडबड है, वह घटिया हैl विधवाओं का कितना बुरा हाल किया जाता है हम सब जानते हैंl कई बार तो उसे अपनी पति की मौत का ज़िम्मेदार माना जाता है, क्योंकि अगर वो सती सावित्री होती तो पति को मरने नहीं देतीl विधवाओं को मनहूस माना जाता हैl किसी नेक काम के दौरान उन्हें वहाँ मौजूद होने तक का हक़ नहीं हैl ज़रा सोचकर देखिये कितना ज़ालिम है हमारा समाजl कुछ भाषाओं में विधवा को रांड या रंडी कहते हैं और वैश्या के लिए भी यही शब्द इस्तेमाल होता हैl

2. पंजाब विभाजन : जब पंजाबी औरतों के शरीर का हो रहा था शिकार – स्वाती सिंह

अब इसे किसी पितृसत्तामक समाज की विडंबना कहें या संयोग कि ऐसे समाज में एक ओर जहाँ महिलाओं का महिमामंडन किया जाता है, वहीं दूसरी तरफ उनके इंसानी अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जाता है| इतना ही नहीं, उन्हें इंसान की बजाय इज्जत नाम के लेप से ऐसा लिपापोता जाता है कि उनके लिए अपनी जान से ज्यादा प्यारी उनकी इज्जत होती है और इसी के चलते किसी भी हिंसा में महिलाओं की अस्मिता को पहला निशाना बनाया जाता है| इसी विचार के साथ भारत के बंटवारे के दौरान भी महिलाओं को निशाना बनाया गया| औरतों पर ऐसी हैवानियत की शुरुआत मार्च 1947 के रावलपिंडी के दंगों से शुरू हो गई थी| थोहा खालसा के गांव में हिंदू सिक्ख औरतें दंगाइंयों से अपनी इज़्जत बचाने के लिए कुएं में छलांग लगाकर मर गई थीं| 

3. डियर पाँच बेटियों के पापा… – रितिका

लड़कियों को सिर्फ पढ़ा-लिखाकर, उन्हें आत्मनिर्भर बनाकर अगर आपको लगता है कि आपने इस पितृसत्तात्मक समाज को चुनौती दी है तो आप बिल्कुल गलत हैं| यह मल्टीलेयर है, जैसे आपका दीदी की एक अच्छी तस्वीर लड़के वालों के लिए मांगना पितृसत्ता ही है| जब आप दीदी से तस्वीर में कम मुस्कुराने को कहते हैं तो ध्यान दीजिए यह भी पितृसत्ता है क्योंकि जो़र-ज़ोर से हंसने वाली लड़कियां इस समाज को बर्दाश्त नहीं होती| क्या आपको लगता है वह लड़का अपनी तस्वीर मांगे जाने पर अपने पिता को पत्र लिख रहा होगा – बिल्कुल नहीं| उस लड़के पर किसी तरह का दबाव नहीं है यही है पितृसत्ता|

4. औरत ही औरत की दुश्मन है? : एक नारीवादी अध्ययन – पूर्वी यादव

इसे नकारा नहीं जा सकता कि महिलाएं भी पितृसत्तामक बन जाती है, सालों से जिस सामाजिक व्यवस्था का हम हिस्सा है वो हमारे अंदर इतना रच बस जाती है कि हम उसी ढांचे के सूत्रधार बन जाते हैं। पुरुष पर आर्थिक तौर पर निर्भर होना, समाज से स्वीकृति की चाह, एक ढांचे में बंधे रहने से मिलने वाली सुरक्षा, सामाजिक तौर तरीकों के साथ चलने पर लोग आप पर सवाल नहीं उठाएंगे| पर विरोध करने पर मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा और सबसे अहम बात इस मुद्दे की समझ न होना कि जो जेंडर आधारित फर्क है वो गैर-बराबरी का जातक है और हम इसे चुनौती दे सकते हैं जो महिला को पितृसत्ता के ढांचे में बंधे रहने के लिए बाध्य करते हैं।

5. जेंडर के ढाँचे से जूझता मेरा बचपन – शशांक

आज तीस साल बाद जब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो लगता है, इस लड़की-लड़के के चक्कर ने मेरे पापा और मेरा रिश्ता खा लिया| पापा ने यही कोशिश की  कि मैं किसी भी तरह बस मर्द के खांचे में ढल जाऊं| उनसे आजतक बात नहीं होती और शायद इस जन्म में होगी भी नहीं| क्योंकि उनके मन मुताबिक ‘मैं मर्द नहीं हूँ|’ आज जब पितृसत्ता की गहराईयाँ समझता हूँ तो खुद को अपराधबोध से मुक्त पाता हूँ| पहले दूसरे लड़कों को देखकर खुद में कुछ कमी का अहसास होता था| अब अपने शरीर और रूह को जोड़ने की प्रक्रिया में हूँ| खुलकर हँसता-रोता हूँ और जो अच्छा लगता है सब करता हूँ| चाहे समाज उसे औरताना कहे या मर्दाना| अब मेरे लिए तो सब इंसाना है|

6. ‘पीरियड का खून नहीं समाज की सोच गंदी है।’ – एक वैज्ञानिक विश्लेषण – स्वाती सिंह

सरल शब्दों में, इसे समझा जाए तो हर महीने महिला के शरीर में बनने वाला अंडा पीरियड के रूप में योनि से बाहर निकलता है| पीरियड के दौरान गाढ़े खून जैसे निकलने वाले में खून की मात्रा बेहद कम होती है, बल्कि इसमें अन्य तत्वों की मात्रा ज्यादा होती है| ये वही तत्व हैं जो महिला के गर्भ में पलने वाले भ्रूण के निर्माण और विकास में अहम भूमिका निभाते है| साफ़ है कि पीरियड के दौरान निकलने वाला पदार्थ गंदा या अशुद्ध नहीं होता है| बल्कि ये महिला के शरीर में बनने वाला ऊर्वरक बीज होता है, जो ढ़ेरों उपयोगी रसायनों से मिलकर बना होता है|

7. नोबेल विजेता अर्थशास्त्री एस्थर डफ़्लो का परिचय किसी का पत्नी होना नहीं – पूजा  

यह तथ्यात्मक रूप से सच है कि एस्थर डफ्लो अभिजीत बनर्जी की पत्नी हैं। लेकिन इसका दूसरा तथ्य ये भी है कि उन्हें यह नोबल बिल्कुल भी इसलिए नहीं दिया गया कि वो अभिजीत बनर्जी की पत्नी है। एस्थर अर्थशास्त्र में नोबल पुरस्कार पाने वाली दूसरी महिला हैं। उन्होंने सबसे कम उम्र में अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार हासिल किया है। एस्थर को डेवलपमेंट अर्थशास्त्र के लिए दुनियाभर में महत्वपूर्ण नाम माना जाता है, उन्होंने शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे सेक्टर में कई अभिनव प्रयोग किये हैं।

8. डॉक्टर पायल ताडवी की हत्यारी है, हमारे समाज की सड़ी जातिगत व्यवस्था – जगीशा अरोरा

आरक्षण के वास्तविक अर्थ को बिना समझे हम किसी को इतना प्रताड़ित करने में लग जाते है कि वो अपनी जान ले लेता हैं। जाति के कारण कितने छात्र-छात्राएं अपनी जान ले रहे है, लेकिन संस्थान व प्रशासन अपने हाथ बांधे हुए है। हाल ही में एक नया मामला आया जिसमें एक महिला डॉक्टर ने जातीय हिंसा से तंग आकर ख़ुदकुशी कर ली। डॉक्टर पायल तडवी नायर अस्पताल के टॉपिकल नेशनल मेडिकल कॉलेज में गायनोकोलॉजी एंडऑब्स्टेट्रिक्स  के सेकेंड ईयर में  पढ़ती थी। उसका आदिवासी होना उसके सीनियर्स को खलता था और इतना खलता था कि वह उसे तरह-तरह के ताने मारा करती थी औऱ जाति-सूचक फब्तियां भी कसा करती थी।

9. नो नेशन फ़ॉर वुमन : बलात्कार के नासूरों को खोलती एक ‘ज़रूरी किताब’ – अविनाश कुमार चंचल

प्रियंका दुबे की किताब ‘नो नेशन फॉर वुमन’ इन्हीं इलाकों में लेकर जाती है और यौन हिंसा की शिकार महिलाओं, उनके परिवार वालों, उनकी झोपड़ी, उनके बरामदे, गली, सर्टिफिकेट रखने वाली फाइल, एफआईआर, कोर्ट, पुलिस, सपने, डर और अन्याय की कहानी को इतने इत्मीनान और विस्तार से सुनाती है कि वो कहानियां आपको बैचेन करने लगती हैं। आपको यकीन नहीं होता कि आप सच में उस देश का हिस्सा हैं जो सत्तर साल पहले आजाद हो चुका है और जिसकी आजादी की नींव ही समानता और न्याय पर रखी गयी है। आप शायद इसलिए भी यकीन नहीं कर पाते क्योंकि आप मर्द होने, देश की राजधानी में होने और अपने ‘आईसोलेटेड आईसलैंड’ में यूटोपियन समाज की कल्पना करने का प्रिविलेज रखते हैं।

10. ख़बर अच्छी है : LGBTIQ+ खिलाड़ियों ने जीता फ़ीफ़ा महिला विश्व कप – आरती

फीफा महिला विश्व कप का खिताब जीतने वाली अमेरिका की खिलाड़ी 11 टीम में से इस बार पांच लेस्बियन खिलाड़ी मैदान में थी| फुटबॉल में 11 खिलाड़ियों की टीम में कितनी बार आपने देखा है कि पांच लेस्बियन खिलाड़ी मैदान में खेल रहे हों| शायद कभी नहीं| लेकिन इसबार ये नामुमकिन-सा नज़ारा हमारी आँखों के सामने था| महिला फुटबॉल जगत की ऐसी ही एक दमदार खिलाड़ी मेगन रापिनो लाखों लोगों की प्रेरणा बन गई हैं| महिला फुटबॉल खिलाड़ियों की पॉपुलैरिटी तेजी से बढ़ रही है| 

11. द्रविण आंदोलन : ब्राह्मणवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ सबसे प्रभावी आंदोलन में से एक – स्वाती सिंह

ऐसा नहीं है कि जाति की इस जटिल व्यवस्था को तोड़ने का प्रयास कभी नहीं किया गया| यों तो इस जटिल व्यवस्था को जड़ से खत्म करने में वे प्रयास पूरी तरह सफल नहीं हुए, लेकिन वास्तविकता ये है कि इसे खत्म करने के लिए अगर वे प्रयास नहीं किये गये होते आज शायद हमारे समाज की तस्वीर कुछ और होती| जाति-व्यवस्था के विरोध में ऐसे बहुत से आंदोलन  हुए हैं, जो बेहद सफल और प्रभावी रहे और इन्हीं आंदोलनों में से प्रमुख है साल 1925 में तमिलनाडू में हुआ – आत्म-सम्मान या द्रविण आंदोलन | पेरियार ई.वी. रामास्वामी की अगुवाई में इस आंदोलन  की शुरुआत तब हुई जब भारत देश अपने आज़ाद देश का सपना पूरा करने को संघर्ष कर रहा था|

12. हम सभी को नारीवादी क्यों होना चाहिए? – जानने के लिए पढ़िए ये किताब – आयुषी गोस्वामी

यह किताब उन लोगो पर भी तेज़ी से नज़र दौड़ाती है, जो समाज की मानसिकता को कहीं ना कहीं अपनी सोच से सीमित कर देते हैं। पहले आते हैं वे प्रगतिशील पुरुष, जिनके पास सारी सुख-सुविधाएं होती हैं और वे ऐसे घरों में पले-बड़े होते हैं जहां भेदभाव कम या ना के बराबर होता है। उन्हें लगता है कि जिस अत्याचार और पक्षपात की बात महिलाएं करती हैं, वह पहले के ज़माने में हुआ करता था और अब हर जगह स्त्रियों और पुरुषों को एक समान अवसर मिलते हैं। दूसरे होते हैं वे लोग जिन्हें आज भी यही लगता है कि अगर किसी महिला के साथ छेड़छाड़ या बलात्कार जैसी घटना हुई है, तो उसमें भी दोषी औरत ही है क्योंकि वह उस परिस्थिति या जगह पर मौजूद थी। अब ऐसे विचारों का परिणाम क्या होता है यह तो हमें रोज़ाना न्यूज़ माध्यम से पता चल जाता है।

13. भली लड़कियाँ बुरी लड़कियाँ – मानवी वहाने

अमूमन कहानियों में लेखक समाधान प्रस्तुत करते हैं, समस्या या हालात बताकर छोड़ देने वाली कहानी अधूरी – सी लगती है। लेकिन शायद इस उपन्यास का मकसद यही था, हालात बताकर छोड़ देना, क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज के  जिन स्त्री द्वेषी हालात में कोई लड़की हार मानकर आत्महत्या का विकल्प चुनती, तो कोई लड़की हिम्मत करके कानून का दरवाज़ा खटखटाती है, वहीं कोई लड़की ऐसी भी हो सकती है जो अपने तरीके से अपनी लड़ाई लड़े।

14. मर्दों के ‘विशेषाधिकार’ कितने है लाभदायक और हानिकारक ? – रोकी कुमार

लिंग के आधार पर देखे तो पुरुषों को बहुत से विशेषाधिकार सामाजिक रूप से मिले हुए है, जिनको पुरुष बहुत कम पहचान पाते है। इसके साथ यह भी नजर आता है कि जिन्हें पुरुष हितकारी विशेषाधिकार समझकर रोज़ाना अपने जीवन में अपना रहे है कैसे वो उनके  खिलाफ एक जाल बना देते है। इस जाल में रहकर समानता, न्याय और मानवता को देख पाना मुश्किल हो जाता हैं और जब तक पुरूष उन्हें तोड़ कर बाहर ना आ जाए ।

15. जेएनयू में दमन का क़िस्सा हम सभी का हिस्सा है, जिसपर बोलना-मुँह खोलना हम सभी के लिए ज़रूरी है! – स्वाती सिंह

इन दिनों में दिल्ली का जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय सुर्ख़ियों में हैं, क्योंकि इसे विचित्र से दिखने वाले उसी विकास के नामपर कुचलने की साज़िश रची जा रही है। यह सुर्ख़ियो में है- अपने उस विकास के लिए जिसके तहत स्टूडेंट्स की वाजिब माँगों के लिए उनपर धड़ल्ले से लाठी बरसायी जा रही है। क्योंकि वे उस विकास का हिस्सा नहीं बनना चाहते, जिसमें उनके मौलिक अधिकारों का दमन कर उन्हें हाशिए पर समेट दिया जाए।

16. जनाब! यौन हिंसा को रोकने के लिए ‘एनकाउंटर’ की नहीं ‘घर’ में बदलाव लाने की ज़रूरत है – रोकी कुमार

पितृसत्तात्मक सोच और उसको बढावा देने वाले कारक ही बलात्कार जैसे अपराधों की असल जड़ हैं। फाँसी की सजा देना या एन्काउन्टर में अपराधियों का मारा जाना कभी समाज मे महिलाओं हिंसा को रोकने में बड़ी भूमिका नही निभा सकता क्योंकि जब तक समस्या की जड़ो पर काम नही होगा तब तक बदलाव आना मुश्किल है और फांसी देना या एनकाउंटर करना समस्या को जड़ से खत्म नही करता है यह सिर्फ बहुत कम समय के लिए समस्या को रोकता जरूर है पर खत्म नही करता है आज जरूरत समस्या को जड़ से खत्म करने की है।

17. भारतीय महिला पुरुष का ये संघर्ष, आख़िर और कब तक? – विनीता केवलानी और आर रोचिन चंद्रा

माहवारी में उपयोग होने वाले सेनेटरी नैपकिन्स और उन्हें डिस्पोज़ करने के लिए इंसीनरेटर भी पुलिस स्टेशन में उपलब्ध नहीं है, जबकि वे रेलवे स्टेशन जैसी जगहों में आसानी से प्राप्त किये जा सकते है | अधिकतर बीट एवं बंदोबस्त पॉइंट पर शौचालय की सुविधा ना होने के कारण उन्हें घंटो तक शौचालय उपयोग किए बिना खड़ा रहना पड़ता है| जिससे वे कई सारे इन्फेक्शन्स की चपेट में आ सकती है, और मासिक के दिनों में तो सम्भावना और भी बढ़ जाती है|

18. अब महिलाओं को राजनीति करना पड़ेगा – प्राजक्ता देशमुख

राजनीति अत्यधिक पितृसत्तात्मक होने के कारण, आज भी एक पुरुष गढ़ है, जो बेहद मजबूत है| इसके चलते इसके जीतने की क्षमता के मुद्दे पर महिलाओं का चयन नहीं करती है|  जबकि शोध से यह साबित होता है कि अधिक लोग महिला उम्मीदवार को वोट देना चाहते हैं| इसलिए राष्ट्र में सही मायने में लैंगिक-समानता के लिए, महिलाओं को अपने राजनीतिक अधिकारों के बारे में जागरूक होना पड़ेगा, चर्चाओं में शामिल होना पड़ेगा , चुनावी राजनीति में भाग लेना पड़ेगा | सिद्ध ट्रैक रिकॉर्ड, गैर-सांप्रदायिक, गैर-भ्रष्ट और गैर-लिंगभेद कार्यों के साथ सही उम्मीदवारों के लिए मतदान करना  पड़ेगा।

19. यौन-उत्पीड़न की शिकायतों को निगलना और लड़कियों को कंट्रोल करना – यही है ICC? – सुजाता

अकादमिक संस्थानों में ICC यानी इंटरनल कंप्लेण्ट्स कमिटी का मुख्य काम यौन-उत्पीड़न की शिकायतों को दबाने का होता जा रहा है। ऐसे ही लड़कियाँ निराश रहती हैं कि कुछ होना-जाना तो है नहीं इसलिए लिखित शिकायतें दर्ज करने से बचती हैं ताकि शोषण के साथ थोड़ा-बहुत चैन से जी लें बजाय इसके कि शिकायत डालकर जीवन को नरक बना लें और करियर तबाह कर लें। उसपर से जो लड़कियाँ शिकायत करें उन्हें पूरा संस्थान दबाने में लग जाता है, अक्सर घरवाले भी। घर की और संस्थान की इज़्ज़त और साख नहीं बिगड़नी चाहिए। इसलिए नासमझ लड़कियों के ख़िलाफ़ पितृसत्ता को एक होना पड़ता है।

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